Jitiya Vrat Katha: पढ़ें जीवितपुत्रिका व्रत की तीन कथाएं, जीमूतवाहन राजा, सियारिन और भगवान कृष्ण से जुड़ी व्रत की कहानी
Jivitputrika Vrat ki kahani:उसने कभी उनका सर कटवाकर डब्बे में बंद करा दिया पर वह शीश मिठाई बन जाती और बच्चों का बाल तक बांका न होता. बार बार उसने अपनी बहन के बच्चों और उसके पति को मारने का प्रयास भी क
जीवित पुत्रिका व्रत इस साल 6 अक्टूबर को रखा जाएगा। इस दिन भगवान श्रीगणेश, माता पार्वती और शिवजी की पूजा एवं ध्यान के बाद ऊपर बताई गई व्रत कथा भी सुननी चाहिए।इसकी पूजा शिवजी को प्रिय प्रदोषकाल में करनी चाहिए।व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है। यहां हम आपको दे रहे हैं जितिया व्रत की तीन कहानियां, अपनी परंपरा के अनुसार जो कथा आपके यहां पढ़ी जाती हो आप उसे पढ़ सकते हैं। इसमें पहली कहानी सियारिन वाली है, दूसरी जीमूतवाहन राजा की और तीसरी भगवान श्री कृष्ण से जुड़ी
चिल्हो सियारो की कथा।।
जीवित पुत्रिका व्रत में चिल्हो सियारो की एक कथा भी सुनी जाती है।वह संक्षेप में इस प्रकार से है-एक वन में सेमर के पेड़ पर एक चील रहती थी। पास की झाडी में एक सियारिन भी रहती थी, दोनों में खूब पटती थी।
चिल्हो जो कुछ भी खाने को लेकर आती उसमें से सियारिन के लिए जरूर हिस्सा रखती। सियारिन भी चिल्हो का ऐसा ही ध्यान रखती।इस तरह दोनों के जीवन आनंद से कट रहे थे। एक् बार वन के पास गांव में औरतें जिउतीया के पूजा की तैयारी कर रही थी। चिल्हो ने उसे बडे ध्यान से देखा और अपनी सखी सियारो को भी बताओ।
फिर चिल्हो-सियारो ने तय किया कि वे भी यह व्रत करेंगी।सियारो और चिल्हो ने जिउतिया का व्रत रखा, बडी निष्ठा और लगन से दोनों दिनभर भूखे-प्यासे मंगल कामना करत व्रत में रही मगर रात होते ही सियारिन को भूख प्यास सताने लगी।जब बर्दाश्त न हुआ तो जंगल में जाके उसने मांस और हड्डी पेट भरकर खाया।चिल्हो ने हड्डी चबाने के कड़-कड़ की आवाज सुनी तो पूछा कि यह कैसी आवाज है।सियारिन ने कह दिया- बहन भूख के मारे पेट गुड़गुड़ा रहा है यह उसी की आवाज है, मगर चिल्हो को पता चल गया।उसने सियारिन को खूब लताडा कि जब व्रत नहीं हो सकता तो संकल्प क्यों लिया था! सियारीन लजा गई पर व्रत भंग हो चुका था. चिल्हो रात भर भूखे प्यासे रहकर ब्रत पूरा की।
अगले जन्म में दोनों मनुष्य रूप में राजकुमारी बनकर सगी बहनें हुईं. सियारिन बड़ी बहन हुई और उसकी शादी एक राजकुमार से हुई. चिल्हो छोटी बहन हुई उसकी शादी उसी राज्य के मंत्रीपुत्र से हुई.
