संशोधित... संविधान मूल रूप से भी धर्मनिरपेक्ष लोकाचार को दर्शाती है-सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की प्रस्तावना से 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को हटाने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया। अदालत ने कहा कि ये शब्द 1976 में 42वें संशोधन के तहत जोड़े गए थे और...
संविधान के प्रस्तावना से समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को हटाने से सुप्रीम कोर्ट का इनकार नई दिल्ली विशेष संवाददाता
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को महत्वपूर्ण फैसले में संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी और ‘धर्मनिरपेक्ष शब्दों को हटाने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि ‘संविधान की प्रस्तावना अपने मूल रूप में भी 1976 में 42वें संशोधन के पारित होने से पहले भी धर्मनिरपेक्ष लोकाचार को दर्शाती थी। वर्ष 1976 में आपातकाल के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान के 42वें संशोधन के जरिए प्रस्तावना में सामाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को शामिल किया गया था।
मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने अपने फैसले में कहा है कि ‘1949 में संविधान को अपनाते समय ‘धर्मनिरपेक्ष शब्द को वस्तुनिष्ठ रूप से परिभाषित नहीं किया गया था। इसके बावजूद, प्रस्तावना में निहित मूल सिद्धांत ‘स्थिति और अवसर की समानता, बंधुत्व, व्यक्तिगत गरिमा सुनिश्चित करना, न्याय के साथ-साथ, सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक और स्वतंत्रता, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा, इस धर्मनिरपेक्ष लोकाचार को दर्शाते हैं। जस्टिस खन्ना ने कहा है कि धर्मनिरपेक्षता का सार संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 के तहत मुहैया कराए गए मौलिक अधिकारों में भी देखा जा सकता है, जो धार्मिक आधार पर नागरिकों के खिलाफ भेदभाव को प्रतिबंधित करते हैं, जबकि कानूनों के समान संरक्षण और सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर की गारंटी देते हैं। उन्होंने कहा कि यही बात अनुच्छेद 25, 26, 29, 30 और 44 के सार में भी पाई जाती है। शीर्ष अदालत ने कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 25 सभी लोगों को विवेक की समान स्वतंत्रता और धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने के अधिकार की गारंटी देता है, जो सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, स्वास्थ्य, अन्य मौलिक अधिकारों और धार्मिक प्रथाओं से जुड़ी धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों को विनियमित करने की राज्य की शक्ति के अधीन है।
फैसले में कहा गया है कि अनुच्छेद 26 प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय को धार्मिक और धर्मार्थ संस्थानों की स्थापना और रखरखाव, धार्मिक मामलों का प्रबंधन, संपत्ति का स्वामित्व और अधिग्रहण करने और कानून के अनुसार ऐसी संपत्ति का प्रशासन करने का अधिकार देता है। जबकि अनुच्छेद 29 नागरिकों के हर वर्ग की विशिष्ट संस्कृति की रक्षा करता है और अनुच्छेद 30 धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपने स्वयं के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने का अधिकार देता है। पीठ ने कहा है कि इन प्रावधानों के बावजूद, राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों में अनुच्छेद 44 राज्य को अपने नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता के लिए प्रयास करने की अनुमति देता है। सुप्रीम कोर्ट ने 22 नवंबर को संविधना के 42वें संशोधन के जरिए प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को शामिल किए जाने को चुनौती देने वाली भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी, समाजिक कार्यकर्ता बलराम सिंह एवं अन्य की ओर से दाखिल याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रख लिया था। सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश खन्ना ने कहा था कि ‘प्रस्तावना में ‘समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़ने के लिए 1976 में संविधान में किए गए 42वें संशोधन की कई बार न्यायिक समीक्षा की गई है और यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल के दौरान लिया गया संसद का हर फैसला निरर्थक था।
