लोकगीतों की मल्लिका को श्रद्धांजलि: अनमोल अहसास बनकर यादों में रहेंगी शारदा सिन्हा
- बिहार की लोकगीतों की मल्लिका शारदा सिन्हा ने छठ के गीतों से लोकसंगीत को अमर बना दिया। उनकी ममतामयी आवाज हर दिल को छू जाती है। उनका संगीत हमारी संस्कृति की धरोहर बना रहेगा।
उगअ हो सुरुजदेव, भइल अरग के बेर....सुबह से यह गाना मेरे आसपास बज रहा है और मेरे अंदर भावनाओं का ज्वार उमड़ रहा है। संयोग देखिए, शारदा सिन्हा के गानों के बिना अब छठ की कल्पना असंभव है और उन्होंने अनंत लोक की यात्रा पर जाने के लिए भी इसी पर्व को चुना। उनकी गायिकी हमारे बचपन, हमारे त्योहारों और हमारी यादों का वह अंश है, जिसे सुनते ही जैसे हम अपने गांव की गलियों में पहुंच जाते हैं। अपने बचपन के उन पलों में लौट जाते हैं, जहां हर खुशी और हर दर्द को उनकी आवाज में बांटा गया था।
उन्होंने अपनी मधुर आवाज से न सिर्फ लोक संगीत को ऊंचाइयों पर पहुंचाया बल्कि हर एक बिहारी के दिल में अपना घर भी बना लिया। उनके छठ के गीत सुनते ही ऐसा लगता है जैसे कोई अपनेपन का अहसास करा रहा हो, आंखें अपने आप भर आती हैं और रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उनके गीतों में दुख की टीस है, ममता का स्पर्श है और प्रेम का वह अदृश्य धागा है, जो सीधे दिल से जुड़ता है।
बिहार की लता मंगेशकर
शारदा सिन्हा को अक्सर बिहार की लता मंगेशकर कहा गया और यह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। जिस तरह लता जी ने अपनी आवाज से भारतीय संगीत को एक नई दिशा दी, उसी तरह शारदा सिन्हा ने बिहार के लोक संगीत को एक नई ऊंचाई दी। आज के दौर में उनके बिना बिहार के लोक संगीत की कल्पना अधूरी सी लगती है। उनके सुरों में एक ऐसी गहराई थी, जो केवल सुनाई नहीं देती बल्कि महसूस होती है। उनकी आवाज में छुपी संवेदनाएं और भावनाएं हर श्रोता के दिल को छू जाती हैं, जैसे कोई अपनी कहानियों को सुनाकर खुद का दर्द, खुशी और संघर्ष आपसे बांट रहा हो। उनकी गायकी में गजल जैसी शांत गहराई भी थी, जो दिल की गहराइयों को छूकर उसे अपने स्नेह में बांध लेती है।
ससुराल में संघर्षपूर्ण शुरुआत
शारदा सिन्हा की जीवन यात्रा संघर्ष, संकल्प और संगीत के प्रति उनकी अटूट निष्ठा की कहानी है। एक गांव की बहुरिया से लेकर बॉलीवुड की गायिका बनने तक के इस सफर ने साबित कर दिया कि सच्ची लगन और कड़ी मेहनत से किसी भी बाधा को पार किया जा सकता है। 1952 को बिहार के सुपौल जिले में जन्मीं शारदा सिन्हा का बचपन से ही संगीत के प्रति गहरा लगाव था। उनके पिता सुखदेव ठाकुर शिक्षा विभाग में अधिकारी थे और उन्होंने अपनी बेटी की इस रुचि को समझा। यही वजह थी कि उन्होंने शारदा को भारतीय नृत्य कला केंद्र में दाखिला दिलवाया, जहां उन्होंने संगीत की शिक्षा प्राप्त की और संगीत में स्नातक किया।
इसके बाद उनकी शादी राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर डॉक्टर बृजकिशोर सिन्हा से हुई। शारदा सिन्हा के ससुराल में संगीत के प्रति उनके जुनून का समर्थन नहीं था। उनकी सास नहीं चाहती थीं कि वे कहीं गाने के लिए जाएं। उन्हें गांव में भी गाने से रोका जाता था। इसके बावजूद शारदा सिन्हा ने अपने संगीत के सफर को जारी रखा और समय के साथ उनके परिवार ने भी उनका समर्थन करना शुरू कर दिया।
लोकगीतों से बॉलीवुड तक का सफर
पहला भोजपुरी गाना उन्होंने 1974 में गाया और फिर चार साल बाद 1978 में उन्होंने छठ गीत उगअ हो सुरुजदेव, भइल अरग के बेर गाया। बॉलीवुड में अपने सफर की शुरुआत शारदा सिन्हा ने एक ऐसे गीत से की जो आज भी सदाबहार है। सलमान खान की फिल्म 'मैंने प्यार किया' में "कहे तोसे सजना तोहरी सजनिया" गाने ने उन्हें देशभर में लोकप्रिय बना दिया। दिलचस्प बात यह है कि इस गाने के लिए उन्हें सिर्फ 76 रुपये की फीस मिली थी, लेकिन इस छोटी रकम के बदले में उन्होंने जो पहचान हासिल की, वह अमूल्य थी।
इसके बाद सलमान खान की एक और हिट फिल्म 'हम आपके हैं कौन' में उनका गाया "बाबुल जो तूने सिखाया" गीत शादी-ब्याह में विदाई के समय का एक स्थायी गीत बन गया। उनकी गायकी का जादू सिर्फ इन दो फिल्मों तक सीमित नहीं रहा। 2012 में गैंग्स ऑफ वासेपुर में उनके गाए गीत "तार बिजली से पतले हमारे पिया" को भी दर्शकों ने खूब पसंद किया। इतना ही नहीं, वेब सीरीज 'महारानी' में गाया उनका "निरमोहिया" गीत भी बेहद लोकप्रिय हुआ। शारदा सिन्हा ने हिंदी, भोजपुरी, मैथिली और बज्जिका भाषाओं में लोकगीतों का खजाना दिया है, जो सदाबहार बने हुए हैं। उनके गीतों में बिहार की मिट्टी की महक और वहां की संस्कृति की गहरी झलक मिलती है।
सम्मान और पहचान
शारदा सिन्हा ने न केवल बिहार बल्कि पूरे भारत के सांस्कृतिक परिदृश्य को अपनी आवाज़ से समृद्ध किया है। उनके योगदान के लिए उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री और पद्मभूषण से सम्मानित किया। बिहार में उनके गीतों के बिना कोई त्योहार पूरा नहीं माना जाता, खासकर छठ पूजा में उनके गीतों के बिना श्रद्धालुओं की आस्था अधूरी सी लगती है। उनकी आवाज में वह आत्मीयता और गहराई है जो सीधे श्रोताओं के दिलों तक पहुंचती है और उन्हें भाव-विभोर कर देती है।
शारदा सिन्हा इसलिए भी याद की जाएंगी कि उन्होंने कभी अपने उसूलों से समझौता नहीं किया और सस्ती लोकप्रियता के लिए कभी सतही गाने नहीं गाए। इस तरह उन्होंने भारतीय संगीत जगत में एक ऐसी धारा को पुनर्जीवित किया, जो अपनी मिट्टी से उपजी थी और जिसे नई पीढ़ी भूलती जा रही थी। उनकी आवाज ने लोकसंगीत को एक नया आयाम दिया है और उसे देश-विदेश में पहचान दिलाई।