मृत्यु के बाद जब कर्ण को स्वर्ग में खाने को मिला सोना और गहने, महाभारत काल के कर्ण की यह कथा श्राद्ध से है जुड़ी
- Pitru Paksha 2024 history significance पितृपक्ष से जुड़ी एक कहानी है कर्ण की। जिन्हें मृत्यु के बाद जब स्वर्ग लोक जाना पड़ा तो खाने में सोना मिला, जानें पितृपक्ष से जुड़ी इस कहानी के बारे में
भाद्रपद मास की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक मनाए जानेवाले सोलह दिन के ‘पितृपक्ष’ में किए जानेवाले श्राद्ध हमारी सनातन परंपरा का हिस्सा हैं। श्राद्ध का विस्तार से उल्लेख द्वापर युग में महाभारत काल में मिलता है। महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह की युधिष्ठिर के साथ श्राद्ध के संबंध में विस्तार से चर्चा है। महाभारत काल में सबसे पहले श्राद्ध का उपदेश अत्रि मुनि ने महर्षि निमि को दिया था। इसे सुनने के पश्चात ऋषि निमि ने अपने पुत्र का श्राद्ध किया। इसके अलावा महाभारत के युद्ध के बाद श्रीकृष्ण के कहने पर पांडव अपने मृतक परिजनों का श्राद्ध सोमवती अमावस्या के दिन करना चाहते थे, जिससे उन्हें मुक्ति मिल सके। लेकिन उनके जीवनकाल में सोमवती अमावस्या कभी नहीं आई। इससे क्रोधित होकर युधिष्ठिर ने सोमवती अमावस्या को श्राप दिया कि आगे से वर्ष में एक बार सोमवती अमावस्या अवश्य आएगी। यही नहीं, इससे पूर्व त्रेता युग में सीता द्वारा दशरथ के पिंडदान की कथा भी सर्वविदित है।
लेकिन पितृपक्ष की शुरुआत महारथी कर्ण के जीवन से जुड़ी है। ऐसी मान्यता है कि कर्ण की मृत्यु के बाद जब उनकी आत्मा स्वर्ग लोक पहुंची, तो उन्हें खाने के लिए सोना और गहने दिए गए। कर्ण को समझ नहीं आया कि उन्हें भोजन की जगह सोना क्यों दिया जा रहा है। उन्होंने देवराज इंद्र से पूछा कि उनके साथ ऐसा व्यवहार क्यों हो रहा है। तब इंद्रदेव ने उन्हें बताया कि उन्होंने अपने पूरे जीवन में स्वर्ण का ही दान किया, कभी अन्न- जल का दान नहीं किया है। यही नहीं उन्होंने कभी अपने पूर्वजों का तर्पण और पिंडदान भी नहीं किया है। यह सुनकर कर्ण ने कहा कि उसे अपने पूर्वजों के संबंध में कुछ ज्ञात नहीं था, इसलिए उसने कभी तर्पण और पिंडदान नहीं किया। यह सुनकर इंद्र ने कर्ण को उसकी गलती सुधारने का अवसर देते हुए सोलह दिनों के लिए वापिस पृथ्वी लोक पर भेजा। पथ्वी पर आकर कर्ण ने अपने पूर्वजों का श्रद्धापूर्वक श्राद्ध किया और अन्न-जल तथा वस्त्र का दान किया। यह करने के पश्चात ही कर्ण को मुक्ति और तृप्ति मिली। ऐसी मान्यता है कि इन्हीं सोलह दिनों को पृथ्वी पर पितृपक्ष के रूप में मनाने की शुरुआत हुई, जिससे पितरों को मुक्ति और तृप्ति दोनों प्राप्त हो सके। श्राद्ध करने से पितरों को मुक्ति मिलती है, जबकि पिंडदान और तर्पण से तृप्ति मिलती है। ऐसी मान्यता है कि पितृलोक में समस्त वैभव के बाद भी जल का अभाव होता है, जिससे पितृ प्यासे रह जाते हैं, इसलिए काले तिल युक्त जल से तर्पण करने से पितरों को विशेष तृप्ति मिलती है।
अश्वनी कुमार
इस आलेख में दी गई जानकारियों पर हम यह दावा नहीं करते कि ये पूर्णतया सत्य एवं सटीक हैं। इन्हें अपनाने से पहले संबंधित क्षेत्र के विशेषज्ञ की सलाह जरूर लें।
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