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बोले बरेली: शिक्षा को न समझें कारोबार, अभिभावक हो रहे लाचार

Bareily News - बोले बरेली, शिक्षा को न समझें कारोबार, अभिभावक हो रहे लाचार बदलते दौर में

Newswrap हिन्दुस्तान, बरेलीMon, 17 Feb 2025 01:37 AM
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बोले बरेली: शिक्षा को न समझें कारोबार, अभिभावक हो रहे लाचार

बदलते दौर में शिक्षा के मंदिर कहे जाने वाले अधिकांश स्कूल अभिभावकों के शोषण का जरिया बन गए हैं। तमाम कवायद के बाद भी अभिभावकों का आर्थिक और मानसिक शोषण खत्म नहीं हो रहा है। तमाम स्कूल नियमों को ताक पर रखकर यूनिफॉर्म में परिवर्तन कर देते हैं। किताबों में भी मामूली बदलाव कर अभिभावकों पर आर्थिक बोझ बढ़ाया जाता है। अधिकतर स्कूलों ने कोरोना काल की 15 फ़ीसदी फीस का भी समायोजन नहीं किया है। अभिभावक निजी स्कूलों की मनमानी पर अंकुश लगाने की मांग कर रहे हैं। कभी समाज सेवा का हिस्सा माने जाने वाली शिक्षा ने जैसे-जैसे व्यवसायिकता का चोला उड़ा, वैसे-वैसे ही अभिभावकों की समस्याएं भी बढ़ती चली गईं। इन समस्याओं के समाधान के लिए शासन और प्रशासन के स्तर पर दावे तो बहुत हुई मगर जमीनी हकीकत इससे अलग ही है। हिन्दुस्तान से बात करते हुए अभिभावकों के स्वर इस बात की पुष्टि करते हैं। अभिभावकों का कहना है कि निजी स्कूल किसी प्राइवेट सेक्टर कंपनी की तरह काम करते हैं। वह हमें अभिभावक न मानकर एक उपभोक्ता मानते हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य अपना मुनाफा कमाना है। अभिभावक कहते हैं कि मोटी फीस लेने के बाद भी स्कूल अलग-अलग तरीके से कमाई करते हैं। काफी-किताबें, स्टेशनरी, यूनिफॉर्म आदि में बदलाव करके अभिभावकों के ऊपर मोटा बोझ डाला जाता है। किताबों की कीमतें भी इतनी अधिक है कि देखकर हैरानी होती है। कॉपी पर स्कूल का मोनोग्राम लगते ही कीमत आसमान छूने लगती है। ठीक यही हाल ड्रेस का भी है। मोनोग्राम के कारण उसकी भी कीमत बहुत बढ़ जाती है। ड्रेस की क्वालिटी भी बहुत खराब होती है। कई बार तो स्थिति यह रहती है कि ड्रेस एक सत्र भी नहीं चल पाती है। इस सत्र में दूसरी ड्रेस भी खरीदनी होती है।

कोविड काल की फीस नहीं हुई समायोजित

अभिभावक कहते हैं, कोर्ट ने कोरोना काल की 15 फीसदी फीस माफ करने आदेश दिया था। आदेश के क्रम में प्रदेश सरकार ने भी निर्देश जारी कर दिए थे। उसके बाद भी दो-चार स्कूलों ने हम लोगों की फीस समायोजित या वापस की। अभिभावक लगातार स्कूलों के चक्कर काट रहे हैं। कहीं कोई सुनवाई हो ही नहीं रही है। स्कूल अब सुप्रीम कोर्ट की एक याचिका का हवाला देकर हमारी बात को टाल दे रहे हैं। शिक्षा विभाग के अधिकारी भी शांत बैठे हैं।

कारोबारियों से है स्कूलों का गठजोड़

बातचीत के दौरान लगभग सभी अभिभावकों ने स्कूल और कारोबारियों के गठजोड़ पर सवाल उठाया। लोगों का कहना है कि लगभग सभी स्कूलों ने यूनिफॉर्म, कॉपी- किताबें और स्टेशनरी आदि के लिए किसी न किसी कारोबारी के साथ गठजोड़ कर रखा है। कितना भी प्रयास कर लिया जाए, उस दुकान के अलावा कहीं और आपको कॉपी- किताबें, ड्रेस नहीं मिलेगी। इस गठजोड़ के चलते अभिभावक मनमानी का शिकार होते हैं।

