जब छोटी जाति के कारण तांगेवाले ने नहीं बैठाया, 9 साल के आंबेडकर का दिल भर गया
- यह घटना 1901 की है, जब डॉ. भीमराव आंबेडकर और उनका परिवार सतारा में रहता था। उस समय उनकी मां का देहांत हो चुका था और पिता कोरेगांव में नौकरी करते थे। पिता के बुलावे पर वे ट्रेन से उनके पास पहुंचे।

14 अप्रैल बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती पर उनकी यादें और संघर्षों को याद किया जाता है। एक ऐसी घटना, जिसने उनके जीवन की दिशा बदल दी। बात तब की है, जब आंबेडकर नौ साल के थे। अपने भाई-बहनों के साथ वे पिता से मिलने को उत्सुक थे। रेलवे स्टेशन पर उतरकर तांगे की प्रतीक्षा करने लगे। एक आया भी लेकिन, फिर ऐसी घटना हुई, जिससे नन्हें आंबेडकर का दिल भर गया। इस घटना का जिक्र आंबडेकर ने अपनी आत्मकथा 'Waiting for a Visa' में मिलता है।
यह घटना 1901 की है, जब डॉ. भीमराव आंबेडकर और उनका परिवार सतारा में रहते थे। उस समय उनकी मां का देहांत हो चुका था और उनके पिता कोरेगांव में खजांची की नौकरी करते थे। उनके पिता का कार्य सतारा जिले के कोरेगांव में था, जहां बंबई की सरकार अकाल से पीड़ित किसानों को रोजगार देने के लिए तालाब खुदवा रही थी। उस दौर में अकाल के कारण हजारों लोगों की जान चली गई थी।
पिता ने भेजा बुलावा
जब आंबेडकर छोटे थे, तब उनके पिता कोरेगांव में तैनात थे और दूर होने के कारण वे अपने बच्चों से मिलने नहीं आ सकते थे। इसलिए उन्होंने चिट्ठी भेजकर सुझाव दिया कि गर्मियों की छुट्टियों में बच्चे कोरेगांव आ जाएं। यह खबर मिलते ही आंबेडकर और उनके भाई-बहनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वे पहली बार रेलगाड़ी में बैठने वाले थे, जिसे लेकर उनके मन में उत्साह और जिज्ञासा दोनों थी। यात्रा की तैयारियां जोश से शुरू हुईं। बच्चों के लिए नए कपड़े खरीदे गए — अंग्रेजी स्टाइल के कुरते, रंग-बिरंगी नक्काशीदार टोपी, रेशमी किनारी वाली धोती और चमचमाते जूते। सब कुछ उनके इस पहले सफर को खास बनाने के लिए था।
आंबेडकर के पिता ने चिट्ठी में हर जरूरी जानकारी दी थी और यह भी लिखा था कि वे बच्चों को स्टेशन से लेने के लिए अपना एक विश्वसनीय चपरासी भेजेंगे, जो उन्हें सुरक्षित कोरेगांव तक पहुंचा देगा। आंबेडकर अपने भाई-बहन के साथ रेलवे स्टेशन पहुंचे। वो अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “वहां किराए पर जाने के लिए कई बैलगाड़ियां थीं, लेकिन स्टेशन मास्टर से मेरा महार कहना गाड़ीवालों को सुनाई पड़ गया था और कोई भी अछूत को ले जाकर अपवित्र होने को तैयार नहीं था। हम दोगुना किराया देने को तैयार थे, लेकिन पैसों का लालच भी काम नहीं कर रहा था।”
दोगुना किराया दिया और खुद तांगा चलाकर पहुंचे
आंबेडकर आगे लिखते हैं, "हमारी ओर से बात कर रहे स्टेशन मास्टर को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें? अचानक उसके दिमाग में कोई बात आई और उसने हमसे पूछा, ‘क्या तुम लोग गाड़ी हांक सकते हो?’ हम तैयार हो गए।’ यह सुनकर वह गाड़ीवालों के पास गया और उनसे कहा कि तुम्हें दोगुना किराया मिलेगा और गाड़ी वे खुद चलाएंगे। गाड़ीवाला खुद गाड़ी के साथ पैदल चलता रहे। एक गाड़ीवाला राजी हो गया।"
आंबेडकर यह सफर न केवल एक नई जगह देखने का था, बल्कि यह उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, जो बाद में उनकी पूरी यात्रा और संघर्ष का हिस्सा बना।