बाद में दोनों राजा और मंत्री बने।सियारिन राानी के जो भी बच्चे होते वे मर जाते जबकि चिल्हो के बच्चे स्वस्थ और हट्टे-कट्टे रहते। इससे उसे जलन होती।
उसने कभी उनका सर कटवाकर डब्बे में बंद करा दिया पर वह शीश मिठाई बन जाती और बच्चों का बाल तक बांका न होता. बार बार उसने अपनी बहन के बच्चों और उसके पति को मारने का प्रयास भी किया पर सफल न हुई। आखिरकार दैव योग से उसे भूल का आभास हुआ।
उसने क्षमा मांगी और बहन के बताने पर जीवित पुत्रिका व्रत विधि विधान से किया तो उसके पुत्र भी जीवित रहे।
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।।जीवितपुत्रिका व्रत कथा।।
गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वे बडे उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। वह राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए, वन में ही जीमूतवाहन को मलयवती नामक राजकन्या से भेंट हुई और दोनों में प्रेम हो गया। एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी।
पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया- मैं नागवंश की स्त्री हूं, मुझे एक ही पुत्र है, पक्षीराज गरुड़ के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए नागों ने यह व्यवस्था की है वे गरूड को प्रतिदिन भक्षण हेतु एक युवा नाग सौंपते हैं। आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है। आज मेरे पुत्र के जीवन पर संकट है और थोड़ी देर बाद ही मैं पुत्रविहीन हो जाउंगी। एक स्त्री के लिए इससे बड़ा दुख क्या होगा कि उसके जीते जी उसका पुत्र न रहे।
जीमूतवाहन को यह सुनकर बड़ा दुख हुआ। उन्होंने उस वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा- डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके स्थान पर स्वयं मैं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा ताकि गरुड़ मुझे खा जाए पर तुम्हारा पुत्र बच जाए। इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। नियत समय पर गरुड़ बड़े वेग से आए और वे लाल कपड़े में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए।
गरूड़ ने अपनी कठोर चोंक का प्रहार किया और जीमूतवाहन के शरीर से मांस का बड़ा हिस्सा नोच लिया। इसकी पीड़ा से जीमूतवाहन की आंखों से आंसू बह निकले और वह दर्द से कराहने लगे। अपने पंजे में जकड़े प्राणी की आंखों में से आंसू और मुंह से कराह सुनकर गरुड़ बडे आश्चर्य में पड़ गए क्योंकि ऐसा पहले कभी न हुआ था। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया कि कैसे एक स्त्री के पुत्र की रक्षा के लिए वह अपने प्राण देने आए हैं। आप मुझे खाकर भूख शांत करें।
गरुड़ उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राणरक्षा के लिए स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें स्वयं पर पछतावा होने लगा, वह सोचने लगे कि एक यह मनुष्य है जो दूसरे के पुत्र की रक्षा के लिए स्वयं की बलि दे रहा है और एक मैं हूं जो देवों के संरक्षण में हूं किंतू दूसरों की संतान की बलि ले रहा हूं। उन्होंने जीमूतवाहन को मुक्त कर दिया। गरूड़ ने कहा- हे उत्तम मनुष्य में तुम्हारी भावना और त्याग से बहुत प्रसन्न हूं। मैंने तुम्हारे शरीर पर जो घाव किए हैं उसे ठीक कर देता हूं। तुम अपनी प्रसन्नता के लिए मुझसे कोई वरदान मांग लो।
राजा जीमूतवाहन ने कहा कि हे पक्षीराज आप तो सर्वसमर्थ हैं. यदि आप प्रसन्न हैं और वरदान देना चाहते हैं तो आप सर्पों को अपना आहार बनाना छोड़ दें।आपने अब तक जितने भी प्राण लिए हैं उन्हें जीवन प्रदान करें। गरुड़ ने सबको जीवनदान दे दिया और नागों की बलि न लेने का वरदान भी दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई। गरूड़ ने कहा- तुम्हारी जैसी इच्छा वैसा ही होगा। हे राजा! जो स्त्री तुम्हारे इस बलिदान की कथा सुनेगी और विधिपूर्वक व्रत का पालन करेगी उसकी संतान मृत्यु के मुख से भी निकल आएगी।
तब से ही पुत्र की रक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई। यह कथा कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई थी। जीवित पुत्रिका के दिन भगवान श्रीगणेश, माता पार्वती और शिवजी की पूजा एवं ध्यान के बाद ऊपर बताई गई व्रत कथा भी सुननी चाहिए।
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भगवान श्री कृष्ण Katha
यह कथा महाभारत काल से जुड़ी हुई हैं. महा भारत युद्ध के बाद अपने पिता की मृत्यु के बाद अश्व्थामा बहुत ही नाराज था और उसके अन्दर बदले की आग तीव्र थी, जिस कारण उसने पांडवो के शिविर में घुस कर सोते हुए पांच लोगो को पांडव समझकर मार डाला था, लेकिन वे सभी द्रोपदी की पांच संताने थीय़ उसके इस अपराध के कारण उसे अर्जुन ने बंदी बना लिया और उसकी दिव्य मणि छीन ली, जिसके फलस्वरूप अश्व्थामा ने उत्तरा की अजन्मी संतान को गर्भ में मारने के लिए ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया, जिसे निष्फल करना नामुमकिन था।उत्तरा की संतान का जन्म लेना आवश्यक थी, जिस कारण भगवान श्री कृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में ही पुनः जीवित किया।गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उसका नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा और आगे जाकर यही राजा परीक्षित बना।तब ही से इस व्रत को किया जाता हैं।
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