साधु प्रकृति के लोगों का साधन है भक्ति
- शरीर, बुद्धि और हृदय ईश्वर तक पहुंचने के माध्यम हैं। इनमें भी हृदय की गति सबसे तीव्र है। जैसे ही आपके मन में भाव आया, आप सीधे ईश्वर से जुड़ जाते हैं। हृदय का संबंध भक्ति से है और भक्ति साधु प्रकृति के लोगों के हृदय में निवास करती है।

‘भक्ति के प्रतिपादन के लिए ब्रह्म विषय के उत्तरकांड से ज्ञानकांड की सामान्यता दिखाई गई है।’ शांडिल्य कहते हैं— वेदों में पहले क्रियाकांड है, कर्मवाद है; फिर दूसरे चरण में ब्रह्मज्ञान की बात है, ज्ञानवाद है; और फिर अंतिम चरण में ईश्वर की चर्चा है, भक्ति और भाव की बात है।
नुष्य का अस्तित्व तीन तलों में विभाजित है— शरीर, बुद्धि, हृदय। या दूसरी तरह से कहें तो कर्म, विचार और भाव। इन तीनों तलों से स्वयं की यात्रा हो सकती है। स्थूलतम यात्रा होगी कर्मवाद की। इसलिए धर्म के जगत में कर्मकांड स्थूलतम प्रक्रिया है। दूसरा द्वार होगा ज्ञान का, विचार का, चिंतन-मनन। दूसरा द्वार पहले से ज्यादा सूक्ष्म है। दूसरे द्वार का नाम है— ज्ञान योग। तीसरा द्वार सूक्ष्मातिसूक्ष्म है— भाव का, प्रीति का, प्रार्थना का। उस तीसरे द्वार का नाम भक्ति योग है।
कर्म से भी लोग पहुंचते हैं। लेकिन बड़ी लंबी यात्रा है। ज्ञान से भी लोग पहुंचते हैं। पर यात्रा संक्षिप्त नहीं है। बहुत सीढ़ियां पार करनी पड़ती हैं। पहले से कम, लेकिन तीसरे की दृष्टि में बहुत ज्यादा। भक्ति छलांग है। सीढ़ियां भी नहीं हैं, दूरी भी नहीं है। भक्ति एक क्षण में घट सकती है! भक्ति तत्क्षण घट सकती है। भक्ति केवल भाव की बात है। इधर भाव, उधर रूपांतरण। कर्म में तो कुछ करना होगा, विचार में कुछ सोचना होगा, भक्ति में न सोचना है, न करना है, होना है। इसलिए भक्ति को सर्वश्रेष्ठ कहा है। आज के सूत्रों में इसी की चर्चा है। शांडिल्य कहते हैं- ब्रह्माकांडं तु भक्तौ तस्य अनुज्ञानाया सामान्यात्।
‘भक्ति के प्रतिपादन के लिए ब्रह्म विषय के उत्तरकांड से ज्ञानकांड की सामान्यता दिखाई गई है।’ शांडिल्य कहते हैं— वेदों में पहले क्रियाकांड है, कर्मवाद है; फिर दूसरे चरण में ब्रह्मज्ञान की बात है, ज्ञानवाद है; और फिर अंतिम चरण में ईश्वर की चर्चा है, भक्ति और भाव की बात है। जैसे वृक्ष है, तो कर्म; फिर फूल लगे, तो ज्ञान; और फिर सुवास उड़ी तो भक्ति। सुवास अंत में है।
जो व्यक्ति वृक्ष को ही पूजता रह गया, वह अटक गया। जिसने फूल को ही सब कुछ मान लिया, उसे अभी परम की प्राप्ति नहीं हुई। जो सुवास के साथ एक हो गया, वही स्वतंत्र है। वृक्ष की तो देह है, जड़ देह है। फूल की देह है— उतनी जड़ नहीं, ज्यादा सूक्ष्म तरंगों से निर्मित है, ज्यादा रंगीन है, ज्यादा माधुर्य से भरी है, फिर भी देह तो देह है। वृक्ष की छाल जैसी खुरदुरी नहीं, रेशम जैसी चिकनी है, पर देह तो देह है, रूप तो रूप है, आकार आकार है। आकार से बंधन तो पड़ता ही है। फिर चाहे पत्थर की लकीर खींचो, चाहे फूलों की एक लकीर बनाओ, रेखा बनती है तो विभाजन हो जाता है। फूल भी अभी दूर है। सुवास एक हो गई। सुवास ने देह छोड़ दी। सुवास से मेरा प्रयोजन है— स्थूलता समग्र रूप से विनष्ट हो गई। इसलिए सुवास को तुम देख नहीं सकते, अनुभव कर सकते हो। पकड़ नहीं सकते, मुट्ठी नहीं बांध सकते, अनुभव कर सकते हो। सुवास आकाश के साथ एक हो गई। ऐसी भक्ति है। भक्ति आत्यंतिक क्रांति है।
शांडिल्य कहते हैं— इसलिए वेदों में भक्ति की चर्चा अंत में आई है। अंत में ही आ सकती है। लेकिन इधर कोई दो-तीन सौ वर्षों से इस देश में कुछ लोगों ने बड़ी मूढ़तापूर्ण बात फैला रखी है। उन्होंने यह फैला रखा है कि कलियुग में तो भक्ति ही काम की है। जैसे कि भक्ति निकृष्टतम है। उन्होंने यह बात चला रखी है कि कलियुग में और सब मार्ग तो संभव नहीं हैं, वे तो सतयुग में संभव थे, जब लोग महान थे, जब लोग शुद्ध और सात्विक थे, जब लोगों के जीवन में प्रामाणिकता थी, सच्चाई थी; जब पृथ्वी पर मनुष्य मनुष्य जैसा नहीं, देवता जैसा चलता था, तब संभव था ज्ञान।
अब तो कलियुग है, काले दिन आ गए, अमावस की रात है, पापियों का फैलाव है, सब तरफ पाप है, पुण्य की कहीं कोई खबर नहीं, इस अंधेरे युग में; इस काली रात्रि में तो जो निकृष्टतम है, वही संभव हो सकता है, वह है भक्ति। यह तो बात उल्टी हो गई। जितना सात्विक व्यक्ति हो, उतनी भक्ति संभव होती है। जितना असात्विक व्यक्ति हो, उतना कर्मकांड संभव होता है। इसलिए यह कहना कि इस निकृष्ट युग में भक्ति ही एकमात्र उपाय है— इस कारण कहना क्योंकि आदमी पतित हो गया है और पतित आदमी और कुछ कर नहीं सकता— बुनियादी रूप से गलत बात है, सौ प्रतिशत गलत बात है। भक्ति तो सुगंध है। भक्ति तो परा है। इसलिए भक्ति निकृष्ट लोगों का नहीं, साधु प्रकृति के लोगों का साधन है।
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