होलोग्राम लगते ही दोगुने हो जा रहे दाम

अभिभावक आरोप लगाते हैं, स्कूलों की कमाई का एक बड़ा जरिया कमीशन से आता है। सीबीएसई और आईसीएसई स्कूल फिजूल की कॉपी लेने को दवाब मनाते हैं। सभी ने कापियों के ऊपर अपने स्कूल का होलोग्राम लगा दिया है। होलोग्राम लगते ही 25 रुपये की कॉपी 45 रुपये की हो जाती है। अगर कोई अभिभावक इनको लेने से मना करता है तो उनको किताबें देने से भी मना कर दिया जाता है। मजबूरी में अभिभावकों को स्टेशनरी भी लेनी पड़ जाती है। आरोप है कि स्कूल वाले कॉपी पर ट्रांसपेरेंट कवर चढ़ाने को कहते हैं। ताकि उनकी होलोग्राम वाली कॉपी साफ दिख जाए। जो छात्र बिना होलोग्राम वाली कॉपी लेकर जाते हैं, उनकी फटकार लगाई जाती है।

ठंडे बस्ते में चली गई शुल्क कमेटी

अभिभावकों का कहना है, प्रदेश में स्ववित्तपोषित स्वतंत्र स्कूलों में शुल्क विनियमन किए जाने और उससे संबंधित अभिभावकों की समस्याओं के निस्तारण के लिए उत्तर प्रदेश स्वामित्व पोषित स्वतंत्र विद्यालय (शुल्क विनियमन) अधिनियम अधिनियम 2018 बनाया गया था। 17 जून 2020 और 31 अगस्त 2020 को इसमें कुछ बदलाव किये गए। अधिनियम के तहत स्कूलों में शुल्क संग्रह, फीस में वृद्धि, फीस के पुनर्निर्धारण, अपीलों के निस्तारण की प्रक्रिया निर्धारित की गई थी। स्कूलों में अधिक फीस लिए जाने, पाठ्य पुस्तकों को अधिक दर पर खरीदने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से विवश करने आदि समस्याओं के निराकरण के लिए कमेटी बनाई गई थी। वर्ष 2020 तक हमारे जिले में भी यह कमेटी सक्रिय रही। कई बैठक भी हुईं। स्कूलों पर कार्रवाई के लिए पत्र भी जारी हुए। मगर, धीरे-धीरे कर सब कुछ ठंडे बस्ते में चला गया। हमारी समस्याओं का कोई निस्तारण नहीं हुआ।

समस्याएं-

- स्कूलों के लगभग हर वर्ष किताबों में परिवर्तन करने से अभिभावकों को आर्थिक नुकसान होता है।

- तमाम स्कूल वाले यूनिफॉर्म में भी हर वर्ष बदलाव कर देते हैं। इससे आर्थिक बोझ बढ़ता है।

- शिक्षक अभिभावक संघ की बैठकों में केवल औपचारिकता होती है। अभिभावकों की समस्या को नहीं सुना जाता।

- स्कूलों के प्रबंधक और प्रधानाचार्य अभिभावकों की समस्याओं को सुनने के लिए नहीं मिलते हैं।

- हर वर्ष एनुअल फंक्शन, टूर के नाम पर अभिभावकों से मोटी वसूली की जाती है।

सुझाव-

- शुल्क कानून के सभी प्रावधानों को हर हालत में सख्ती के साथ में लागू कराया जाए।

- सभी निजी स्कूलों की 25 प्रतिशत सीटों पर आरटीई के तहत प्रवेश कराये जाए।

- किताबों में बदलाव करने से पहले डीआईओएस और बीएसए की कमेटी से अनुमोदन लिया जाए।

- अभिभावकों की शिकायतों के निस्तारण के संबंध में हर महीने फीडबैक लिया जाए।

- पांच वर्ष से पूर्व यूनिफॉर्म में किसी भी तरह के बदलाव पर रोक होनी चाहिए।

सुनिए हमारी बात

होमवर्क के बोझ से दबे जा रहे बच्चे

जनकपुरी निवासी अभिभावक गौरव सक्सेना कहते हैं कि स्कूल हम लोगों से मोटी फीस तो लेते हैं मगर बदले में अच्छी शिक्षा भी नहीं दे रहे हैं। स्कूलों में पढ़ाने और सहगामी गतिविधियों को कराने की जगह होमवर्क पर बहुत अधिक जोर है। बैग का बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है। बच्चों पर खेलने का वक्त ही नहीं है।

