1857 की क्रांति की कहानी: सैनिक से संन्यासी तक ने फूंका था विद्रोह का बिगुल, केंद्र बना था मेरठ
भारत की स्वतंत्रता के लिए 1857 की क्रांति पहला आंदोलन था, जिसने अंग्रेजों की चूलें हिलाने का काम किया था। इस आंदोलन में संन्यासी से लेकर सैनिक तक सभी ने अपने योगदान दिया था और इसका केंद्र मेरठ बना था।

प्रोफेसर पवन कुमार शर्मा
युग-युगीन भारतीय परम्परा में मेरठ क्षेत्र की भूमिका सदैव ही महत्वपूर्ण रही है। सतयुग में सांस्कृतिक दृष्टिकोण से विस्तार के लिए भगवान परशुरामजी ने इसे अपना केंद्र बनाया और पुरा-महादेव मंदिर उसका जीवंत साक्षी है। त्रेता में मय दानव की नगरी के रूप में मयराट के नाम से इसका उल्लेख पुराणों में बहुतायत में उपलब्ध है। द्वापर में सभ्यतागत विकास और उसके पतन में यह क्षेत्र सक्रिय भूमिका निर्वहन किया है। बुद्धिजीवियों के अनुसार आधुनिक दृष्टिकोण से अग्रसर होने के लिए भी सर्वप्रथम इसी क्षेत्र ने पहल की, इतिहास इसका साक्षी है।
अंग्रेजों ने 1757 से भारत की जो लूट प्रारम्भ की, उससे उनका पेट नहीं भरा। किन्तु ईस्ट इंडिया कम्पनी अवश्य कंगाली के कगार पर पहुंच गई। उस कंगाली से कैसे मुक्त हुआ जाए, इस को दृष्टिगत रखकर तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने भारतीय राजाओं (हिन्दू-मुस्लिम दोनों) के गोद लेने के अधिकार को अमान्य करते हुए, उन राजे और रजवाड़ों को कम्पनी के आधिपत्य में लेना प्रारम्भ कर दिया जोकि निःसंतान थे। कम्पनी के इस हड़पकारी सिद्धांत से भारतीय राजे-महाराजों में न केवल हड़कम्प मच गया बल्कि उन्होंने कम्पनी के इस कृत्य को उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप के रूप में लिया। 1853 में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने भारत को लंबे समय तक कम्पनी के आधिपत्य में रखने के लिए एक कमीशन बनाया जोकि ब्रिटिश पार्लियामेंट्री कमीशन के नाम से जाना जाता है। इसकी अनुशंसाओं में भी भारत के दैनंदिन जीवन में हस्तक्षेप की बातें थीं।
इन दोनों विषयों को ध्यान में रखकर राजे रजवाड़ों ने भी अपने-अपने क्षेत्रों में अंग्रेजों के विरुद्ध सम्मेलनों के आयोजन किए। वहीं दूसरी ओर समाज को अंग्रेजों के कुत्सित कृत्यों से बचाने के लिए सन्यासियों ने भी कमर कस ली। 18 वीं सदी के अंतिम वर्षों में भी बंगाल में सन्यासियों ने वारेन हेस्टिंग्स और अंग्रेज़ी सेना को नाकों चने चबवा दिए थे। इस बार भी सन्यासियों ने 1855-56 से अनेक स्थानों पर यथा ऋषिकेश, हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर तथा मथुरा-वृंदावन को अपनी कार्यस्थली बनाया। ये चारों स्थान ही हिंदुओं के लिए पौराणिक महत्व के रहे हैं। इसलिए यहां पर हजारों की संख्या में तीर्थयात्रियों ने इन सम्मेलनों में सहभागिता की और यहां से क्रांति की चिंगारी लेकर वे सर्वत्र गए जोकि बाद में ज्वालामुखी के रूप में अंग्रेजी सत्ता के सम्मुख प्रकट हुई।
स्वामी विरजानन्द का भी था अहम योगदान
स्वामी विरजानन्द जी जोकि स्वामी दयानंद सरस्वती जी के गुरु थे और प्रज्ञा चक्षु थे, ने काफी लंबे समय तक अलवर के महाराजा के महल में ही रहकर न केवल उन्हें संस्कृत सिखाई बल्कि पूरे राजस्थान को क्रांति के लिए उद्वेलित और संगठित किया। बाद में, उन्होंने अपना केंद्र मथुरा को बनाया। 1857 में दक्षिण भारत में एक सन्यासी था, उसे मैसूर के पास पुलिस ने पकड़ा था, उससे जानकारी लेने के लिए एक कमीशन बना था जोकि मैसूर ज्यूडिशियल कमीशन के नाम से जाना गया, उसकी रिपोर्ट में भी जिन सन्यासियों का उल्लेख हुआ है, उनका सम्बन्ध भी मेरठ होते हुए पंजाब तक जाता है और वे भी दसनामी सन्यासी थे।
