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कोटा के अंदर कोटा को सुप्रीम कोर्ट ने दी मंजूरी, SC-ST के अंदर सब कैटेगरी बनाने का राज्यों को मिला अधिकार

इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने ईवी चिन्नैया मामले में 2004 के फैसले को पलट दिया जिसमें कहा गया था कि उप-वर्गीकरण की अनुमति नहीं है क्योंकि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति सजातीय वर्ग बनाते हैं।

Himanshu Jha लाइव हिन्दुस्तान, नई दिल्ली।Thu, 1 Aug 2024 12:41 PM
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सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कोटा के अंदर कोटा केस में बड़ा फैसला सुनाया है। भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सात जजों की संविधान पीठ ने  6:1 के बहुमत से फैसला सुनाते हुए कहा कि पिछड़े वर्गों में हाशिए पर जा चुके लोगों के लिए अलग से कोटा देने के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का उप-वर्गीकरण करना जायज है। सिर्फ जस्टिस बेला त्रिवेदी ने इस पर असहमति जताई है।

इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने ईवी चिन्नैया मामले में 2004 के फैसले को पलट दिया जिसमें कहा गया था कि उप-वर्गीकरण की अनुमति नहीं है क्योंकि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति सजातीय वर्ग बनाते हैं।

सब कैटेगरी पर निर्णय की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है। साथ ही राज्यों को पिछड़ेपन की सीमा के बारे में तय किए गए आधार पर अपने निर्णय को उचित ठहराना होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोटा के लिए एससी, एसटी में उप-वर्गीकरण का आधार राज्यों द्वारा मानकों एवं आंकड़ों के आधार पर उचित ठहराया जाना चाहिए। न्यायमूर्ति बीआर गवई ने अलग दिए फैसले में कहा कि राज्यों को एससी, एसटी में क्रीमी लेयर की पहचान करनी चाहिए और उन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर करना चाहिए।

भारत के मुख्य न्यायाधीश धनंजय वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति बीआर गवई, विक्रम नाथ, पंकज मिथल, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा ने इसके पक्ष में फैसला सुनाया। सिर्फ न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी ने असहमति जताई।

आपको बता दें कि इस मामले को 2020 में पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा बड़ी पीठ को भेजा गया था, जिसमें कहा गया था कि चिन्नैया मामले में 2004 के फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता हो सकती है।

पीठ में न्यायमूर्ति बी आर गवई, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी, न्यायमूर्ति पंकज मिथल, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र मिश्रा शामिल थे। पीठ 23 याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी जिनमें से मुख्य याचिका पंजाब सरकार ने दायर की है जिसमें पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को चुनौती दी गयी है।

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