दो वर्ष में ही दोगुनी हो गई फीस

राजेंद्र नगर निवासी दिलीप खुराना कहते हैं, स्कूलों में मनमाने तरीके से फीस बढ़ाई जा रही है। शहर के एक

प्रसिद्ध स्कूल ने दो वर्ष में ही अपनी फीस लगभग दोगुनी कर दी है। यदि कोई अभिभावक शिकायत करता है तो उसे नाम कटवाने को कह दिया जाता है। अभिभावक चुप होकर बैठ जाता है।

एक ही दुकान पर मिलता सब सामान

किप्स एंक्लेव निवासी राहुल वर्मा कहते हैं कि सभी स्कूलों ने यूनिफॉर्म और किताबों के लिए एक-एक दुकान तय कर दी है। अभिभावक अधिक होने के कारण यह दुकानदार स्टॉक भी मेंटेन नहीं कर पाते हैं। पूरे जाड़े निकल गए हैं मगर मेरे बच्चे का ट्रैक सूट अभी तक संबंधित दुकान पर नहीं मिल पाया है।

सिंगल चाइल्ड स्कीम का नहीं दे रहे लाभ

शास्त्री नगर निवासी अमित कंचन कहते हैं कि सिंगल चाइल्ड के लिए फीस माफी का प्रावधान है। मगर, शहर के अधिकतर सीबीएसई स्कूल इसमें कोई राहत नहीं दे रहे हैं। यदि कोई अभिभावक मांग उठाता है तो कह दिया जाता है कि यह प्रावधान केवल सरकारी स्कूल के लिए है। आप वहां अपना नाम लिखवा लो।

बच्चों को मोबाइल का बना रहे हैं एडिक्ट

प्रेम नगर में रहने वाले ऋषि वर्मा कहते हैं कि कोरोना काल के दौरान मोबाइल पर पढ़ाई होना शुरू हुई थी। उस समय कोई और विकल्प नहीं था। मगर उसके बाद स्कूलों ने अपना सारा होमवर्क मोबाइल पर ही भेजना शुरू कर दिया है। मजबूरी में बच्चों को मोबाइल देना होता है। बच्चे मोबाइल के एडिक्ट बन रहे हैं।

मुझे भी कुछ है कहना

कोरोना के समय की 15 फ़ीसदी फीस को समायोजित करने का कोर्ट ने आदेश दिया था। अभी तक इस फीस को समायोजित नहीं किया गया है। अभिभावकों को लगातार चक्कर लगवाए जा रहे हैं।- शिवम सक्सेना, राजेंद्र नगर

स्टेशनरी के नाम पर स्कूलों ने जबरदस्त लूट मचा रखी है। छोटे बच्चों की भी ढेर सारी स्टेशनरी मंगा ली जाती है। इनमें से ज्यादातर इस्तेमाल भी नहीं होती है। इस पर रोक लगाये जाने की आवश्यकता है।- चेतन गुजराल, हनुमत सिटी

चाहे ड्रेस हो या कॉपी-किताबें, स्कूल का मोनोग्राम लगते ही उनकी कीमत आसमान छूने लगती है। जूता का भी वही हाल है। एक छोटी सी कलर स्ट्रिप लगाकर दाम बढ़ा दिए जाते हैं। हम पर आर्थिक बोझ बढ़ता है। -ललित मिगलानी

किताबी ज्ञान के साथ-साथ बच्चों को व्यवहारिक ज्ञान देना भी आवश्यक है। मगर, अधिकांश स्कूल ऐसा नहीं कर रहे हैं। बच्चों को सिर्फ रट्टू तोता मनाया जा रहा है जबकि एनईपी लागू होने का दावा किया जाता है।-केतन अरोड़ा, राजेंद्र नगर

