अगर हिंदू पर लागू तो मुस्लिम पर क्यों नहीं, ट्रिपल तलाक केस में ऐसा क्यों बोला हाई कोर्ट
ट्रिपल तलाक के एक मामले में मद्रास हाई कोर्ट ने बेहद सख्त टिप्पणी की है। जज ने कहाकि शरीयत काउंसिल एक निजी संस्था है, कोई कोर्ट नहीं है।
ट्रिपल तलाक के एक मामले में मद्रास हाई कोर्ट ने बेहद सख्त टिप्पणी की है। जज ने कहाकि शरीयत काउंसिल एक निजी संस्था है, कोई कोर्ट नहीं है। यह मामला एक मुस्लिम डॉक्टर कपल का था, जिनकी शादी साल 2010 में हुई थी। पति ने ट्रिपल तलाक देकर दूसरी शादी कर ली थी, लेकिन पत्नी का कहना था कि उसने तीसरा तलाक सुना नहीं था। हालांकि डॉक्टर ने शरीयत से मिले डिवोर्स सर्टिफिकेट के आधार पर दूसरी शादी कर ली थी। इसके बाद उसकी पहली पत्नी मामले को लेकर कोर्ट पहुंच गई थी। इसके साथ ही जज ने कहाकि अगर पहली शादी वैध रहते दूसरी शादी करना हिंदू धर्म में क्रूरता है तो मुस्लिमों में क्यों नहीं माना जाना चाहिए।
मद्रास हाई कोर्ट की मदुरै बेंच के जस्टिस जीआर स्वामीनाथन ने शरीयत द्वारा जारी डिवोर्स सर्टिफिकेट को शॉकिंग बताया। उन्होंने कहाकि शरीयत ने पति की ट्रिपल तलाक की अर्जी स्वीकार कर ली और मीडिएटर बनने की कोशिश की, लेकिन पत्नी पर सहयोग न करने का आरोप लगा दिया। जज ने कहाकि केवल कोर्ट को इस तरह का आदेश देने का अधिकार है। शरीयत काउंसिल एक प्राइवेट बॉडी है, कोई कोर्ट नहीं। उन्होंने कहाकि चूंकि किसी कोर्ट ने यह फैसला नहीं दिया है, ऐसे में डॉक्टर की पहली शादी मान्य रहेगी।
हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान जज ने कहाकि डॉक्टर द्वारा दूसरा विवाह कर लेने से पत्नी को काफी ज्यादा भावनात्मक तकलीफ पहुंची है। यह एक तरह की क्रूरता है। जज ने कहाकि अगर कोई हिंदू, ईसाई, पारसी या यहूदी पहली शादी के वैध रहते हुए दूसरी शादी करता है तो इसे क्रूरता माना जाता है। निश्चित तौर पर इसे प्रोटेक्शन ऑफ वुमन फ्रॉम डोमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट 2005 के सेक्शन 12 के तहत क्रूरता माना जाता है। जस्टिस स्वामीनाथन ने कहाकि ठीक यही बात मुस्लिमों के ऊपर भी लागू होती है।
मामला साल 2018 का है जब पति द्वारा तीन तलाक देने पर पत्नी कोर्ट चली गई। उसने तिरुनेलवेली ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के सामने कहाकि तीसरा तलाक उसको संबोधित करके नहीं बोला गया था। इसलिए शादी अभी भी मान्य है। उसके पति ने उसी साल दूसरी शादी कर ली थी। साल 2021 में मजिस्ट्रेट ने पहली पत्नी के पक्ष में फैसला सुनाया। साथ ही पति से कहाकि वह अपनी पत्नी को मुआवजे के रूप में पांच लाख रुपए दे। इसके अलावा नाबालिग बच्चों की देख-रेख के लिए हर महीने 25 हजार रुपए देने का भी फैसला सुनाया। बाद में पति मामले को लेकर सेशन कोर्ट में पहुंचा था, लेकिन वहां उसकी अपील खारिज हो गई।