बोले बलरामपुर-इंडो नेपाल सीमा के थारू बाहुल्य गावों में नहीं हैं बुनियादी सुविधाएं
Balrampur News - थारू बाहुल्य गांवों में बुनियादी सुविधाओं की कमी है। लोग संचार, स्वास्थ्य और बिजली जैसी सुविधाओं से वंचित हैं। सरकार ने थारू विकास परियोजना शुरू की थी, लेकिन वह निष्क्रिय हो गई है। गांवों में आवागमन...

पचपेड़वा, संवाददाता। इंडो नेपाल सीमा स्थित थारू बाहुल्य गांव में बुनियादी सुविधाएं नहीं उपलब्ध हैं। 21वीं सदी में जहां देश आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है, वहीं थारू समाज के लोग संचार क्रांति से भी कटे हुए हैं। गांवों तक पहुंचने के लिए पहाड़ी नालों पर न तो पक्के पुल हैं और न ही आने-जाने के लिए पक्की सड़कें। प्रसव पीड़ा से छटपटाती महिलाओं अथवा गंभीर रोगों से जूझ रहे लोगों को अस्पताल तक पहुंचाने के लिए सरकारी एंबुलेंस का गांव तक पहुंचना नामुमकिन है। गांव की बिजली व्यवस्था सोलर पैनल पर निर्भर है। वर्षा के दिनों में पूरा गांव अंधेरे में डूब जाता है।
नेपाल सीमा पर थारू बाहुल्य गांवों की बहुलता है। थारुओं को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला है। उनके उत्थान के लिए सरकार हर स्तर पर प्रयास कर रही है। सीएम योगी को थारू परिवारों को बेहद लगाव है। मुख्यमंत्री होने के पहले उनका अक्सर विशुनपुर विश्राम आना-जाना बना रहता था। वर्ष 1980 में थारुओं के उत्थान के लिए विशुनपुर विश्राम में थारू विकास परियोजना की स्थापना की गई थी, जिसका मुख्य उद्देश्य थारुओं को स्वावलंबी बनाना था। संरक्षित वन क्षेत्र होने के कारण थारू समाज के लोग बुनियादी सुविधाओं से महरूम हैं। सोनगढ़ा, मुतेहरा, छोटका भुकुरवा, बड़का भुकुरवा, भौरीशाल आदि गांव ऐसे हैं जहां पहुंचना मुश्किल काम होता है। सीमावर्ती क्षेत्र में पहाड़ी नालों की बहुलता है। किसी भी नाले पर पक्का पुल नहीं बना है। वर्षा काल में बाढ़ आने पर रास्ता पूरी तरह बंद हो जाता है। ग्रामीणों के लिए पक्के आवास की सुविधा नहीं है। थारू समाज के लोग परंपरागत ढंग से फूस एवं मिट्टी का घर रहने के लिए तैयार करते हैं। उन्हें पीने के लिए शुद्ध पानी का इंतजाम नहीं है। यह सभी गांव पहाड़ से सटे हैं। इस नाते से पहाड़ की जड़ें जमीन में फैली हैं। भौरीशाल ऐसा गांव है जहां लोग पहाड़ी नाले में स्नान करते हैं और उसी में कपड़े आदि की सफाई करते हैं। अधिकांश गांव में गर्मी आते-आते हैंडपंप सूखने की स्थिति में पहुंच जाते हैं। राम भरोसे, सुकई प्रसाद आदि का कहना है कि नल से एक बाल्टी पानी निकालने एक घंटे का समय लगता है। गांवों में स्कूल तो है, लेकिन शिक्षक कभी कभार ही पढ़ाने जाते हैं। वर्षाकाल में विद्यालय बंद हो जाते हैं। गांवों में मोबाइल का नेटवर्क काम नहीं करता। देवीदीन, कामता प्रसाद, मंगरे आदि का कहना है कि सीमावर्ती गांवों में नेपाल का सिम काम करता है। नेपाल का नेटवर्क रहता है लेकिन इंडिया का नहीं। कारण यह है कि संरक्षित वन क्षेत्र होने के नाते मोबाइल टावर बनाने की छूट नहीं है। आवश्यक सूचनाओं का आदान