Jitiya Vrat 2023 vrat Katha:शिवजी ने बताया, जीवितपुत्रिका व्रत का महत्व, व्रत विधि और व्रत कथा यहां पढ़ें
जो माता आश्विन मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी को जीमूतवाहन की पूजा विधि-विधान से करेगी उसकी संतान के संकटों का नाश होगा। पार्वतीजी के अनुरोध पर शिवजी ने उन मृत बालकों को पुनः जीवित कर दिया, इस कारण ही इसे
Jitiya Vrat 2023 -जीवित्पुत्रिका व्रत यानी जीवित संतान के लिए रखा जाने वाला व्रत है। यह व्रत वह सभी सौभाग्यवती स्त्रियां रखती हैं जिनको संतान होती है। साथ ही जिनके संतान नहीं वे स्त्रियां भी पुत्र की कामना और पुत्री की लंबी आयु के लिए यह व्रत रखती हैं। आश्विन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को प्रदोष काल यानी जब सूर्य छुप रहा हो और शाम गहराने लगे, माताएं अपनी संतान की दीर्घायु, स्वास्थ्य और संपन्नता की मनोकामना से यह व्रत करती हैं। इस साल यह व्रत 6अक्टूबर 2023 को हो रहा है। 24 घंटे के निर्जल व्रत को खर जीउतिया कहा जाता है।
जिउतिया व्रत विधि
इस दिन चक्की में पिसे हुए गेहूं के आटे में गुड़ मिलाकर शुद्ध घी में पकवान बनाया जाता है पुत्र के नाम का एक बंधन माताएं अपने गले में धारण कर लेती हैं। मान्यता है कि चक्की में वह संतान पीस देती हैं, जो कुछ बच जाता है उसे स्वयं धारण कर लेती हैं।इसकी पूजा शिवजी को प्रिय प्रदोषकाल में करनी चाहिए। व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है।
जीवित्पुत्रिका व्रत महत्व
पार्वतीजी ने एक स्थान पर स्त्रियों को विलाप करते देखा तो शिवजी से उसका कारण पूछा। शिवजी ने बताया कि इन स्त्रियों के पुत्रों का निधन हो गया है इसलिए ये विलाप कर रही हैं। पार्वतीजी बहुत दुखी हो गईं।उन्होंने कहा- हे नाथ एक माता के लिए इससे अधिक हृदय विदारक बात क्या हो सकती है कि उसके सामने उसका पुत्र मर जाए. इससे मुक्ति का कोई तो मार्ग हो, कृपया बताएं। शिवजी ने कहा- हे देवी जो विधाता द्वारा रचित है उसमें हेर-फेर नहीं हो सकता किंतु जीमूतवाहन की पूजा से माताएं अपनी संतान पर आए प्राणघाती संकटों को भी टाल सकती हैं। जो माता आश्विन मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी को जीमूतवाहन की पूजा विधि-विधान से करेगी उसकी संतान के संकटों का नाश होगा। पार्वतीजी के अनुरोध पर शिवजी ने उन मृत बालकों को पुनः जीवित कर दिया, इस कारण ही इसे जीवितपुत्रिका व्रत कहा जाता है।
।।जीवितपुत्रिका व्रत कथा।।
गन्धर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था। वे बडे उदार और परोपकारी थे। जीमूतवाहन के पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको राजसिंहासन पर बैठाया किन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। वह राज्य का भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए, वन में ही जीमूतवाहन को मलयवती नामक राजकन्या से भेंट हुई और दोनों में प्रेम हो गया। एक दिन जब वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करते हुए दिखी।
पूछने पर वृद्धा ने रोते हुए बताया- मैं नागवंश की स्त्री हूं, मुझे एक ही पुत्र है, पक्षीराज गरुड़ के कोप से मुक्ति दिलाने के लिए नागों ने यह व्यवस्था की है वे गरूड को प्रतिदिन भक्षण हेतु एक युवा नाग सौंपते हैं। आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है। आज मेरे पुत्र के जीवन पर संकट है और थोड़ी देर बाद ही मैं पुत्रविहीन हो जाउंगी। एक स्त्री के लिए इससे बड़ा दुख क्या होगा कि उसके जीते जी उसका पुत्र न रहे।
जीमूतवाहन को यह सुनकर बड़ा दुख हुआ। उन्होंने उस वृद्धा को आश्वस्त करते हुए कहा- डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज उसके स्थान पर स्वयं मैं अपने आपको उसके लाल कपड़े में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा ताकि गरुड़ मुझे खा जाए पर तुम्हारा पुत्र बच जाए। इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपड़ा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड़ को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए। नियत समय पर गरुड़ बड़े वेग से आए और वे लाल कपड़े में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड़ के शिखर पर जाकर बैठ गए।
गरूड़ ने अपनी कठोर चोंक का प्रहार किया और जीमूतवाहन के शरीर से मांस का बड़ा हिस्सा नोच लिया। इसकी पीड़ा से जीमूतवाहन की आंखों से आंसू बह निकले और वह दर्द से कराहने लगे। अपने पंजे में जकड़े प्राणी की आंखों में से आंसू और मुंह से कराह सुनकर गरुड़ बडे आश्चर्य में पड़ गए क्योंकि ऐसा पहले कभी न हुआ था। उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा किस्सा कह सुनाया कि कैसे एक स्त्री के पुत्र की रक्षा के लिए वह अपने प्राण देने आए हैं। आप मुझे खाकर भूख शांत करें।
गरुड़ उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राणरक्षा के लिए स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। उन्हें स्वयं पर पछतावा होने लगा, वह सोचने लगे कि एक यह मनुष्य है जो दूसरे के पुत्र की रक्षा के लिए स्वयं की बलि दे रहा है और एक मैं हूं जो देवों के संरक्षण में हूं किंतू दूसरों की संतान की बलि ले रहा हूं। उन्होंने जीमूतवाहन को मुक्त कर दिया। गरूड़ ने कहा- हे उत्तम मनुष्य में तुम्हारी भावना और त्याग से बहुत प्रसन्न हूं। मैंने तुम्हारे शरीर पर जो घाव किए हैं उसे ठीक कर देता हूं। तुम अपनी प्रसन्नता के लिए मुझसे कोई वरदान मांग लो।
राजा जीमूतवाहन ने कहा कि हे पक्षीराज आप तो सर्वसमर्थ हैं. यदि आप प्रसन्न हैं और वरदान देना चाहते हैं तो आप सर्पों को अपना आहार बनाना छोड़ दें।आपने अब तक जितने भी प्राण लिए हैं उन्हें जीवन प्रदान करें। गरुड़ ने सबको जीवनदान दे दिया और नागों की बलि न लेने का वरदान भी दिया। इस प्रकार जीमूतवाहन के साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई। गरूड़ ने कहा- तुम्हारी जैसी इच्छा वैसा ही होगा। हे राजा! जो स्त्री तुम्हारे इस बलिदान की कथा सुनेगी और विधिपूर्वक व्रत का पालन करेगी उसकी संतान मृत्यु के मुख से भी निकल आएगी।
तब से ही पुत्र की रक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई। यह कथा कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई थी। जीवित पुत्रिका के दिन भगवान श्रीगणेश, माता पार्वती और शिवजी की पूजा एवं ध्यान के बाद ऊपर बताई गई व्रत कथा भी सुननी चाहिए।
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