KHAM से भी आगे BJP का PAKK फार्मूला, गुजरात के चुनावी नतीजे बता रहे नए समीकरण
2022 के चुनाव में तीनों पार्टियों ने मुसलमानों को बहिष्कृत या हाशिए पर रखा है। जैसे ही गुजरात में भाजपा का प्रभुत्व हुआ है, कांग्रेस ने अपने उम्मीदवारों के बीच मुसलमानों का अनुपात भी आधा कर दिया है।
हालिया गुजरात चुनाव-2022 के नतीजों के आधार पर तीन मुख्य पार्टियों के उम्मीदवारों और विधायकों की जातीय संरचना का विश्लेषण करने से पता चलता है कि इस चुनाव में सभी पार्टियां एक जैसी रहीं, जबकि अतीत में ऐसा कभी नहीं रहा है।
तीनों मुख्य पार्टियों- भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी), कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) ने लगभग एक जैसे फार्मूले (छोटे-मोटे बदलव के साथ) के तहत ही चुनावी मैदान में उम्मीदवारों को उतारा था। आप ने जहां भाजपा और कांग्रेस की तुलना में सबसे ज्यादा पटेल उम्मीदवारों (आप 28%, बीजेपी 25% और कांग्रेस 22%)को मैदान में उतारा, तो कांग्रेस ने भाजपा और आप की तुलना में सबसे ज्यादा ओबीसी उम्मीदवारों (कांग्रेस 39% , बीजेपी 35% और आप 32%) को मैदान में उतारा। सवर्णों में 17 % उम्मीदवारों बीजेपी के, 14% कांग्रेस के और 13% आप के उम्मीदवार थे।
ओबीसी के मामले में सभी दलों में जातीय विविधता देखी गई। आप ने 11 ओबीसी जातियों का प्रतिनिधित्व किया तो बीजेपी ने 16 और कांग्रेस ने 17 जातीय समूहों का प्रतिनिधित्व किया है। गुजरात में ओबीसी के तीन प्रमुख जातियों कोली, क्षत्रिय और ठाकोर को लगभग तीनों दलों में बराबर प्रतिनिधित्व मिला।
सबसे ज्यादा भिन्नता बीजेपी में मुस्लिम उम्मीदवारों को लेकर थी। बीजेपी ने एक भी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया था, जबकि कांग्रेस में छह और आप ने केवल तीन मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, जिनसे कोई खास फर्क नहीं पड़ा।
चार प्रमुख जातीय समूह का उभार:
गुजरात विधानसभा में जीतकर आए सभी विधायकों की जातीय संरचना चार प्रमुख कैटगरी का निर्माण करते हैं। चुनावी नतीजों और जीते विधायकों के जातिगत आंकड़ों के मुताबिक सर्वाधिक संख्या में पटेल (18%), अनुसूचित जनजाति (एसटी) (15%), कोली (11.2%), और क्षत्रिय (11%) जीतकर आए हैं। हालांकि, एसटी निश्चित रूप से किसी एक जातीय समूह का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं, लेकिन यह ध्यान देने योग्य है कि वे गुजरात विधानसभा में प्रतिनिधित्व करने वाले दूसरे सबसे बड़े समुदाय हैं। इन चुनावों में बीजेपी ने एसटी की 27 में से 23 सीटों पर जीत हासिल की है।
बीजेपी के विजयी विधायकों में भी 27 फीसदी विधायक पटेल समुदाय से आते हैं। इसके बाद एसटी (15%), कोली (12%), क्षत्रिय (8%) आते हैं। ब्राह्मण और राजपूत समुदाय से बीजेपी के 6-6% विधायक हैं। यानी बीजेपी के PAKK (पटेल, आदिवासी, कोली और क्षत्रिय) फार्मूले ने उसे जबर्दस्त चुनावी जीत दिलाई है।
गुजरात के चुनावी इतिहास में एक समय ऐसा था, जब सभी पार्टियों की अलग-अलग जातीय आधार और उम्मीदवारों की प्रोफाइल थी, जो उनके वोट बैंक की ओर इशारा करती थी। 1980 के दशक में, कांग्रेस के मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी ने KHAM (कोली क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम) समीकरण दिया था और उस रणनीति के साथ बड़ी जीत दर्ज की थी।
बीजेपी पारंपरिक अभिजात वर्ग और पटेल जैसे अन्य प्रमुख समूहों के साथ अधिक जुड़ी हुई थी। अब, दोनों पार्टियों (कांग्रेस और बीजेपी) में पटेलों और उच्च जाति के उम्मीदवारों के आनुपातिक प्रतिनिधित्व के साथ सामाजिक और जातीय भेदभाव के दिन लदते दिख रहे हैं। कुछ हद तक आप ने भी इसी तरह का प्रदर्शन किया है।
ओबीसी की लंबी उछाल:
जाति-आधारित आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि ओबीसी और पटेल समुदायों ने उच्च जातियों और एक हद तक मुसलमानों के अनुपात में गुजरात विधानसभा में अपनी मौजूदगी बढ़ा ली है। हालांकि, ओबीसी समुदाय में तीन जातियों (कोली, क्षत्रिय और ठाकोर) का ही प्रतिनिधित्व बढ़ा है। पटेल भी लेउवा और कड़वा पटेल में विभाजित हैं। अंजना पटेल ओबीसी मानी जाती हैं।
सत्ता संघर्ष में ये नाटकीय और जातीय परिवर्तन 1970 के दशक में हुए, जब कांग्रेस के वोट बैंक से उच्च जातियां लगातार छिटकती चली गईं। इधर, 1990 के दशक के अंत में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से इस दल में भी उनका प्रतिनिधित्व लगातार कम होता जा रहा है।
गुजरात चुनाव में एक उल्लेखनीय बात ये सामने आई है कि यहां मुस्लिम प्रतिनिधित्व का पूर्णत: अभाव है। नई विधानसभा में कांग्रेस के टिकट पर सिर्फ एक मुस्लिम जीतकर विधायक बने हैं। 2022 के चुनाव में तीनों पार्टियों ने मुसलमानों को बहिष्कृत या हाशिए पर रखा है। जैसे ही गुजरात में भाजपा का प्रभुत्व हुआ है, कांग्रेस ने अपने उम्मीदवारों के बीच मुसलमानों का अनुपात भी आधा कर दिया है।