जब मंडल की लड़ाई में यादवों के गढ़ में सेंधमारी करने पहुंचे थे आनंद मोहन, जल उठा था मधेपुरा
Anand Mohan Story: बिहार में एक चर्चित कहावत है 'रोम पोप का और मधेपुरा गोप का।' यानी मधेपुरा से कोई यादव ही जीत सकता है। आनंद मोहन ने इसी को तोड़ने के लिए मधेपुरा से चुनाव लड़ने का ऐलान किया था।

बात 1991 की है। केंद्र में तब चंद्रशेखर की सरकार थी। कुछ महीनों पहले ही जनता दल में विभाजन हुआ था। चंद्रशेखर अलग समाजवादी जनता पार्टी बनाते हुए कांग्रेस के सहयोग से देश के नए प्रधानमंत्री बन चुके थे। उससे पहले मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने वाले विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुवाई वाली राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार गिर चुकी थी। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री और जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव ने राम मंदिर निर्माण के लिए रथ यात्रा कर रहे लालकृष्ण आडवाणी को बिहार में गिरफ्तार करवा लिया था। इससे खफा बीजेपी ने वीपी सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। इसके बाद देश में मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई छिड़ चुकी थी।
जनता दल के विधायक थे आनंद मोहन:
इसी पृष्ठभूमि में आनंद मोहन, जो उस वक्त जनता दल के टिकट पर महिषी से बिहार विधान सभा के लिए सदस्य चुने गए थे, ने जनता दल से अपने को अलग कर लिया और चंद्रशेखर के गुट में चले गए। आनंद मोहन उन नेताओं की टीम में शामिल हो गए, जो वीपी सिंह द्वारा ओबीसी को दिए गए 27 फीसदी आरक्षण का विरोध कर रहे थे। उस वक्त आनंद मोहन बिहार में मंडल के खिलाफ छिड़ी लड़ाई का युवा चेहरा बन गए थे, जिन्हें राजपूतों के अलावा ब्राह्मण समुदाय का भी साथ मिल रहा था।
अंडरग्राउंड आर्मी चलाते थे आनंद मोहन:
आनंद मोहन तब एक तथाकथित अंडरग्राउंड कुख्यात गिरोह भी चला रहे थे। ये गिरोह उन लोगों को निशाना बनाता था, जो ओबीसी आरक्षण का समर्थन करते थे। आनंद मोहन पिछड़ों की काट के रूप में अगड़ी जाति के बीच एक बड़ा चेहरा बनते जा रहे थे। तभी कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया और चंद्रशेखर की केंद्र सरकार गिर गई। अब देश में 1991 का लोकसभा चुनाव होने वाले थे।
यादवों के गढ़ में दी थी चुनौती:
आनंद मोहन सिंह ने अपनी इसी छवि का लाभ उठाने की कोशिश की और बिहार में यादवों का गढ़ कहे जाने वाले मधेपुरा से चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। बिहार में एक चर्चित कहावत है 'रोम पोप का और मधेपुरा गोप का।' यानी मधेपुरा से कोई गोप यानी यादव ही जीत सकता है। आनंद मोहन ने इसी नारे को तोड़ने के लिए मधेपुरा से चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया था लेकिन चंद्रशेखर की पार्टी ने उन्हें अपना आधिकारिक उम्मीदवार नहीं बनाया था। निर्दलीय उतरे आनंद मोहन को बाद में चंद्रशेखर की पार्टी का समर्थित उम्मीदवार माना गया था।
राजपूतों-ब्राह्मणों के सिरमौर बन चुके थे आनंद मोहन:
अब मधेपुरा में लड़ाई जनता दल के उम्मीदवार रमेंद्र कुमार रवि, आनंद मोहन और कांग्रेस की मंजू यादव के बीच त्रिकोणात्मक हो चली थी लेकिन चुनाव से ऐन पहले वहां के हालात बदल चुके थे। एक तरफ आनंद मोहन की अगुवाई में उनकी सेना (राजपुत और ब्राह्मण समुदाय के लोग) पिछड़ी जाति के यादवों और अन्य को निशाना बना रही थी, तो दूसरी तरफ युवा यादव नेता पप्पू यादव, जो पहली बार सिंहेश्वर सीट से निर्दलीय जीतकर विधायक बने थे, अगड़ी जाति खासकर ओबीसी आरक्षण का विरोध कर रहे लोगों को निशाना बना रहे थे।
लड़ाई आनंद मोहन बनाम पप्पू यादव की हो गई:
आरक्षण की लड़ाई में तब मधेपुरा जल उठा था। इस आग में दो चेहरे दो तरफ आमने-सामने थे। लड़ाई अब पप्पू यादव बनाम आनंद मोहन की हो चुकी थी। इस बीच पटना में आरक्षण के समर्थन में एक रैली हुई थी, जिसमें आरक्षण विरोधियों ने आरक्षण समर्थकों की खूब पिटाई कर दी थी। इससे आग-बबूला पप्पू यादव अपने दल-बल के साथ मधेपुरा से पटना कूच कर चुके थे लेकिन रास्ते में गंगा पार करते ही मोकामा में उनकी भिड़ंत दिलीप सिंह से हो गई। दिलीप सिंह अनंत सिंह के बड़े भाई थे और स्थानीय स्तर के बड़ा माफिया थे।
तब जल उठा था मधेपुरा:
कहा जाता है कि 1991 के लोकसभा चुनाव से पहले हुई इस लड़ाई में दोनों तरफ से खूब फायरिंग हुई थी। इससे 100 किलोमीटर दूर पटना का सियासी गलियारा दहल उठा था। इसी लड़ाई में अफवाह उठी थी कि पप्पू यादव की हत्या कर दी गई है। इस अफवाह से मधेपुरा और पूर्णिया के इलाकों में हड़कंप मच गया था। मधेपुरा सियासी जंग की जगह खूनी जंग का मैदान बन चुका था। पप्पू यादव के मारे जाने की खबर के बाद मधेपुरा में दंगे होने लगे थे। तभी आनंद मोहन ने उसका सियासी लाभ उठाना चाहा और कहा कि ये दंगे तभी खत्म होंगे, जब वह मधेपुरा से चुनाव जीतेंगे और 'रोम पोप का, मधेपुरा गोप का' नाम का मिथक को तोड़ेंगे।
बाजी शरद यादव मार ले गए:
बाद में 12 मई 1991 को चुनाव से पहले आनंद मोहन को सीमा सुरक्षा बल के जवानों ने कई घंटों तक हिरासत में रख लिया था। वो हथियारों के साथ खुला घूम रहे थे। उस वक्त कुल 15 यादव उम्मीदवार मैदान में थे। आनंद मोहन टक्कर जनता दल के उम्मीदवार को टक्कर दे रहे थे, तभी 11 जून, 1991 को एक प्रत्याशी की हत्या कर दी गई, जिससे चुनाव टाल दिया गया। बाद में जब चुनाव हुए तो शरद यादव की एंट्री हुई और वो यहां से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे। तब आनंद मोहन दूसरे नंबर पर आए थे। इसी चुनाव में पप्पू यादव पूर्णिया से पहली बार निर्दलीय सांसद चुने गए थे।
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