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SC में कोटे के अंदर कोटा लागू हुआ तो BJP को क्या लाभ, यूपी-बिहार से समझें मास्टर स्ट्रोक में छिपे राज़

Quota within Quota in SC Reservation: अगले साल लोकसभा चुनाव होने हैं। बीजेपी की नजर दलित समाज के उस वर्ग के वोट बैंक पर है, जो परंपरागत रूप से गैर भाजपाई वोट रहे हैं और सबसे ज्यादा आरक्षण के लाभुक भी

Pramod Praveen लाइव हिन्दुस्तान, नई दिल्लीFri, 22 Sep 2023 12:25 PM
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SC में कोटे के अंदर कोटा लागू हुआ तो BJP को क्या लाभ, यूपी-बिहार से समझें मास्टर स्ट्रोक में छिपे राज़

Quota within Quota in SC Reservation: केंद्र सरकार अनुसूचित जाति के तहत दिए जा रहे आरक्षण के कोटे में भी कोटा लागू करने पर विचार कर रही है। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक, इससे संबंधित प्रस्ताव केंद्र सरकार की टेबल पर है और कई प्रमुख मंत्रालय इस योजना पर चर्चा कर रहे हैं। इस प्रस्ताव के तहत एससी कैटगरी की कुछ जातियों को उसी आरक्षण सीमा में अलग से आरक्षण देने की व्यवस्था की जा सकती है। अगर एससी कोटे के अंदर कोटा लागू किया जाता है तो सरकार को इससे पहले संविधान के अनुच्छेद 341 में संशोधन करना पड़ सकता है। 

अब सियासी गलियारों में चर्चा और अटकलों का बाजार गर्म है कि आखिर ऐसा करने से केंद्र की सत्ताधारी बीजेपी को क्या फायदा हो सकता है। दरअसल, अगले साल लोकसभा चुनाव होने हैं। बीजेपी की नजर दलित समाज के उस वर्ग के वोट बैंक पर है, जो परंपरागत रूप से गैर भाजपाई वोट रहे हैं और सबसे ज्यादा आरक्षण के लाभुक भी रहे हैं। ऐसे में बीजेपी उन तमाम जातियों को खुश करना चाहती है और अपने पाले में बांधे रखना चाहती है जो पिछले कुछ चुनावों में उसकी तरफ छिटककर आए हैं लेकिन आरक्षण की व्यवस्था में लाभ उठाने में अभी तक पिछड़े बने हुए हैं।

यूपी से समझिए मास्टर स्ट्रोक में छिपे राज
चुनावी विश्लेषणों से स्पष्ट है कि पिछले कुछ सालों में दलित समुदाय के एक बड़े हिस्से का झुकाव बीजेपी की तरफ हुआ है। इनमें उत्तर प्रदेश में गैर जाटव अनुसूचित जातियां विशेष हैं। जाटव समुदाय परंपरागत रूप से मायावती की बहुजन समाज पार्टी का वोट बैंक रहा है, जबकि गैर जाटव जातियों के वोट समय, काल, परिस्थितियों और चुनावी-सामाजिक समीकरणों के मुताबिक बंटते रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में करीब 22 फीसदी दलित आबादी है। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा जाटवों का है। दलित जातियों में जाटवों की आबादी 54 फीसदी है, जो उसे उस वर्ग को रौबदार समाज बनाता है। मायावती इसी बिरादरी से ताल्लुक रखती हैं, इसलिए स्वभाविक तौर पर इस समाज का झुकाव बसपा की तरफ है। गैर जाटवों में पासी, धोबी, कोरी, खटिक, धानुक आदि जातियां आती हैं, जिनकी हिस्सेदारी 46 फीसदी है। इनमें भी पासी की आबादी 16 फीसदी और धोबी की आबादी करीब 6 फीसदी है।

कैसे बदला दलित जातियों का ट्रेंड
राम मंदिर आंदोलन को छोड़ दें तो बसपा के स्थापना काल से ही जाटवों और गैर जाटवों का झुकाव बसपा की तरफ रहा है लेकिन जब से बीजेपी ने मायावती पर यह आरोप लगाना शुरू किया कि उसके राज में सिर्फ जाटवों को लाभ पहुंचता है और गैर जाटव आरक्षण का भी लाभ उठा पाने में पीछे हैं, तब से गैर जाटवों का झुकाव भगवा दल की तरफ होने लगा। बीजेपी के हिन्दुत्व कार्ड ने भी इसमें सेंधमारी की है।