प्रदान करने के लिए जंगल से बाहर निकलना पड़ता है। डेढ़ दशक से नहीं बदला गया फुंका ट्रांसफार्मर, अंधेरे में गांव सीमावर्ती गांवों में बिजली की सुविधा नहीं है। लोग सौर ऊर्जा की रोशनी में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। वर्षाकाल में सौर ऊर्जा काम नहीं करता। जिससे पूरा गांव अंधेरे में डूबा रहता है। सभी गांव जंगल से सटे हैं, जिसके कारण वन्य जीवों के साथ सांप बिच्छू का खतरा बना रहता है। सोनगढ़ा गांव में वर्ष 2007 में विद्युतीकरण कराया गया था। बिजली आई तो लोग आश्चर्य चकित रह गए। पूरा गांव खुशी से झूम उठा था, लेकिन ठीक एक घंटे बाद ट्रांसफार्मर जल गया। उसके बाद ग्रामीणों ने तमाम लिखा पढ़ी की, लेकिन ट्रांसफार्मर नहीं बदला गया। पिछले 17 वर्षों से बिजली पोल पर लगा ट्रांसफार्मर शोपीस बनकर रह गया। ग्रामीणों को पंखा, फ्रिज, टीवी व कूलर जैसी सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं। परियोजना में नहीं मिल पा रहा किसी प्रकार का प्रशिक्षण थारू समाज के मनु प्रसाद, संतोले आदि बताते हैं कि परियोजना पूरी तरह निष्प्रयोज्य साबित हुई है, जिसका संचालन कागजों में हो रहा है। थारू विकास परियोजना में अब किसी प्रकार का प्रशिक्षण नहीं होता है। यहां तक कि महिलाओं व बेटियों के हाथ से बने उत्पाद भी नहीं बिक सकते। इस व्यवस्था से थारुओं की संस्कृति पर कुठाराघात हुआ है। समिति पर खाद एवं बीज भी उपलब्ध नहीं कराया जाता। उद्योग लगाने के लिए किसी प्रकार ऋण का इंतजाम नहीं है। तमाम प्रकार की तकनीकी योजनाओं का प्रशिक्षण नहीं मिल पा रहा है। आधुनिक दौर में कम्प्यूटर का अत्यधिक महत्व है। लेकिन कम्प्यूटर सीखने की कोई व्यवस्था नहीं है। महिलाएं सिलाई, कढ़ाई का भी प्रशिक्षण नहीं पा रही हैं। भवन जर्जर हो चुके हैं। परियोजना पूरी तरह ठप पड़ी है। थारू समाज के लोग रोजगार परक शिक्षा से दूर हो चुके हैं। पहले हैंडलूम का प्रशिक्षण मिलता था वह भी दो दशक पूर्व बंद हो चुका है। थारुओं को अब नहीं रहा पशु पालन का मोह प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में डॉ अवधेश चौधरी की तैनाती है। वहां समुचित दवाएं उपलब्ध नहीं हैं। स्वास्थ्य केन्द्र का भवन भी जर्जर स्थिति में पहुंच गया है। अस्पताल में फार्मासिस्ट व एलटी की तैनाती नहीं है। दो स्टाफ नर्स हैं जो प्रसव आदि कराने का काम करती हैं। अस्पताल परियोजना के अधीन है, इसलिए दवाओं की भी कमी बनी रहती है। इसी तरह पशु अस्पताल भी बंद पड़ा है। राजीव, श्याम मनोहर, राजित राम आदि बताते हैं कि थारुओं को अब पशु पालन का मोह नहीं रहा। पहले वे गाय भैंस पालकर दूध का कारोबार कर लेते थे। मौजूदा समय में मवेशियों के बीमार होने पर उनका इलाज 20 किमी दूर पचपेड़वा जाकर कराना पड़ता है। इसी तरह थारुओं को अपने उत्पाद बेचने में दिक्कत आ रही है। पहले वे टोकरी, डलिया व टोपी आदि बनाकर परंपरागत वस्तुओं की बिक्री परियोजना में करते थे, लेकिन अब सारी व्यवस्था समाप्त हो चुकी है।
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