बच्ची की रेप के बाद हत्या, सात साल से लटका मामला; HC बोला- ये न्याय प्रणाली पर कलंक है
- यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम, 2012 के तहत यह अनिवार्य है कि जहां तक संभव हो इस अधिनियम में दर्ज मुकदमे की सुनवाई एक साल में पूरी कर ली जाए।
यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पोक्सो) अधिनियम, 2012 के तहत मामलों के ट्रायल में देरी पर कर्नाटक हाईकोर्ट ने कड़ी नाराजगी जताई है। कोर्ट ने कहा कि पोक्सो एक्ट के तहत एक साल के भीतर ट्रायल पूरा करने का प्रावधान है, लेकिन इस दिशा में देरी पूरी न्यायिक प्रणाली पर कलंक है। यह टिप्पणी हाई कोर्ट ने 10 सितंबर को एक मामले की सुनवाई के दौरान की। इस मामले में बेंगलुरु क्षेत्र की एक पांच वर्षीय बच्ची के साथ कथित रूप से बलात्कार और हत्या का मामला सात साल से लंबित है।
यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम, 2012 के तहत यह अनिवार्य है कि जहां तक संभव हो इस अधिनियम में दर्ज मुकदमे की सुनवाई एक साल में पूरी कर ली जाए। उच्च न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में देरी, जहां अपराध जघन्य है और तथ्य ‘भयावह' हैं, कानूनी और न्यायिक प्रणाली की दुखद स्थिति को दर्शाते हैं।
यह मामला कोर्ट के सामने तब आया जब एक आरोपी ने गवाहों की जिरह के लिए अपील की थी, जिसे ट्रायल कोर्ट ने बचाव पक्ष के वकील की अनुपस्थिति के कारण अस्वीकार कर दिया था। कोर्ट ने कहा, "पोक्सो अधिनियम की धारा 35(2) के तहत अपराध का संज्ञान लेने के एक वर्ष के भीतर, जितना संभव हो सके, ट्रायल पूरा करने का प्रावधान है। इस मामले में 2017 में संज्ञान लिया गया था, और सात साल बीत चुके हैं, लेकिन अपराधियों को अब तक न्याय के कटघरे में नहीं लाया गया है।" न्यायमूर्ति एम नागप्रसन्ना ने कहा कि "ऐसे हालात में पूरी आपराधिक न्याय प्रणाली पर सवाल उठता है।"
हाई कोर्ट ने हालांकि, बेंगलुरु ग्रामीण पोक्सो अदालत में गवाहों को पुनः बुलाने और बचाव पक्ष को गवाहों से जिरह करने की अनुमति दी। लेकिन साथ ही यह भी निर्देश दिया कि नौ गवाहों की जिरह नौ दिनों के भीतर पूरी की जाए। मामले के आरोपियों में से एक चंदना ने इस आधार पर जिरह के लिए नौ गवाहों को दोबारा बुलाने के लिए उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी कि सुनवाई अदालत ने उसकी अर्जी को खारिज कर दिया, जबकि आरोपी के वकील ने खराब स्वास्थ्य का हवाला देकर जिरह नहीं की थी।
उच्च न्यायालय ने उपरोक्त तथ्य पर संज्ञान लेते हुए नौ गवाहों को दोबारा बुलाने की अनुमति दे दी, क्योंकि आरोपी ने उनसे दोबारा जिरह के अधिकार का लाभ नहीं लिया था। अदालत ने साथ ही शर्त लगाई कि इन गवाहों से जिरह नौ दिन के भीतर पूरी होनी चाहिए और मुकदमे की सुनवाई जिरह पूरी होने की तारीख से तीन महीने के भीतर पूरी हो जानी चाहिए।
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