संविधान पीठ ने 57 साल पुराने फैसले को रद्द किया, 3 जजों की पीठ तय करेगी AMU अल्पसंख्यक संस्थान है या नहीं
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने फैसला पढ़ते हुए कहा कि कोई भाषाई या धार्मिक अल्पसंख्यक जिसने कोई शैक्षणिक संस्थान स्थापित किया है, उसे प्रशासन में अधिक स्वायत्तता की गारंटी मिलती है और कानून का यह प्रावधान का विशेष अधिकार है।
प्रभात कुमार नई दिल्ली।
सुप्रीम कोर्ट के 7 जजों की संविधान पीठ ने शुक्रवार को 57 साल पुराने उस फैसले को रद्द कर दिया है, जिसमें कहा गया था कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान का दर्जा पाने का हकदार नहीं है क्योंकि इसकी स्थापना केंद्रीय कानून के तहत हुई है। संविधान पीठ के इस फैसले के बाद अब तीन जजों की पीठ यह तय करेगी कि एएमयू अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान है या नहीं।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली 7 जजों की संविधान पीठ ने 4:3 के बहुमत से पारित फैसले में संविधान पीठ ने कहा है कि ‘किसी कानून या एक कार्यकारी कार्रवाई जो शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना या प्रशासन में धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव करती है, वह संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के प्रावधानों के खिलाफ है। पीठ ने बहुमत के फैसले में ‘सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की पीठ द्वारा 1967 में अजीज बाशा बनाम भारत सरकार के मामले में पारित फैसले को रद्द करते हुए यह टिप्पणी की है। अजीज बाशा मामले में कहा गया था कि एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा नहीं दिया जा सकता है क्योंकि इसकी स्थापना केंद्रीय कानून के तहत हुई है और यह एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है। संविधान पीठ के इस फैसले से एएमयू के अल्पसंख्यक संस्थान होने की राह में सबसे बड़ी बाधा दूर हो गई है। हालांकि एएमयू अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान है या नहीं, यह अभी तय नहीं हुआ है। यह तय करने के लिए करने के लिए संविधान पीठ ने मामले को सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की नियमित पीठ के समक्ष भेज दिया है। साथ ही, पीठ से कहा है कि मौजूदा मामले में बहुमत के फैसले में अपनाए गए दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए एएमयू के अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान होने के बारे में निर्णय करें।
संविधान पीठ के बहुमत का फैसला पढ़ते हुए मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि ‘किसी कानून या कार्यकारी कार्रवाई जो शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना या प्रशासन में धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव करती है, वह संविधान के अनुच्छेद 30(1) के प्रावधानों के खिलाफ है। अनुच्छेद 30 शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अल्पसंख्यकों के अधिकार से संबंधित है जबकि अनुच्छेद 30 (1) सभी अल्पसंख्यकों भले ही वह धर्म या भाषा पर आधारित हों, को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकार से संबंधित है। संविधान पीठ ने बहुमत के फैसले से 1967 के अजीज बाशा मामले पारित फैसले को खारिज करते हुए ‘कहा कि कोई संस्थान महज इसलिए अपना अल्पसंख्यक दर्जा नहीं खो देगी क्योंकि उसे कानून के तहत बनाया गया। इसके साथ ही, संविधान पीठ ने बहुमत के फैसले में कहा है कि ‘अब सुप्रीम कोर्ट को यह जांच करनी चाहिए कि एएमयू की स्थापना किसने की और इसके पीछे किसका दिमाग कौन था। संविधान पीठ ने कहा है कि यदि जांच अल्पसंख्यक समुदाय की ओर इशारा करती है, तो एएमयू संविधान के अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यक दर्जा पाने का दावा कर सकती है। संविधान पीठ में मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के अलावा, जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जे.बी. पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और एस.सी. शर्मा शामिल है। जस्टिस संजीख खन्ना, जेबी पारदीवाला और मनोज मिश्रा की ओर से मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने फैसला लिखा है, जबकि जस्टिस सूर्यकांत, दीपांकर दत्ता और एससी मिश्रा ने अपना अलग-अगल फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू एवं अन्य की याचिका का निपटारा करते हुए यह फैसला दिया है।
अल्पसंख्यक दर्जा पाने के लिए यह साबित करना होगा कि एएमयू की स्थापना समुदाय के हित के लिए की थी
