Hindustan Special: इस गांव के रहने वालों ने खुद बदली अपनी तस्वीर, पढ़िये क्या किया ऐसा कि काम ही बन गया गांव की पहचान
न सरकार से सहायता और न ही अफसरों का सहयोग... फिर भी संभल के गांव मूढ़े वाली मढै़या के ग्रामीणों ने ऐसा रोजगार शुरू किया कि अब एक हजार की आबादी वाले इस गांव में हर घर को इससे रोजगार मिल गया।
न सरकार से सहायता और न ही अफसरों का सहयोग... फिर भी संभल के गांव मूढ़े वाली मढै़या के ग्रामीणों ने ऐसा रोजगार शुरू किया कि अब एक हजार की आबादी वाले इस गांव में हर घर को इससे रोजगार मिल गया। इन मूढ़ों को बनाकर गांव वाले दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान तक भेजते हैं। मूढ़ों के साथ में सरकंडा की टेबल भी काफी लोकप्रिय हैं। गांव वालों ने मूढे के काम को ऐसी पहचान दी कि अब गांव का नाम ही मूढ़े वाली मढ़ैया पड़ गया। आज सरकारी कागजों में भी इस गांव का यही नाम है।
ग्रामीण क्षेत्रों में जिनके पास रोजगार नहीं है वह मजदूरी कर अपने परिवार का पालन पोषण कर रहे हैं, लेकिन संभल तहसील क्षेत्र के गांव मांडली समसपुर का मझरा मूढ़े वाली मढ़ैया के लोग बाहर मजदूरी के लिए नहीं जाते बल्कि खुद का रोजगार कर रहे हैं।
लगभग 50 साल पहले यादराम सिंह ने मूढ़े बनाने का काम शुरू कर दिया। उनका रोजगार शुरू हुआ तो धीरे-धीरे गांव के अन्य लोग भी मूढ़े बनाने लगे। कुछ ही सालों पर एक हजार की आबादी वाले गांव में हर कोई मूढ़े बनाने लगा। अब इस गांव में सड़क किनारे हर कोई मूढ़े बनाते हुए मिल जाएगा। अपना रोजगार होने के चलते यहां के युवा दूसरे शहरों में जाकर मेहनत मजदूरी करने के बजाए अपना रोजगार कर रहे हैं। इस गांव में प्रत्येक दिन लगभग 200 से अधिक मूढ़े और टेबल तैयार हो जाती है। जैसे ही इनकी संख्या एक हजार से अधिक होती है तो इन्हें दूसरे राज्यों में जाकर बेचा जाता है।
500 से एक हजार रुपये की कीमत के मूढ़े
मूढ़े वाली मढ़ैया गांव में हर तरह से मूढ़े तैयार होते है। यहां पर 500 रुपये से लेकर एक हजार रुपये तक का मूढ़ा तैयार होता है। अब तो इन लोगों ने मूढ़े में गद्दी लगानी भी शुरू कर दी है। जिससे बैठते समय लोगों को आराम महसूस हो, लेकिन आज भी तमाम लोग बिना गद्दी लगे हुए मूढ़े को ही पसंद करते हैं।
सरकंडा मिलने में आ रही दिक्कत
आज से दस साल पहले की बात करे तो सरकंडा यहां के लोगों को आसानी से मिल जाता था, लेकिन अब सरकंडा मिलने में बहुत दिक्कत हो रही है। सरकंडे के लिए यहां के लोगों को दूर दराज जाना पड़ता है। बताया जाता है कि इस समय सरकंडा गंगा किनारे ही मिलता है। पहले बहुत कम दामों में सरकंडा मिल जाते थे, लेकिन अब काफी रुपये देने पड़ते हैं।
पूरे गांव में एक ही बिरादरी के लोग
मूढ़े वाली मढ़ैया गांव की आबादी लगभग एक हजार है। इस गांव में एक ही रोजगार है तो पूरे गांव में एक ही बिरादरी के लोग रहते हैं। पूरे गांव में जाटव बिरादरी के लोग रहते हैं।
पहले के मुकाबले बढ़ी मुश्किल
रोहित कुमार बताते हैं किअब मूढ़े बनाने में लागत अधिक आ रही है। सरकार और अधिकारियों का भी कोई सहयोग नहीं मिल रहा है, लेकिन दूसरा काम न होने के चलते पूरा गांव यही रोजगार कर रहा है। नीलू कुमार बताते हैं कि पूरे गांव के लोग मूढ़े बनाने का काम करते हैं। काफी सालों से हम यहीं काम करते आ रहे हैं। अब सरकंडा मिलने में भी दिक्कत होती है।