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रोटी के लिए चश्मा रिपेयर कर रहे फुटबॉलर आसिफ अली

भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व, इंडिया कैंप  में भागीदारी और संतोष ट्रॉफी समेत कई राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में शानदार प्रदर्शन के बाद भी यदि किसी खिलाड़ी के सामने अपना और अपने परिवार के भरण-पोषण की...

rupesh रांची प्रवीण मिश्र, Sat, 6 June 2020 04:29 PM
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भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व, इंडिया कैंप  में भागीदारी और संतोष ट्रॉफी समेत कई राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में शानदार प्रदर्शन के बाद भी यदि किसी खिलाड़ी के सामने अपना और अपने परिवार के भरण-पोषण की चुनौती हो तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण भला क्या होगा? यह दुर्भाग्यपूर्ण कहानी है गुमला के फुटबॉलर आसिफ अली की, जो आजकल चश्मा रिपेयर रहे हैं ताकि लोग दुनिया को साफ नजरों से देख सकें। 

आसिफ अली ने जब होश संभाला तो पैर अपने आप फुटबाल के मैदान की तरफ बढ़ चले। आंखों में भारतीय फुटबॉल टीम का हिस्सा बनने का सपना संजोए 2006 में गुमला डे बोर्डिंग सेंटर के कोच रिजवान अली से प्रशिक्षण लेना शुरू किया। 2007-08 में पहली बार कोलकाता में आयोजित एसजीएफआई (स्कूल गेम्स फेडरेशन ऑफ इंडिया) की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में खेले और टीम को कांस्य पदक दिलाने में अहम भूमिका निभाई। इसके बाद ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन की अंडर 13 नेशनल चैंपियनशिप में अपनी प्रतिभा दिखाई। बेहतरीन प्रदर्शन के दम पर भारतीय टीम में चयन हुआ। अभ्यास मैच खेलने के लिए 2010 में ईरान गए।  इसके बाद अंडर 14 भारतीय टीम के कैंप के लिए चयनित हुए।

सुबह में अभ्यास और दिनभर दुकान में करते हैं काम : विडंबना देखिए। इतने सारे मौकों पर अपनी प्रतिभा से झारखंड का मान बढ़ाने वाले आसिफ को पूरा राज्य मिलकर एक अदद नौकरी तक नहीं दे सका। परिवार की माली हालत ठीक नहीं थी। अकेले पिता की मजदूरी से मां और सात भाई-बहनों का गुजारा मुश्किल होने लगा तो मजबूर आसिफ को अपना सपना एक चश्मे की एक दुकान में गिरवी रखना पड़ा। गुमला में ही एक चश्मे की दुकान में काम करना शुरू किया। अहले सुबह अभ्यास करते और फिर दिनभर दुकान में काम। चार बजे छुट्टी लेकर अभ्यास के लिए वापस मैदान पहुंचते, लेकिन धीर-धीरे खेल कम होता गया और परिवार का दायित्व बढ़ता गया। पिता महमूद आलम मजदूरी का काम करते थे, लेकिन वह भी छूट गया। अब आसिफ पर माता-पिता और सभी भाई-बहनों की जिम्मेदारी है। एक बहन मोहल्ले के लोगों के कपड़े सिलकर खर्चे में हाथ बंटाती है। जैसे तैसे गुजारा हो रहा था कि लॉकडाउन ने कोढ़ में खाज जैसी स्थिति पैदा कर दी। चश्मे की दुकान का काम भी छूट गया। फिलवक्त, घर पर ही थोड़ा बहुत काम करके गुजारा कर रहे हैं। 

परिवार का बड़ा बेटा होने के कारण काम करना मजबूरी : हालात से मायूस आसिफ बताते हैं कि परिवार का बड़ा बेटा होने के नाते काम करने की मजबूरी है। आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि खेल के लिए जरूरी किट और डाइट की व्यवस्था हो सके। फिर भी जिलास्तर के मैच खेलते रहते हैं, यह सोचकर कि शायद एक फिर से मेनस्ट्रीम में वापसी हो सके। लेकिन वापसी के लिए उतना समय नहीं दे पाते, जितना चाहिए। मजबूरी में खेल छूटता जा रहा है और भारतीय टीम में जगह बनाने का सपना अब पूरा होता नहीं दिखता।   

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