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने 118 पन्नों के बहुमत का फैसला पढ़ते हुए कहा कि कोई भाषाई या धार्मिक अल्पसंख्यक जिसने कोई शैक्षणिक संस्थान स्थापित किया है, उसे प्रशासन में अधिक स्वायत्तता की गारंटी मिलती है और कानून का यह प्रावधान का विशेष अधिकार है। हालांकि उन्होंने यह साफ किया है कि धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों को यह साबित करना होगा कि उन्होंने समुदाय के लिए शैक्षणिक संस्थान की स्थापना की है, ताकि अनुच्छेद 30(1) के प्रयोजनों के लिए यह अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान हो। बहुमत के फैसले में कहा गया है कि अनुच्छेद 30(1) द्वारा गारंटीकृत अधिकार संविधान के लागू होने से पहले स्थापित विश्वविद्यालयों पर भी लागू होता है। मुख्य न्यायाधीश ने फैसले में उन कारकों का भी उल्लेख किया है ‘जिनका इस्तेमाल यह निर्धारित करने के लिए किया जाना चाहिए कि क्या अल्पसंख्यक ने कोई शैक्षणिक संस्थान ‘स्थापित किया है। यदि हां तो इसके विचार, उद्देश्य और कार्यान्वयन के संकेत संतुष्ट होने चाहिए। संविधान पीठ ने बहुमत के फैसले में कहा है कि अनुच्छेद 30(1) में इस्तेमाल किए गए शब्द ‘स्थापना को संकीर्ण और कानूनी अर्थ में नहीं समझा जा सकता और न ही समझा जाना चाहिए। फैसले में कहा गया कि अनुच्छेद 30 के खंड (1) में इस्तेमाल किए गए शब्दों की व्याख्या अनुच्छेद के उद्देश्य और उद्देश्य तथा इसके द्वारा दी गई गारंटी और सुरक्षा को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए।
इसके साथ ही फैसले में कहा गया है कि शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने का विचार अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित किसी व्यक्ति या समूह से उत्पन्न होना चाहिए और स्थापना का मकसद अल्पसंख्यक समुदाय के लाभ के लिए होना चाहिए। पीठ ने कहा है कि विचार के कार्यान्वयन को अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा लिया गया एक अन्य कारक बताया गया। साथ ही शैक्षणिक संस्थान की प्रशासनिक व्यवस्था को स्पष्ट करना चाहिए और इस बातों की पुष्टि करनी चाहिए कि पहला, शैक्षणिक संस्थान का अल्पसंख्यक चरित्र और दूसरा यह कि इसे अल्पसंख्यक समुदाय के हितों की रक्षा और बढ़ावा देने के लिए स्थापित किया गया था। पीठ ने कहा है कि एएमयू एक अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान है या नहीं, निर्णय में निर्धारित सिद्धांतों के आधार पर तय किया जाना चाहिए। संविधान पीठ ने यह फैसला करते हुए कहा कि ‘मामले को नियमित पीठ के पास भेजा रखा जाए ताकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2006 के फैसले के खिलाफ अपीलों पर निर्णय लिया जा सके। उच्च न्यायालय ने एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा देने वाले 1981 के कानून के एक प्रावधान को खारिज कर दिया था। बहुमत के फैसले में दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा 1981 के संदर्भ को भी वैध माना, जिसने 1967 के फैसले की शुद्धता पर सवाल उठाया था और मामले को सात न्यायाधीशों की पीठ को भेज दिया था।
जस्टिस सूर्यकांत का मत
संविधान पीठ में शामिल जस्टिस सूर्यकांत ने अपने फैसले में कहा कि 1967 के फैसले पर पुनर्विचार के लिए 1981 का संदर्भ ‘कानून की दृष्टि से यह गलत है और इसे खारिज किया जाना चाहिए। उन्होंने 102 पन्नों के अपने फैसले में कहा कि ‘अंजुमन (1981 में) में दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया संदर्भ भारत के मुख्य न्यायाधीश के रोस्टर के स्वामी होने के अधिकार को चुनौती देने के अलावा और कुछ नहीं है और संविधान के अनुच्छेद 145 के तहत प्राप्त विशेष शक्तियों का हनन है।
एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं -जस्टिस दत्ता
संविधान पीठ में शामिल जस्टिस दीपांकर दत्ता ने अपने अलग लिखे फैसले में कहा है कि एएमयू को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान नहीं घोषित किया। उन्होंने इस बात पर आश्चर्य जताया कि अंजुमन-ए-रहमानिया मामले में दो जजों की पीठ यह अनुरोध कैसे कर सकती है कि मामले को कम से कम सात न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष रखा जाए। जस्टिस दत्ता ने कहा कि ‘मुझे डर है कि कल, दो न्यायाधीशों की पीठ, न्यायविदों की राय का हवाला देते हुए मूल संरचना सिद्धांत पर संदेह व्यक्त करके भारत के मुख्य न्यायाधीश से 15 न्यायाधीशों की पीठ गठित करने का अनुरोध कर सकती है।
दो जजों की पीठ मामले को 7 जजों को कैसे भेज सकती है- जस्टिस शर्मा
संविधान पीठ में शामिल जस्टिस एससी शर्मा ने अपने अलग लिखे फैसले में दो जजों की पीठ द्वारा सीजेआई की मौजूदगी के बिना मामले को सीधे सात न्यायाधीशों की पीठ को नहीं भेज सकती थी।
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