दिल्ली से एक घंटे दूर बसी तंबुओं की अनूठी दुनिया, कार्तिक पूर्णिमा तक चलेगा मेला
- हापुड़ में हर वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के मौके पर गंगा स्नान का विशाल मेला लगता है। इसमें बैलगाड़ी, भैंसा बुग्गी के साथ लोग पहुंचते हैं। ग्रामीण भारत की झलक यहां दिखाई देती है।
दिल्ली से एक घंटे की दूरी पर उत्तर प्रदेश के हापुड़ में गढ़ मुक्तेश्वर गंगा तट पर तंबुओं की अनूठी दुनिया का बसेरा एक बार फिर शुरू हो गया है। कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर गंगा स्नान के लिए कई किमी के दायरे में तंबुओं का शहर बसने लगा है। रेतीली मिट्टी के साथ मां गंगा के आंचल में मौज-मस्ती शुरू हो गई है। ऐसी गतिविधियों के साथ यहां एक अलग अनुभूति का अहसास होता है। दूर-दूर से लोग आकर यहां रेती पर बसते हैं। ये देखकर हैरान हो जाएंगे कि यहां गंगा महोत्सव आज भी ग्रामीण परिवेश को समेटे हुए पुराने भारत की झलक दिखा रहा है। रेत में दबकर पुरानी चिकित्सा पद्धति से इलाज चल रहा है तो गंगा में गोता लगाकर कई बीमारियों से मुक्ति की कामना की जा रही है।
कार्तिक गढ़ मुक्तेश्वर मेले का इतिहास लगभग पांच हजार वर्ष पुराना
गंगा किनारे गढ़ मुक्तेश्वर गंगा खादर क्षेत्र के रेतीले मैदान पर कार्तिक मेले का इतिहास भी लगभग पांच हजार वर्ष पुराना है। महाभारत के युद्ध के बाद धर्मराज युधिष्ठिर, अर्जुन तथा कृष्ण के मन में युद्ध की विभीषिका और नरसंहार देखकर भारी ग्लानि पैदा हुई। युद्ध में मारे गये कुटुम्बियों, बंधुओं एवं निर्दोष लोगों की आत्मा को किस प्रकार शांति मिले तथा उनका मृत्यु संस्कार कैसे पूर्ण किया जाए, इस पर चर्चा हुई।
भगवान कृष्ण की मौजूदगी में सभी विद्वानों ने सर्वसम्मत निर्णय लिया कि खाण्डवी वन में भगवान परशुराम द्वारा स्थापित शिवबल्लभपुर नामक स्थान पर मुक्तेश्वर महादेव की पूजा एवं यज्ञोपरांत पतित पावनी गंगा में स्नान करके पिण्डदान करने से सभी संस्कार पूर्ण हो जाएंगे। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को गौ पूजन करके गंगाजी में स्नान किया तथा एकादशी को गंगाजी के रेतीले मैदान में पूर्वजों के उत्थान हेतु धार्मिक संस्कार करके पिण्डदान किया। यही एकादशी देवोत्थान एकादशी (देव उठान) कहलाई।
प्राकृतिक चिकित्सा और आस्था
रेतीले स्थान पर युवा और बुजुर्ग गंगा तट पर रेत में लोट रहे हैं और सूर्य की ऊर्जा ले रहे हैं। इसके बाद गंगा में गोता लगा रहे हैं। कहा जाता है कि रेत में शरीर को डुबाने के बाद गंगा में नहाने से कई प्रकार की बीमारी समाप्त हो जाती है। कुश्ती और कबड्डी खेली जा रही है। सिर पर कपड़ा बांधे और हाथों में लाठी लिए लोग प्राचीन भारत की तस्वीर दिखा रहे हैं।
बांस का बांसुरी और लाठी की बिक्री
मेले में आज भी बच्चे कंप्यूटर और मोबाइल के स्थान पर भगवान कृष्ण की बांसुरी खरीद रहे हैं। बांसुरी पर उंगली चल रही है। सदर में लाठी का बाजार लगा हुआ है। जहां पर किसान आधुनिक हथियार नहीं बल्कि लाठी खरीद रहा है। लाठी की कीमत पहले से बढ़ गई है।
मंगल गीत गाते हुए महिलाओं के सिर पर कलश
कुछ नव दंपति तो कुछ बच्चों का कुआं पूजन की रस्म गंगा तट पर की जा रही है। बच्चों के मुंडन हो रहे हैं। पुराने मंगल गीतों पर महिलाएं सिर पर कलश रख गंगा पूजन के लिए आ रही हैं। पूरी के साथ पांच बाल रखकर गंगा में विसर्जित किए जा रहे हैं।
हर हर गंगे तथा लक्कड़ महाराज की जय
देहाती भाषा में युवाओं की टोली लक्कड़ महाराज की जय के नारे लगा रही है। जबकि वाहनों में हर हर गंगे के उद्घोष से वातावरण गंगामय हो रहा है। मेले में चल रहे गंगा के गीत से खादर के विशाल रेतीले मैदान में आस्था और श्रद्धा की बयार बह रही है।
जान न पहचान फिर भी एक हो गए सब
देश प्रेम की बयार भी मेले में बह रही है। कहीं पर तिरंगा लहरा रहा है तो कहीं पर भगवा। कहीं सियासी डेरा लग चुका है तो कही धूना रमा जा रहा है। लोग एक दूसरे से परिचित नहीं है फिर भी आपस में प्रेम दिखाई पड़ रहा है।