स्कूलों के ऊपर अंकुश लगाना तब तक संभव नहीं है जब तक राजनीतिक संरक्षण खत्म नहीं होगा। तमाम बड़े राजनेताओं के भी स्कूल चल रहे हैं। इस कारण निजी स्कूलों के ऊपर कोई कठोर कार्रवाई नहीं होती है।- गुलशन डंग, टीबरी नाथ मन्दिर

अच्छे से अच्छे स्कूल में महंगी फीस पर प्रवेश दिलाने के बाद भी बच्चों को ट्यूशन लगानी पड़ती है आखिर ऐसे में इन स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था पर क्या भरोसा किया जाए उसके बाद भी स्कूल संचालकों का व्यवहार हमारे प्रति खराब रहता है।-रौनक जौली, रेजीडेंसी गॉर्डन

स्कूलों की समस्याओं का एक बड़ा कारण वहां के प्रबंधन और प्रधानाचार्य का खराब रुख होता है। यदि हम लोग किसी भी समस्या को लेकर उनसे मिलना चाहे तो यह बहुत ही कठिन होता है। ऐसे में छोटी समस्याएं भी उलझ जाती हैं।-शैलेन्द्र सिंह, कालीबाड़ी

पहले घर में बड़े बच्चे की किताबों से बाद के सभी बच्चे भी पढ़कर निकल जाते थे। अब तो स्कूल वाले हर वर्ष ही सिर्फ एक-दो चैप्टर बदलकर नई किताब निकाल देते हैं। इस पर रोक लगाने की आवश्यकता है। -रचित जौहरी, चाहवाई

सबसे ज्यादा खराब तो तब लगता है, जब स्कूल अपने एनुअल फंक्शन और स्पोर्ट्स डे के नाम पर भी हम लोगों से पैसे लेते हैं। जब हम लोग पहले से ही पूरी फीस दे रहे हैं तब फिर यह वसूली बहुत ही गलत होती है। -सरताज हुसैन, बसंत विहार कालोनी

स्कूल सिर्फ अपनी सीटें भरने में ही लगे रहते हैं। एक बार बच्चे का प्रवेश हो जाने के बाद उसके ऊपर कोई भी ध्यान नहीं दिया जाता है। यदि बच्चे को ट्यूशन नहीं लगाई जाए तो उसको पास होने में दिक्कत आती है।-शिल्पी वर्मा, प्रेम नगर

स्कूल प्रबंधन और प्रधानाचार्य को छोड़ दीजिए, क्लास टीचर भी बात सुनने को तैयार नहीं होते हैं। यदि कभी कोई शिकायत कर दी जाए तो बाद में बच्चों से खुन्नस निकली जाती है। उनको परेशान किया जाता है।- मोनिका खंडूजा, जनकपुरी

स्कूल में प्रैक्टिकल कराए ही नहीं जाते हैं। बच्चों को सिर्फ एक-दो बार ही लैब में ले जाया जाता है। बहुत से स्कूल की लैब में न तो इक्विपमेंट है और न ही प्रैक्टिकल करने के लिए केमिकल। सिर्फ किताबी ज्ञान ही दिया जाता है। -दीपाली सक्सेना, शास्त्रीनगर

स्कूलों में बच्चों को सिर्फ रट्टू तोता बनाया जा रहा है। रोज भारी भरकम होमवर्क दे दिया जाता है। बाद में उसको सही से चेक भी नहीं किया जाता है। तमाम स्कूलों में बच्चों को खेल भी नहीं कराए जाते।- सोनम सक्सेना, जनकपुरी

स्कूल संचालक पूरी तरीके से व्यवसायिक हो गए हैं। उन्हें अभिभावकों की समस्याओं से कोई भी लेना-देना नहीं है। अधिकारियों की भी मिलीभगत है। यदि शिकायत पर कार्रवाई हो तो कोई भी मनमानी नहीं कर सकेगा।- रूहानी खुराना, राजेंद्र नगर

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