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छठ गीतों से लेकर विवाह के गानों तक, हर पीढ़ी को पसंद है शारदा सिन्हा की आवाज

छठ गीतों को शारदा सिन्हा की गायकी ने ही गांव से शहर-महानगर और फिर सात समंदर पार पहुंचाया। यही वजह है कि शारदा सिन्हा के गीतों के बगैर छठ पर्व का सांस्कृतिक पक्ष अधूरा माना जाता रहा है। उनकी आवाज इस पर्व का पर्याय बन चुकी है।

Nishant Nandan हिन्दुस्तान, पटनाWed, 6 Nov 2024 06:55 AM
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Sharda Sinha: छठ महापर्व के मौके पर जब भी यह गीत गूंजता है - कांचहि बांस के बहंगिया, बहंगी केकर जाए.....शारदा सिन्हा का सौम्य और शांत चेहरा चेहन में उभरता है। उत्तर बिहार के हिन्दी पट्टी से लेकर विदेश में रह रहे हिन्दी भाषा-भाषियों के घरों में छठ महापर्व शुरू होते ही ऐसे अनेकों गीत बजने लगते हैं। उगअ हो सुरुजदेव, भइल अरग के बेर.... या रुनकी-झुनकी बेटी मांगिले, मांगिले पढ़ल पंडितवा दामाद....या फिर यह गीत केलवा के पात पर उग ले सूरजदेव....। युगों-युगों से गाये जाने वाले इन छठ गीतों को शारदा सिन्हा की गायकी ने ही गांव से शहर-महानगर और फिर सात समंदर पार पहुंचाया। यही वजह है कि शारदा सिन्हा के गीतों के बगैर छठ पर्व का सांस्कृतिक पक्ष अधूरा माना जाता रहा है। उनकी आवाज इस पर्व का पर्याय बन चुकी है।

शारदा सिन्हा ने छठ पर्व के अलावा विवाह गीत, बेटी की विदाई गीत और अन्य ग्रामीण पर्वों पर आधारित गीतों को भी अपनी आवाज देकर इन्हें पुनप्रर्तिष्ठापित किया। कम ही गायक ऐसे होते हैं, जिन्होंने एक साथ लोक संस्कृति के अलग-अलग पक्षों को साधा हो। शारदा जी इस मायने में अनूठी कलाकार हैं। उन्होंने अपने गायन में जितनी शिद्दत के साथ छठ पर्व में छठी मईया और भगवान भाष्कर के प्रति भक्ति को अभिव्यक्त किया, उतने ही करीने से विवाह गीतों में खुशी और उल्लास को स्वर दिया। उनके गाये बेटी विदाई के गीत सुनकर तो आज भी लोगों की आंख से आंसू टपकने लगते हैं। उनके गीतों में पारंपरिक मूल्यों और समर्पण की भावना है, जो उन्हें अन्य गायकों से अलग बनाती है।

हर दौर के प्रासंगिक गीतों को गाया

शारदा सिन्हा के गीत आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने पहले थे। उनकी आवाज और गीतों में वह ताकत है जो हर पीढ़ी के दिल को छू जाती है। अमवा महुअवा के झूमे डलिया---, पनिया के जहाज पर पलटनिया बनी अइह पिया.... और कोयल बिन बगिया न सोभे राजा... जैसे गीत इस दौर में भी लोकप्रिय हैं, जबकि भोजपुरी गीतों में अश्लीलता अपने चरम पर हैं। शारदा सिन्हा ने कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया और सस्ती लोकप्रियता के लिए कभी सतही गाने नहीं गाये। इस तरह उन्होंने भारतीय संगीत जगत में एक ऐसी धारा को पुनर्जीवित किया, जो अपनी मिट्टी से उपजी थी और जिसे नई पीढ़ी भूलती जा रही थी। उनकी आवाज ने लोकसंगीत को एक नया आयाम दिया है और उसे देश-विदेश में पहचान दिलाई। शायद इन्हीं वजहों से उनके गीत कालजयी हैं और प्रासंगिक बने हुए हैं।

सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण

शारदा सिन्हा न केवल एक गायिका थीं, बल्कि बिहार की सांस्कृतिक धरोहर की संरक्षिकर भी थीं। उन्होंने हमेशा बिहार के लोकसंगीत को संरक्षित और प्रोत्साहित किया। वे चाहती थीं कि बिहार की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को नई पीढ़ी के बीच पहुंचाया जाए। उनके कई प्रयासों ने लोकसंगीत को युवाओं के बीच भी लोकप्रिय बनाया। वे लोकसंगीत के माध्यम से न सिर्फ संगीत बल्कि बिहार की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को जीवित रखने के प्रयास में लगी रहती थीं। शारदा सिन्हा ने न केवल संगीत के माध्यम से समाज को समृद्ध किया, बल्कि वे समाज सेवा में भी सक्रिय रूप से भाग लेती थीं। वे महिलाओं के अधिकारों और शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए भी काम करती थीं। उनकी समाज सेवा और संगीत के प्रति योगदान उन्हें एक असाधारण व्यक्तित्व बनाता है।

लोकप्रिय गीत

अमवा महुअवा के झूमे डलिया

पनिया के जहाज पर पलटनिया बनी अइह

कोयल बिन बगिया न सोभे राजा

महल पर कागा बोल हई रे (मगही)

के पतिया लय जायत रे मोरा प्रियतम पास(मैथिली)

रामजी से पूछ जनकपुर के नारी (ढहकन)

जगदंबा घर में दियरा बार अइनी हो

बताव चंदा केकरा से कहां मिले जाला

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छठ गीत

रुनकी झुनकी बेटी मांगीला

केलवा के पात पर उग ले सुरुजदेव

पहिले पहिल हम कईनी, छठी मईया व्रत तोहार

उगअ हो सुरुज देव भइल अरघ के बेर

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