ईश्वर अनायास ही करते हैं हमारा कल्याण
- विश्वास में बहुत शक्ति होती है। जब हम किसी पर विश्वास करते हैं, तो अपना सब कुछ उस पर छोड़ देते हैं। क्योंकि हम जानते हैं कि वह हमारा भला करेगा। ठीक उसी प्रकार, जब हम ईश्वर पर विश्वास करते हैं तो ईश्वर सहज और अनायास ही हमारा सभी प्रकार से कल्याण करते हैं

मनुष्य जब कुछ चाहता है, तो उसे अभाव का अनुभव होता है; परंतु उस अभाव की पूर्ति किस वस्तु से होगी, वह इसे नहीं जानता। बस, उसे विश्वास होता है कि जिस वस्तु से मेरे अभाव की पूर्ति होगी, उसको भगवान जानते हैं और इसलिए वह उस अज्ञात वस्तु के लिए भगवान पर निर्भर करता है। जैसे छोटा शिशु बिस्तर पर पड़ा रोता है, उसे कोई कष्ट है— जाड़ा लग रहा है, मच्छर काट रहे हैं या और कोई पीड़ा है। वह यह नहीं जानता कि किस वस्तु की प्राप्ति होने पर मेरा संकट दूर होगा— वह केवल मां को जानता है और रोकर मां को बुलाता है। मां आकर स्वयं पता लगाती है कि बच्चा क्यों रो रहा है और पता लगाकर स्वयं उसके कष्ट निवारण का उपाय करती है।
इसी प्रकार इस अवस्था में भक्त अपने लिए उपयोगी अज्ञात फल के लिए भगवान पर निर्भर करता है और उन्हीं की कृपा से कल्याणकारी फल को प्राप्त करके संतुष्ट होता है। इसमें फलरूप वस्तु का निर्णय भगवान करते हैं, इस दृष्टि से निर्भरता का यह स्तर ऊंचा होने पर भी सकाम भाव होने के कारण यह भी वस्तुत आंशिक ही है।
इसके बाद उन भक्तों की बात है, जो केवल भगवान को ही प्राप्त करना चाहते हैं और उसके लिए भगवान पर ही निर्भर करते हैं। इनके लिए भी बिल्ली के बच्चे और छोटे शिशु के उदाहरण दे सकते हैं। ये केवल चिंतन परायण रहते हैं, उसका फल भगवान की प्राप्ति कब होगी, क्यों कर होगी— इस बात को भगवान पर ही छोड़ देते हैं, और वास्तव में यों सब कुछ भगवान पर छोड़ने वाले बड़े लाभ में ही रहते हैं। क्योंकि प्रथम तो कोई शर्त न होने से इनके भजन में निष्काम और अनन्य भाव रहता है; दूसरे, जिनको पाना है, वे ही भगवान जब स्वयं मिलना चाहें, तब उनके मिलने में विलंब भी नहीं होता।
भक्त को कहीं चलकर नहीं जाना पड़ता, बिल्ली की भांति या छोटे शिशु की स्नेहमयी जननी की भांति स्वयं भगवान ही उसके समीप आ जाते हैं। ऐसे ही भक्तों के लिए भगवान की यह प्रतिज्ञा है— ‘केवल मुझ पर ही निर्भर करनेवाले, जो भक्त नित्य मेरा चिंतन करते हुए मुझे भली-भांति भजते हैं, उन नित्य मुझमें लगे हुए भक्तों का ‘योगक्षेम’ मैं स्वयं वहन करता हूं।’ (गीता 9 । 22)
अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति का नाम ‘योग’ है और प्राप्त वस्तु के संरक्षण का नाम ‘क्षेम’ है। इस ‘योग’ और ‘क्षेम’ के वहन का सारा भार स्वयं भगवान अपने ऊपर ले लेते हैं। संसार में हम देखते हैं कि अल्पज्ञ और अल्पशक्ति वाले होने पर भी जिन पर हमारा विश्वास होता है, वे वैद्य-डॉक्टर जब हमारे इलाज का भार ले लेते हैं, तब हम निश्चिंत होकर उन पर निर्भर करने लगते हैं। अपना जीवन उन्हें सौंप देते हैं, विश्वासपूर्वक उनकी दी हुई दवा लेते हैं— चाहे वह जहर ही क्यों न हो और उनके आज्ञानुसार पथ्य भी करते हैं। हमारी असमर्थता में कोई श्रेष्ठ पुरुष जिनकी शक्ति और हितैषिता पर हमारा विश्वास होता है, हमारे जीवन-निर्वाह का भार ले लेते हैं, तब हम निश्चिंत होकर उन पर अपने को छोड़ देते हैं। केवट के विश्वास पर नौका में बैठ जाते हैं, चलाने वाले पर निर्भर करके मोटर और हवाई जहाज में बैठ जाते हैं और मन में कोई चिंता नहीं करते। तब स्वयं अपने मुंह से हमारे सुहृद होने की घोषणा करने वाले सर्वसमर्थ सर्वशक्तिमान सर्वज्ञ सर्वलोक महेश्वर भगवान पर निर्भर करने में तो हमारा कल्याण-ही-कल्याण है। वे हमारे परम सुहृदय हैं, इसलिए कभी अकल्याण नहीं कर सकते; वे सर्वज्ञ हैं, इसलिए हमारा कल्याण किस बात में है, इसको अच्छी तरह जानते हैं, वे कभी भूल नहीं कर सकते। वे सर्वशक्तिमान हैं, इसलिए हमारा कल्याण अनायास ही कर सकते हैं।
वे यहां तक जिम्मा लेने को तैयार हैं कि तुम्हारे लिए जो आवश्यक अप्राप्त वस्तु है, उसकी प्राप्ति भी मैं करा दूंगा और जो आवश्यक वस्तु प्राप्त है, उसकी रक्षा मैं करूंगा। इतने पर भी हम यदि उन पर निर्भर करके उनके चिंतन परायण नहीं होते, तो फिर हमारे समान मंदबुद्धि और मंदभाग्य और कौन होगा।
यहां इस ‘योगक्षेम’ से यह अर्थ भी लिया जाता है कि भक्त के देह-परिवारादि की रक्षा और उसके लिए आवश्यक लौकिक पदार्थों की व्यवस्था भी भगवान करते हैं। ऐसा अर्थ लेना अनुचित भी नहीं है; क्योंकि अनन्य भक्त की तो अपने भगवान को छोड़कर न किसी अन्य वस्तु में आसक्ति है, न किसी वस्तु की ओर उसका लक्ष्य है, न देह-परिवारादि की देख-रेख की उसे चिंता है, और न उसे दूसरे के अस्तित्व की कल्पना करने के लिए अवकाश ही है। ऐसी अवस्था में भक्तवत्सल भगवान उसके देह-परिवारादि के लिए आवश्यक प्राप्त सामग्रियों की रक्षा करें और अप्राप्त की प्राप्ति करवा दें तो इसमें क्या अनहोनी बात है? बल्कि भगवान पर निर्भर करने वाले भक्त का ‘योगक्षेम’ और भी अच्छा होना चाहिए।
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