CSDS की रिपोर्ट के मुताबिक,  2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में मायावती को करीब 86 फीसदी जाटव वोट मिले थे, जबकि 9 फीसदी जाटव वोट भाजपा को मिले, जो उस समय तक सर्वाधिक था। इसके अलावा तीन फीसदी जाटव वोट सपा को भी मिले। गैर जाटव वोटों पर गौर करें तो 2017 में बीजेपी को 31 फीसदी गैर जाटव वोट मिले। यह पिछले चुनाव की तुलना में 20 फीसदी ज्यादा था, जबकि बसपा को पिछले चुनाव की तुलना में गैर जाटव वोट के हिस्से में दो फीसदी का नुकसान उठाना पड़ा था। 2007 में बीजेपी को सिर्फ 9 फीसदी ही गैर जाटव वोट मिले थे। स्पष्ट है कि गैर जाटव वोटरों में बीजेपी ने बड़ी सेंधमारी की है।

2022 में किधर था दलित वोटरों का रुझान?
CSDS के चुनाव बाद अध्ययन के अनुसार, बसपा का कुल दलित वोट शेयर 2007 में लगभग 16% गिरा था जो 2022 में घटकर 9.96% हो गया। यानी 2022 तक आते-आते बसपा के लिए चुनौती दोहरी हो गई है। पहली तो जाटव वोट बैंक को बरकरार रखना और दूसरी, गैर-जाटव वोट बैंक को फिर से जोड़ना। बसपा सुप्रीमो ने भी इस बात को स्वीकार किया है। 27 मार्च, 2022 को जारी एक प्रेस बयान में उन्होंने कहा, ''मेरी जाति के दलितों के अलावा गैर-जाटव दलितों को बीजेपी के हिंदुत्व से निकालकर बसपा से जोड़ना है।''

बिहार का क्या हाल
बिहार के दलित वोट बैंक पर भी बीजेपी ने अपना दबदबा बढ़ाया है। राज्य की 40 सुरक्षित विधानसभा सीटों में से 11 पर बीजेपी ने जीत दर्ज की है। 2015 की तुलना में बीजेपी की यह ताकत दोगुनी हुई है। राज्य में अनुसूचित जाति की आबादी करीब 16 फीसदी है। इसमें 5.5 फीसदी पासवान है (जिसका नेतृत्व लोजपा करती है), जबकि करीब 4 फीसदी रविदास है। चार फीसदी के ही करीब मुसहर जाति भी है, जिसका नेतृत्व जीतनराम मांझी करते हैं। इनके अलावा पासी, धोबी, डोम, मेहतर,नट, तुरिया, रजवार जातियां भी इस समूह में आती हैं।

लोकनीति-सीएसडीएस के अनुसार, बिहार में एनडीए के लिए एससी वोट शेयर 2019 में 76 प्रतिशत से घटकर 2020 में 35 फीसदी पर आ गया। ऐसा पासवान वोटों के एलजेपी में स्थानांतरित होने के कारण हुआ था, जिसने अलग से चुनाव लड़ा था। अनुसूचित जाति में, एनडीए को सबसे ज्यादा वोट मुसहर समुदाय से मिले, जिसका प्रतिनिधित्व जीतन राम मांझी की हिंदुस्तान अवाम मोर्चा करती है। बिहार में भी दलित आरक्षण का अधिकांश लाभुक पासवान, रविदास और पासी जातियों से रहे हैं, जबकि धोबी, तुरिया, नट, मुसहर आदि जातियां पिछड़ी रही हैं। पासवान समुदाय जहां लोजपा का वोट बैंक रहा है वहीं, रविदास और पासी राजद और जेडीयू के वोट बैंक रहे हैं।

बता दें कि ओबीसी में कोटे के अंदर कोटा के लिए केंद्र सरकार पहले ही जस्टिस रोहिणी आयोग गठित कर चुकी है और ये आयोग अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंप चुकी है। इसे भी गैर यादव ओबीसी वोट बैंक में सेंधमारी के रूप में देखा जा रहा है। साफ है कि बीजेपी इन कवायदों से गैर यादव और गैर जाटव जातियों को अपने पाले में करने की कोशिशों में जुटी है।

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