किन 2 मुस्लिम MPs ने की थी रुश्दी की किताब पर बैन की मांग, क्यों झुकी थी प्रचंड बहुमत वाली राजीव सरकार
सितंबर 1988 में एक पत्रिका में रुश्दी के साक्षात्कार के साथ पुस्तक के कुछ अंश प्रकाशित हुए थे, जिसके बाद सांसद सैयद शहाबुद्दीन और खुर्शीद आलम खान ने उस किताब पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी।
बात अक्तूबर 1988 की है। राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे। 1984 में उनकी माताजी और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वह तुरंत प्रधानमंत्री बने थे फिर इसके बाद हुए लोकसभा चुनावों में उन्होंने सहानुभूति की प्रचंड लहर में प्रचंड बहुमत हासिल की थी। तब लोकसभा की कुल 514 सीटों में से 404 सीटों पर कांग्रेस को प्रचंड बहुमत मिला था। बावजूद इसके खुले विचारों वाले और देश में कम्प्यूटर लाने का दावा करने वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी दो-तीन मुस्लिम सांसदों की एक मांग के आगे झुक गए थे।
हुआ यूं था कि मशहूर लेखर सलमान रुश्दी की एक नई किताब 'द सैटेनिक वर्सेज' मार्केट में आई थी लेकिन मुस्लिम बुद्धिजीवियों को यह उपन्यास पसंद नहीं आया। दरअसल, इस उपन्यास में अच्छाई और बुराई के सदियों पुराने विषयों की पड़ताल की गई थी और उसमें अर्खंगेल गेब्रियल और पैगम्बर मुहम्मद जैसे धार्मिक व्यक्तित्वों का चित्रण किया गया था। मुस्लिम पाठकों को यह बात पसंद नहीं आई और उनलोगों ने इसे ईशनिंदा वाला करार दिया।
वित्त मंत्रालय ने लगाया था बैन
जल्द ही इस किताब के खिलाफ दुनियाभर में विरोध-प्रदर्शन होने लगे। इसके बाद इस पुस्तक को भारत, दक्षिण अफ्रीका और पाकिस्तान सहित विभिन्न देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया। 5 अक्टूबर को केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने भारतीय सीमा शुल्क अधिनियम की धारा 11 के तहत 'द सैटेनिक वर्सेज' पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर दी। दरअसल, राजीव गांधी की तत्कालीन सरकार ने यह कवायद दो मुस्लिम सांसदों की आपत्ति और किताब बैन करने की मांग पर की थी।
सितंबर 1988 में एक भारतीय पत्रिका में रुश्दी के साक्षात्कार के साथ पुस्तक के कुछ अंश प्रकाशित हुए थे, जिसके बाद तत्कालीन लोकसभा सांसद सैयद शहाबुद्दीन और खुर्शीद आलम खान ने उस किताब पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी। कहा जाता है कि देश में रुश्दी और उनकी किताब के खिलाफ मुसलमानों में विरोध बढ़ता जा रहा था। इसे देखते हुए 5 अक्टूबर 1988 को भारत सरकार ने वित्त मंत्रालय के एक सीमा शुल्क आदेश के माध्यम से 'द सैटेनिक वर्सेज' के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। हालांकि, राजीव गांधी सरकार को ना तो तब ऐसे विरोध-प्रदर्शनों से कोई खतरा था, न ही सरकार इतनी कमजोर थी कि वह ऐसे प्रदर्शनों को न दबा सके। बावजूद सरकार ने खास वर्ग को खुश करने के लिए तब ऐसा कदम उठाया था।
कौन थे ये दोनों मुस्लिम सांसद?
खुर्शीद आलम खान कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे हैं। वह 1984 से 1989 के बीच फर्रुखाबाद से लोकसभा के सांसद थे। इससे पहले 1974 से 1984 तक वह राज्यसभा के सदस्य थे। वह केंद्र की कई सरकारों में विदेश मंत्री से लेकर पर्यटन, नागहरिक उड्डयन, कपड़ा और वाणिज्य का मंत्रालय भी संभाल चुके थे। वह गोवा और कर्नाटक के गवर्नर भी रहे थे। ये देश के तीसरे राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन के दामाद थे। पूर्व विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद इनके बेटे हैं।
सैयद शहाबुद्दीन बिहार के रहने वाले थे। वह भारतीय विदेश सेवा में थे लेकिन नौकरी छोड़कर उन्होंने राजनीति की राह पकड़ी थी। 1979 से 1996 तक वह तीन कार्यकाल में सांसद चुने गए थे। उन्होंने किशनगंज लोकसभा सीट पर 1991 में एमजे अकबर को हराया था। उन्होंने ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत, जो देश में मुस्लिम संगठनों के लिए शीर्ष स्तरीय मंच है, का नेतृत्व भी किया था। वह पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के भी करीबी थे। वह बाबरी ऐक्शन कमेटी के भी हेड थे। जेडीयू नेता परवीन अमानुल्लाह उनकी बेटी हैं।
दुनिया भर में हो रहा था विरोध
बड़ी बात यह भी है कि इस किताब के प्रकाशन के कुछ समय बाद ही ईरानी नेता रूहोल्लाह खोमैनी ने एक फतवा जारी कर मुसलमानों से रुश्दी और उसके प्रकाशकों की हत्या करने को कहा था। तब रुश्दी ने लगभग 10 साल ब्रिटेन और अमेरिका में छिपकर बिताए थे। जुलाई 1991 में उपन्यासकार के जापानी अनुवादक हितोशी इगाराशी की उनके कार्यालय में हत्या कर दी गई थी। 34 साल बाद लेबनानी-अमेरिकी हादी मतर ने 12 अगस्त 2022 को एक व्याख्यान के दौरान मंच पर रुश्दी पर चाकू से हमला कर दिया था, जिससे उनकी एक आंख की रोशनी चली गई।
अब 36 साल बाद सलमान रुश्दी की ‘द सैटेनिक वर्सेज’ को भारत में बेचने की अनुमति मिल गई है। यह किताब दिल्ली के बाहरीसन्स बुकस्टोर पर उपलब्ध है। दिल्ली हाई कोर्ट ने नवंबर में उपन्यास के आयात पर राजीव गांधी सरकार के प्रतिबंध को चुनौती देने वाली याचिका पर कार्यवाही बंद कर दी थी और कहा था कि चूंकि अधिकारी प्रासंगिक अधिसूचना पेश करने में विफल रहे हैं, इसलिए यह मान लिया जाना चाहिए कि वह मौजूद ही नहीं है। हाई कोर्ट का यह आदेश तब आया जब अधिकारी 5 अक्टूबर 1988 की अधिसूचना प्रस्तुत करने में विफल रहे जिसके जरिए इस पुस्तक के आयात पर प्रतिबंध लगाया गया था।