कच्चातीवु नाम का यह छोटा-सा द्वीप एक बार फिर सुर्खियों में है। यह कभी भारत का हिस्सा रहा और आज श्रीलंका के कब्जे में हैं। 14वीं सदी में ज्वालामुखी के विस्फोट से बने इस रहस्यमय द्वीप को 1974 में भारत ने श्रीलंका को सौंप दिया था। अब जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थाईलैंड दौरे के बाद 4 अप्रैल की रात श्रीलंका पहुंचने वाले हैं, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने इस द्वीप से जुड़े विवाद को प्रधानमंत्री के सामने रखने की अपील की है।
स्टालिन ने कहा कि कच्चातीवु का मुद्दा तमिलनाडु के मछुआरों के लिए जिंदगी और मौत का सवाल बन चुका है। उन्होंने पीएम मोदी से आग्रह किया कि श्रीलंका के राष्ट्रपति और अधिकारियों से इस मामले पर गंभीर बातचीत की जाए।
स्टालिन ने आरोप लगाया कि जब से यह द्वीप श्रीलंका को सौंपा गया है, तब से तमिलनाडु के मछुआरे लगातार श्रीलंकाई नौसेना की कार्यवाही का शिकार हो रहे हैं। उन्हें गिरफ़्तार किया जाता है, उनकी नावें जब्त की जाती हैं और उनके रोजगार पर सीधा असर पड़ता है।
कच्चातीवु द्वीप पाल्क स्ट्रेट में स्थित है और ऐतिहासिक रूप से भारत और श्रीलंका के बीच की सीमा पर मछुआरों के पारंपरिक इलाके में आता है। लेकिन 1974 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसे एक समझौते के तहत श्रीलंका को सौंप दिया था। तब से लेकर आज तक यह भारत और श्रीलंका के रिश्तों में एक विवाद का कारण बना हुआ है।
कच्चतीवू 285 एकड़ में फैला एक निर्जन द्वीप है, जो भारत और श्रीलंका के बीच स्थित पाल्क स्ट्रेट में आता है। यह तमिलनाडु के रामनाथपुरम से 12 मील और श्रीलंका के डेल्फ्ट द्वीप से 10.5 मील की दूरी पर है। इस द्वीप पर पीने के पानी की एक बूंद तक नहीं है, लेकिन हर साल सेंट एंटनी चर्च में दो दिन का मेला लगता है जिसमें दोनों देशों के मछुआरे हिस्सा लेते हैं। सेंट एंटनी को मछुआरों का रक्षक माना जाता है।
14वीं सदी में ज्वालामुखी से बने इस द्वीप पर कभी रामनाथपुरम के जमींदार राजा का हक था। लंबे समय तक इसपर कोई अंतरराष्ट्रीय दावा नहीं था। लेकिन 1974 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और श्रीलंका की राष्ट्रपति सिरिमावो भंडारनायके के बीच एक समझौते में इसे श्रीलंका को सौंप दिया गया। इसके बदले भारत को कन्याकुमारी के पास वाज बैंक क्षेत्र मिला, जो समुद्री जैवविविधता के लिए जाना जाता है।
इस समझौते का तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने विरोध किया था, लेकिन केंद्र सरकार ने इसे दरकिनार कर दिया। 1976 में समुद्री सीमाएं फिर से तय की गईं और भारत ने वाज बैंक को अपने अधिकार में ले लिया।