मुगल काल में किसने की थी दिवाली मनाने की शुरुआत, लाल किले पर कैसे मनाया जाता था दीपों का त्योहार?
Mughals Diwali at Red Fort: मुगल सम्राट अकबर ने आगरा में शाही दिवाली मनाने की परंपरा की शुरुआत की थी। इस परंपरा को उनके उत्तराधिकारियों ने अंग्रेजों द्वारा मुगल साम्राज्य पर कब्जा करने तक जारी रखा।
Mughals Diwali at Red Fort: दिवाली जिसे दीपावली और दीपोत्सव भी कहते हैं। भारत का एक परंपरागत और खुशियों का त्योहार है। इसे मुगल काल में भी मनाया जाता था। आज भी विभिन्न धर्मों के लोग इसे बड़ी ही धूमधाम से मनाते हैं। जब-जब दिवाली आती है, तब-तब पुरानी दिल्ली के निवासियों के लिए बीते मुगल काल की यादें ताजा हो जाती हैं। मुगल काल में रोशनी का यह त्योहार सभी धर्मों के लोगों को एकजुट करता था।
लाल किला में रंग महल दिवाली के शाही समारोह जश्न-ए-चिराग़ां या रोशनी के त्योहार के लिए नामित केंद्र था। यहां उत्सव का रंग स्वयं मुगल शासक के अधीन होता था, जिसकी तैयारी करीब महीने भर पहले ही शुरू हो जाती थी। लाल किले के आसपास आतिशबाजी का आयोजन किया जाता था। महल को दीयों, झूमरों, चिरागदानों (दीपक स्टैंड) और फानूस (कुर्सी वाले झूमर) से रोशन किया जाता था। आगरा, मथुरा, भोपाल और लखनऊ से सबसे अच्छे हलवाई बुलाए जाते थे। विविध व्यंजन बनाने के लिए आसपास के गांवों से देसी घी की व्यवस्था की जाती थी।
शाही उत्सव
दिल्ली के इतिहासकार आरवी स्मिथ के मुताबिक, मुगल सम्राट अकबर ने आगरा में शाही दिवाली मनाने की परंपरा की शुरुआत की थी। इस परंपरा को उनके उत्तराधिकारियों द्वारा 1857 के विद्रोह के बाद अंग्रेजों द्वारा मुगल साम्राज्य पर कब्जा करने तक जारी रखा गया।
स्मिथ के मुताबिक, जब शाहजहाँ ने राजधानी को दिल्ली स्थानांतरित किया तो लाल किले के अंदर उसी जोश के साथ त्योहार मनाया जाने लगा, जैसा आगरा में मनाया जाता था। उन्होंने 'आकाश दीया' की शुरुआत कर दिल्ली की दिवाली उत्सव में एक और विशेषता जोड़ दी थी। आकाश दीया, 40 गज ऊंचे खंभे पर रखा एक विशाल दीपक, किले में स्थापित किया गया था और दिवाली पर जलाया जाता था। दीपक ने न केवल किले को रोशन करता था बल्कि चांदनी चौक तक भी अपनी चमक बिखेरता था।
स्मिथ के मुताबिक आकाश दीया में लगभग चार टीले (100 किलोग्राम से अधिक) कपास के बीज का तेल या सरसों का तेल डाला जाता था और बर्तन में तेल और कपास (बत्ती) डालने के लिए बड़ी सीढ़ियों का उपयोग किया जाता था।
रईस और अमीर व्यापारी भी मनाते थे दिवाली
इतिहासकार के मुताबिक, उस वक्त के रईस और अमीर व्यापारी भी अपनी हवेलियों और मकानों को मिट्टी के दीयों से रोशन करते थे। इसके अलावा, हिंदू परिवार चांदनी चौक के बीच से गुजरने वाली नहर पर दीये रखते थे। गुरुद्वारा सीसगंज में भी धूमधाम से दिवाली मनाई जाती थी। सिख समुदाय के लोग तेल देते थे जबकि मुसलमान कपास (बत्ती) देते थे। शहर के चारदीवारी क्षेत्र के निवासी ओम प्रकाश ने सात साल पहले हिन्दुस्तान टाइम्स से कहा था, "हमने अपने बुजुर्गों से सुना है कि चांदनी चौक से लेकर फतेहपुरी तक का पूरा इलाका पानी में लौ के प्रतिबिंब के कारण चमकता था।"
किले में लक्ष्मी पूजन
स्तंभकार फिरोज बख्त अहमद के मुताबिक, अंतिम मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के शासनकाल के दौरान लाल किले में एक विशेष लक्ष्मी पूजा का आयोजन किया जाता था। पूजा सामग्री चांदनी चौक के कटरा नील से मंगवाई गई थी। अहमद के अनुसार, “आतिशबाज़ी जामा मस्जिद के पीछे पाइवालान क्षेत्र से की जाती थी। बड़ी संख्या में लोग किले के बाहर मैदान में आयोजित भव्य आतिशबाजी देखने के लिए इकट्ठा होते थे।
खील, खांड, बताशे, खीर और मेवा सहित पारंपरिक दिवाली मिठाइयाँ महल में कुलीन और आम लोगों दोनों के लिए तैयार की जाती थीं। यह बहादुरशाह जफर के सेना जनरलों और अधिकारियों की देखरेख में आयोजित किया जाता था। अहमद के मुताबिक, शाहजहाँ अपनी रानियों, राजकुमारों और राजकुमारियों को महरौली भेजता था और वे कुतुब मीनार से आतिशबाजी देखते थे।
सामुदायिक जुड़ाव
विलियम डेलरिम्पल की किताब, 'द लास्ट मुगल: द फॉल ऑफ डेल्ही, 1857' में कहा गया है, "दिवाली पर जफर खुद को सात प्रकार के अनाज, सोना, मूंगा आदि से तौलते थे और गरीबों के बीच उनके वितरण का निर्देश देते थे।" इस विशेष अवसर पर हिंदू अधिकारियों को उपहार भी दिये जाते थे। किले में शाही दिवाली उत्सव हमेशा से सांप्रदायिक सद्भाव का जश्न मनाने का एक अवसर रहा है। शाहजहानाबाद के बुजुर्ग निवासी याद करते हैं कि कैसे मुस्लिम पड़ोसियों को मिठाई, खील-बताशे और पटाखों से भरी थाली भेजी जाती थी।
किनारी बाजार निवासी, आत्म प्रकाश अग्रवाल ने कहा, दिवाली त्योहार को सभी समान उत्साह के साथ मनाते थे। उत्सव एक महीने पहले ही शुरू हो जाता था। महिलाएँ घर पर मिठाइयाँ बनाना शुरू कर देती थीं। नारियाल बर्फी, बेसन, या मूंग के लड्डू पहले से तैयार और स्टॉक किए जाते थे और रिश्तेदारों और दोस्तों के बीच बांटे जाते थे।