जीने के अधिकार का हिस्सा है मां का दूध पीना, बच्चे की कस्टडी के केस में बोला हाईकोर्ट
- केरल हाई कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा है कि स्तनपान करना एक बच्चे के जीने के अधिकार का हिस्सा है। कोर्ट ने इस मामले में माना है कि स्तनपान कराने वाली महिला को उसके बच्चे से अलग नहीं किया जा सकता है।
केरल हाई कोर्ट ने एक मामले में यह माना है कि एक बच्चे को उसकी मां से अलग करना, मां के स्तनपान कराने के अधिकार और बच्चे के स्तनपान करने के अधिकार, दोनों का उल्लंघन है। कोर्ट ने कहा है कि मां का दूध पीना भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार का हिस्सा है। हाई कोर्ट ने इस बात पर भी जोर डाला कि संविधान सरकार को देश के लोगों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने का भी आदेश देता है जो स्तनपान का स्पष्ट रूप से समर्थन करता है। जस्टिस वीजी अरुण की अध्यक्षता वाली बेंच ने बाल कल्याण समिति (सीडब्ल्यूसी) के आदेश को रद्द करते हुए बच्चे की कस्टडी उसकी स्तनपान कराने वाली मां को सौंपने का निर्देश दिया है।
मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा, "मातृत्व का यह महत्वपूर्ण हिस्सा भारत के संविधान के आर्टिकल 21 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों में संरक्षित है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बिना किसी गलती के यह बच्चा स्तनपान से वंचित रह गया और इसकी स्तनपान कराने वाली मां को इससे दूर रखा गया।” कोर्ट ने आगे कहा, “सभ्य समाज में ऐसी चीजें कभी नहीं होनी चाहिए।"
क्या था मामला?
इस मामले में बच्चे की मां ने कोर्ट में अर्जी लगाई थी। अर्जी के मुताबिक दोनों की शादी 2019 में हुई थी और बच्चे का जन्म 2023 में हुआ था। बाद में महिला उत्पीड़न का हवाला देते हुए अपने पति से अलग रह रही थी। बच्चे के जन्म के तीन महीने बाद उसके पति ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। शिकायत के मुताबिक महिला किसी अन्य शख्स के साथ रहने लगी थी। शिकायत के आधार पर मजिस्ट्रेट के सामने पेश हुई महिला को किसी भी व्यक्ति के साथ रहने की इजाजत मिली क्योंकि महिला 23 साल की थी और वह किसी के साथ रहने के लिए स्वतंत्र थी। हालांकि मजिस्ट्रेट ने पुलिस को बच्चे को सीडब्ल्यूसी के समक्ष पेश करने का निर्देश दिया क्योंकि उन्हें संदेह था कि बच्चे की देखभाल में दिक्कतें हो सकती है। सीडब्ल्यूसी ने बच्चे की कस्टडी पिता को दे दी जिसके बाद महिला ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
‘नैतिक पूर्वाग्रह’
कोर्ट ने सीडब्ल्यूसी के फैसले की आलोचना करते हुए कहा कि यह पक्षपातपूर्ण है जिसमें बच्चे के सर्वोत्तम हित को प्राथमिकता देने के बजाय मां के अपने पति के अलावा किसी और के साथ रहने बात पर ध्यान केंद्रित किया गया है। कोर्ट ने कहा, "बच्चे की मां ने अपने पति के अलावा किसी और के साथ रहने का विकल्प चुना है यह समिति की चिंता का विषय नहीं है। सदस्यों के नैतिक मानकों के आधार पर देखा जाए तो याचिकाकर्ता एक अच्छी इंसान नहीं हो सकती है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह एक बुरी मां है। व्यक्तिगत नैतिक मूल्यों के कारण हमेशा पक्षपातपूर्ण निर्णय सामने आते हैं। दुर्भाग्य से यह आदेश समिति के सदस्यों के नैतिक पूर्वाग्रह के अलावा और कुछ नहीं दर्शाता है।" अनीसा एफ.वी. बनाम शफीकमोन के.आई. (2023) में हाई कोर्ट के पहले के फैसले का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि सी.डब्ल्यू.सी. के आदेश ने नेचुरल जस्टिस के सिद्धांतों और याचिकाकर्ता और बच्चे दोनों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है। कोर्ट ने पिता को बच्चे की कस्टडी तुरंत मां को सौंपने का निर्देश दिया है।