Hindi Newsधर्म न्यूज़Rangotsav starts in Kashi from Rangbhari Ekadashi

रंगभरी एकादशी से शुरू होता है काशी में रंगोत्सव

  • रंगभरी एकादशी को आमलकी एकादशी भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसी दिन भगवान विष्णु ने आंवले को आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया था।

Saumya Tiwari लाइव हिन्दुस्तान, अश्वनी कुमारTue, 4 March 2025 12:29 PM
share Share
Follow Us on
रंगभरी एकादशी से शुरू होता है काशी में रंगोत्सव

फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को रंगभरी एकादशी कहते हैं। सभी एकादशियों में एकमात्र यही ऐसी एकादशी है, जिसमें भगवान विष्णु के साथ भगवान शिव-पार्वती की भी पूजा की जाती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार रंगभरी एकादशी के दिन भगवान शिव माता पार्वती से विवाह करने के बाद उनका गौना कराकर पहली बार काशी आए थे। उनके आगमन पर काशीवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया और शिव-पार्वती पर रंग-गुलाल उड़ाकर प्रसन्नता व्यक्त की। रंगभरी एकादशी के दिन काशी में बाबा विश्वनाथ का विशेष शृंगार करके उन्हें दूल्हे के रूप में सजा कर गाजे-बाजे के साथ नाचते हुए माता पार्वती के साथ उनका गौना कराया जाता है। इसके साथ मां पार्वती पहली बार ससुराल के लिए प्रस्थान करती हैं। इस दिन से ही काशी में रंग खेलने की शुरुआत होती है, जो होली तक चलती है।

रंगभरी एकादशी को आमलकी एकादशी भी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसी दिन भगवान विष्णु ने आंवले को आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया था। धार्मिक मान्यता है कि आंवले के वृक्ष में ब्रह्मा, विष्णु, महेश का वास होता है। रविवार, सप्तमी, सूर्य ग्रहण, चंद्र ग्रहण, संक्रांति, शुक्रवार, षष्ठी, प्रतिपदा, नवमी तिथि और अमावस्या को आंवले का सेवन नहीं किया जाता। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के समय मुख, नाक, कान या सिर के बालों में आंवला रखने से मृतआत्मा को विष्णु लोक की प्राप्ति होती है।

ये भी पढ़ें:साधु प्रकृति के लोगों का साधन है भक्ति

द्वापर युग में फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन ही कृष्ण के मांगने पर वीर बर्बरीक ने अपने शीश का दान किया था। इसका एक प्रसंग है। घटना महाभारत युद्ध से पूर्व की है, जब कृष्ण की मुलाकात बर्बरीक से होती है। वे उनसे पूछते हैं कि वे महाभारत के युद्ध में किसकी ओर से लड़ेंगे। इस पर बर्बरीक ने कहा कि वे कमजोर और हारे हुए पक्ष की ओर से युद्ध करेंगे, इसीलिए कहा जाता है—‘हारे का सहारा, खाटू श्याम हमारा।’ कृष्ण इस युद्ध का परिणाम पहले से जानते थे और यह भी जानते थे कि बर्बरीक के कौरवों की ओर से युद्ध करने पर उन्हें पराजित करना पांडवों के लिए असंभव है। यह विचार कर कृष्ण ने बर्बरीक से उनका शीश दान में मांगा। बर्बरीक ने कृष्ण को अपना शीश दान में दे दिया। इससे प्रसन्न होकर कृष्ण ने उन्हें अपना ‘श्याम’ नाम दे दिया। घटोत्कच के पुत्र और भीम-मौरवी के पौत्र बर्बरीक को खाटू श्याम, श्याम सरकार, शीश के दानी, तीन बाण धारी जैसे नामों से भी जाना जाता है।

अगला लेखऐप पर पढ़ें