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सर्वहित की साधना कर अहिंसा को बनाया धर्म

  • कर्म और धर्म से विवर्जित जीवन शैली को ‘भोग’ कहकर प्रभु ऋषभदेव ने अपने जमाने को पहले तो कर्म युग की दिशा प्रदान की, फिर धर्म युग की। तन और मन की जरूरतों की पूर्ति कर्म से, आत्मा के गुणों की संपूर्ति धर्म से करवाने वाले ऋषभदेव के माता-पिता का नाम महदेवी और नाभिराय था।

Saumya Tiwari लाइव हिन्दुस्तान, बहुश्रुत जय मुनिTue, 18 March 2025 08:00 AM
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सर्वहित की साधना कर अहिंसा को बनाया धर्म

जैनागमों के अनुसार ऋषभदेव अवसर्पिणी काल के उस संधि समय में जन्मे, जब युगल-व्यवस्था चरमरा रही थी, नई व्यवस्था का जन्म नहीं हुआ था। केवल वनों के पत्र-पुष्प-फूलों के भरोसे जीवन यापन करने वाली तत्कालीन मानव जाति न केवल शारीरिक आवश्यकताओं के कारण वन्यजीवी थी, अपितु संस्कार-विचार-आचार की अपेक्षा भी वन्य ही थी। इसलिए वह युग भोग-युग था। ऐसा भोग, जिसके लिए मानव कर्म (परिश्रम) नहीं करता था, तथा जिसकी पूर्ति होने पर ‘धर्म’ भी नहीं करता था। कर्म और धर्म से विवर्जित जीवन शैली को ‘भोग’ कहकर प्रभु ऋषभदेव ने अपने जमाने को पहले तो कर्म युग की दिशा प्रदान की, फिर धर्म युग की। तन और मन की जरूरतों की पूर्ति कर्म से, आत्मा के गुणों की संपूर्ति धर्म से करवाने वाले ऋषभदेव के माता-पिता का नाम महदेवी और नाभिराय था।

उन्हें जन्म से ही ‘अवधि’ नामक विशिष्ट ज्ञान उपलब्ध था, जिससे उन्हें अपने परिवेश की समस्याओं और समाधानों का पता चल गया। संक्रमण के दौर से गुजर रही जनता की पहली समस्या थी— असुरक्षा, अज्ञानता तथा बुभुक्षा। इनका समाधान उन्होंने असि, मसि और कृषि से दिया। मानव आत्मरक्षा, समाज तथा राष्ट्र की रक्षा कर सके। इसके लिए असि— हथियारों का संचालन सिखाया। अज्ञानता के विध्वंस के लिए उन्होंने मसि (स्याही) लिखाई-पढ़ाई-शिक्षा का प्रसार किया। बुभुक्षा— भूख के निवारण के लिए कृषि सिखाई।

नागरिक जीवन को सर्वोत्कृष्टता प्रदान कर वे गृह-परिवार, राज्य-संसार का त्याग कर एकांत वनवासी तपस्वी बन गए। उनकी तपस्या का सजीव वर्णन भागवत पुराण में उपलब्ध है। एक वर्ष तक वे निराहार रहे। फिर उनके प्रपौत्र श्रेयांस ने उन्हें इक्षुरस का दान कर पारणा करवाया। वह मंगलमय दिन अक्षय तृतीया के रूप में भारतीय पंचांगों में सुरक्षित है। जब उन्हें केवल ज्ञान हो गया, तब उन्होंने जन-जन को धर्म का पथ दिखाया। पहले भोग युग को कर्म युग में बदला, बाद में कर्म युग को धर्म युग बना दिया। धर्म का प्रथम चरण था— कर्म से जो कुछ अर्जित किया है, उसके प्रति अनासक्ति, उसका विसर्जन और लोक कल्याण में निवेशीकरण। स्व से ऊपर उठ सर्वहित को साधना— यही अहिंसा धर्म बन गया।

अहिंसा की नींव पर भगवान ने संयम धर्म का भवन खड़ा किया और संयम भवन के शिखर के रूप में उन्होंने तपोधर्म विधान किया। उनके धर्म को सम्यक रूपेण समझने के लिए एक गाथा है—धर्म उत्कृष्ट मंगल है। धर्म के तीन रूप हैं—अहिंसा, संयम और तप। देवता भी उसको नमस्कार करते हैं, जिसका मन सदा धर्म में लीन रहता है।

प्रभु ऋषभदेव ने कैवल्य प्राप्ति के तुरंत बाद चार तीर्थों की स्थापना की तथा चारों की नियमावली-मर्यादाओं का निर्धारण किया। चार तीर्थ हैं— साधु-साध्वी-श्रावक एवं श्राविका। गृह त्यागी पुरुष और स्त्रियां साधु-साध्वी कहलाए तथा गृहवासी धर्मपरायण नर-नारियां श्रावक-श्राविकाएं कहलाए।

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