कैसे तय समय से पहले ही हो गया विद्रोह
नाना साहब पेशवा भी अजीमुल्ला खान के साथ कानपुर से सहारनपुर होते हुए ऋषिकेश के सन्यासियों के सम्मेलन में सम्मिलित हुए थे और उन्हीं की प्रेरणा से गुजरात तक की यात्रा की थी। यह क्रांति वस्तुतः राष्ट्रव्यापी थी। 31 मई, 1857 इसका प्रारम्भ होने का दिन था उसी अनुरूप समाज और सेना में कमल और रोटी का वितरण करके तैयारियों को पूर्ण किया गया था। यह संचार की एक अदभुत तकनीक थी जिसमें एक व्यक्ति को कमल का फूल और रोटी दी जाती थी औऱ क्रांति का संकल्प लिया जाता था तथा उससे यह अपेक्षा की जाती थी कि वह अन्य पांच व्यक्तियों को ऐसा ही संकल्प दिलवाए। सब कुछ ठीक चल रहा था किंतु अचानक अब्दुल नाम के एक व्यक्ति, जोकि पूर्व में ईसाई था ने 10 मई से पहले ही कारतूस में गाय और सुअर की चर्बी की बात को हवा दे दी जिसकी प्रतिक्रिया में 10 मई को क्रांति ने आकार ले लिया।
मेरठ से उठी क्रांति की ज्वाला पूरे देश में फैली
यह क्रांति समय पूर्व हुई थी, किन्तु फिर भी इसने मेरठ और उसके आस पास के क्षेत्र को इतना सक्रिय कर दिया था कि हजारों-हजार की संख्या में जनता अंग्रेजों के विरुद्ध हो गई थी। मेरठ और आस-पास की सभी सेना दिल्ली पहुंचकर बहादुर शाह जफर को देश का बादशाह घोषित कर चुकी थी और उनके बेटे के सम्मुख सेना ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई तो वह संख्या 90 हजार के लगभग थी। सेना और समाज की सक्रियता से यह पूरा क्षेत्र कई दिनों तक अंग्रेजी सत्ता से मुक्त रहा था। मेरठ से जो क्रांति की चिंगारी समय पूर्व फूटी थी उसने सम्पूर्ण भारत में ज्वाला का रूप ले लिया था। बम्बई और मद्रास की सैनिक बटालियनों ने भी अग्रेज़ों के विरुद्ध बिगुल फूंक दिया था। यद्यपि अंग्रेजों ने अनेक स्थानों पर देशी सेना से हथियार वापिस लेने की शुरुआत कर दी थी। किन्तु कई स्थानों पर अंग्रेजों को सेना के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था। पेशावर से केरल तक और गुजरात से कामरूप तक सम्पूर्ण समाज अंग्रेजों के विरुद्ध कमर कस कर खड़ा हो गया था।
कार्ल मार्क्स ने भी 1857 के आंदोलन को माना था राष्ट्रीय क्रांति
कार्ल मार्क्स सदृश अनेक पश्चिमी विद्वानों और लेखकों ने भी इसे राष्ट्रीय क्रांति ही माना है किन्तु कुछ उपनिवेशी मानसिकता से पोषित इतिहासकार इसे हिंदी भाषी क्षेत्र में हुआ सैनिक विद्रोह ही मानते हैं जोकि उनकी कुत्सित मनोवृति का ही परिचायक है और उनका यह कृत्य जिसमें इतिहास को विकृत करके प्रस्तुत किया गया है, वह भारत के युवाओं के प्रति जघन्य अपराध तथा इस क्रांति में जिन हजारों युवाओं ने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया के प्रति भी कृतघ्नता है। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव वर्ष में युवाओं को भारत के सही इतिहास से परिचय कराना ही शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
(लेखक- चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं।)