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जिस संशोधन से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को मिला अल्पसंख्यक का दर्जा, उसे नहीं मानती सरकार? SC ने पूछे सवाल

न्यायालय ने केंद्र के इस रुख पर आश्चर्य व्यक्त किया कि वह एएमयू अधिनियम में 1981 के उस संशोधन को स्वीकार नहीं करता है, जिसके जरिए प्रभावी रूप से संस्थान को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया था।

Amit Kumar पीटीआई, नई दिल्लीThu, 25 Jan 2024 06:53 AM
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अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर एक सुप्रीम कोर्ट (SC) में कई दिनों से सुनवाई चल रही है। शीर्ष अदालत ने बुधवार को सॉलिसिटर-जनरल तुषार मेहता की इस दलील पर सवाल उठाया कि सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम में संसद द्वारा 1981 में किए गए संशोधन को स्वीकार क्यों नहीं किया है। कोर्ट ने कहा कि केंद्र सरकार ऐसा कोई रुख नहीं अपना सकती है। न्यायालय ने केंद्र के इस रुख पर आश्चर्य व्यक्त किया कि वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) अधिनियम में 1981 के उस संशोधन को स्वीकार नहीं करता है, जिसके जरिए प्रभावी रूप से संस्थान को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया था। न्यायालय ने यह भी कहा कि संसद ने जो किया है, उस पर केंद्र को कायम रहना होगा।

प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात-सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि संसद भारतीय संघ के तहत एक ‘शाश्वत एवं अटूट निकाय’ है। एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे से संबंधित जटिल प्रश्न पर विचार कर रही संविधान पीठ ने केंद्र की ओर से पैरवी कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा, ‘‘आप संसद के संशोधन को कैसे स्वीकार नहीं कर सकते?’’ न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, ‘‘श्रीमान सॉलिसिटर, संसद भारतीय संघ के तहत एक शाश्वत एवं अविनाशी निकाय है। भले ही कोई भी सरकार भारत संघ के मुद्दे का प्रतिनिधित्व करती हो, संसद का मुद्दा शाश्वत, अविभाज्य और अविनाशी है तथा हम भारत सरकार को यह कहते हुए नहीं सुन सकते कि संसद ने जो संशोधन किया है, वह कुछ ऐसा है, जिस पर मैं सहमत नहीं हूं। आपको इस पर कायम रहना होगा।’’

संविधान पीठ में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ के अलावा न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा शामिल थे। पीठ ने कहा कि सरकार के पास संशोधन का रास्ता अपनाने और कानून में फिर से संशोधन करने का विकल्प है। न्यायमूर्ति खन्ना ने पूछा, ‘‘यह संसद द्वारा (1981 में) किया गया एक संशोधन है। क्या सरकार इस संशोधन को स्वीकार कर रही है?’’

मेहता ने जवाब दिया, ‘‘मैं नहीं (स्वीकार करता)।’’ कानून अधिकारी ने कहा कि वह ‘‘ए बनाम बी’’ के मामले पर बहस नहीं कर रहे हैं, बल्कि वह सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ के समक्ष संवैधानिक सवालों का जवाब दे रहे हैं। उन्होंने जोर देकर कहा, ‘‘विचाराधीन संशोधन को (इलाहाबाद) उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी और वहां एक फैसले में यह घोषणा की गई थी कि यह ए, बी, सी, डी के आधार पर असंवैधानिक है और एक विधि अधिकारी के रूप में यह कहने का मेरा अधिकार और कर्तव्य है कि यह दृष्टिकोण सही प्रतीत होता है।’’

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जनवरी 2006 में एएमयू (संशोधन) अधिनियम, 1981 के उस प्रावधान को रद्द कर दिया था जिसके द्वारा विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक दर्जा दिया गया था। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, ‘‘संसद ने जो किया है, उस पर आपको कायम रहना होगा। संसद सर्वोच्च है। कानून बनाने के कार्य में संसद निस्संदेह सर्वोच्च है। संसद हमेशा किसी कानून में संशोधन कर सकती है, ऐसे में एक विधि अधिकारी कह सकता है कि मेरे पास एक संशोधित कानून है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘क्या हम केंद्र सरकार के किसी अंग को यह कहते हुए सुन सकते हैं कि संसदीय संशोधन के बावजूद, मैं इस संशोधन को स्वीकार नहीं करता।’’

मेहता ने कहा कि वह 2006 के उच्च न्यायालय के फैसले का समर्थन कर रहे हैं। इस पर पीठ ने पूछा, ‘‘आप कैसे कह सकते हैं कि मैं किसी संशोधन की वैधता को स्वीकार नहीं करता?’’ सॉलिसिटर जनरल ने सवाल का जवाब देते हुए कहा, ‘‘क्या एक विधि अधिकारी से यह कहने की उम्मीद की जाएगी कि आपातकाल के दौरान भारत के संविधान में जो भी संशोधन किए गए थे, वे केवल इसलिए सही थे, क्योंकि वे संसद द्वारा किए गए थे।’’ प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि इसीलिए 44वां संशोधन अधिनियम, 1978 लाया गया।

उन्होंने कहा, ‘‘44वां संशोधन केवल इसीलिए आया था।’’ यह संशोधन अधिनियम आपातकाल की पृष्ठभूमि में जनता पार्टी सरकार द्वारा लाया गया था। मेहता ने उच्च न्यायालय के फैसले का हवाला दिया और कहा कि 1981 के संशोधन अधिनियम को रद्द कर दिया गया था और इसलिए, यह अब कानून की किताब में नहीं है। उन्होंने कहा, ‘‘सरकार की ओर से एक हलफनामा दायर किया गया है। यह मेरा रुख नहीं है...।’’ एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के पक्ष में एक पक्ष की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने बताया कि कैसे तत्कालीन अटॉर्नी जनरल ने आपातकालीन प्रावधान का बचाव किया था। मामले में दलीलें पूरी नहीं हुई हैं, इसलिए अब इसे 30 जनवरी को जारी रखा जाएगा।

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