संसद की संशोधन की शक्ति प्रस्तावना तक है विस्तारित- सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को हटाने की मांग वाली याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा कि ‘संसद की संशोधन शक्ति प्रस्तावना तक भी विस्तारित है। साथ ही कहा है कि प्रस्तावना को अपनाने की तिथि संसद की प्रस्तावना में संशोधन करने की शक्ति को सीमित नहीं करती है।
मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और संजय कुमार की पीठ ने कहा याचिकाओं को खारिज करते हुए कहा कि ‘हमें लगभग 44 वर्षों के बाद इस संवैधानिक संशोधन को चुनौती देने का कोई वैध कारण या औचित्य आधार नहीं मिला। पीठ ने कहा कि परिस्थितिया शीर्ष अदालत के विवेक का प्रयोग करके मामले की विस्तृत जांच करने की गारंटी नहीं देती हैं क्योंकि संवैधानिक स्थिति स्पष्ट बनी हुई है, जो विस्तृत अकादमिक घोषणा की आवश्यकता को नकारती है। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि ‘दो अभिव्यक्तियां ‘समाजवाद और ‘धर्मनिरपेक्ष 1976 में 42वें संशोधनों के जरिए प्रस्तावना में शामिल की गई थीं और यह तथ्य कि संविधान 1949 में अपनाया गया था, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फैसले में यह भी कहा गया कि यदि पूर्वव्यापी तर्क स्वीकार किए जाते हैं तो वे सभी संशोधनों पर लागू होंगे। मुख्य न्यायाधीश खन्ना ने कहा है इतने सालों के बाद, समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से हटाया नहीं जा सकता है। पीठ ने कहा कि संविधान को अपनाने की तिथि संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत शक्ति को कम या सीमित नहीं करेगी। यदि पूर्वव्यापी तर्क स्वीकार किया जाता है, तो यह संविधान के किसी भी भाग में किए गए संशोधनों पर समान रूप से लागू होगा। पीठ ने कहा कि हालांकि अनुच्छेद 368 के तहत ऐसा करने की संसद की शक्ति निर्विवाद है और इसे चुनौती नहीं दी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि यह सच है कि संविधान सभा ने प्रस्तावना में ‘समाजवादी और ‘धर्मनिरपेक्ष शब्दों को शामिल करने पर सहमति नहीं जताई थी, संविधान एक जीवंत दस्तावेज है, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, जिसमें संसद को अनुच्छेद 368 के अनुसार और उसके अनुसार इसे संशोधित करने की शक्ति दी गई है। पीठ ने कहा है कि भारत ने कुछ समय के लिए धर्मनिरपेक्षता की अपनी व्याख्या विकसित की है, जिसमें राज्य न तो किसी धर्म का समर्थन करता है और न ही किसी आस्था के पालन और अभ्यास को दंडित करता है।
समाजवाद का मतलब सिर्फ कल्याणकारी राज्य है- सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा है कि हमारे संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त शब्द ‘समाजवाद की व्याख्या अतीत की निर्वाचित सरकार द्वारा अपनाई गई मात्र आर्थिक विचारधारा तक सीमित करके नहीं की जा सकती। शीर्ष अदालत ने कहा कि समाजवाद का अर्थ लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित सरकार द्वारा लाई गई आर्थिक नीतियों के चयन तक सीमित करने के बजाय, समाजवाद को ‘कल्याणकारी राज्य बनने की राज्य की प्रतिबद्धता और अवसर की समानता सुनिश्चित करने की उसकी प्रतिबद्धता के रूप में समझा जाना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश खन्ना ने कहा कि ‘बेहतर होगा कि ‘समाजवाद का व्याख्या पश्चिमि देशों के बजाए भारत के संदर्भ में किया जाए। उन्होंने कहा कि भारत में समाजवाद का मतबल सिर्फ कल्याणकारी राज्य से है। फैसले में कहा गया है कि न तो संविधान और न ही प्रस्तावना किसी विशिष्ट आर्थिक नीति या संरचना का निर्देश देती है, चाहे वह वामपंथी हो या दक्षिणपंथी। बल्कि, ‘समाजवादी राज्य की कल्याणकारी राज्य बनने की प्रतिबद्धता और अवसरों की समानता सुनिश्चित करने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। इसके साथ ही, उन्होंने कहा है कि इन याचिकाओं पर विस्तृत सुनवाई की आवश्यकता नहीं है।
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