छऊ नृत्य देखने की बेताबी, बैलगाड़ी के जरिए बना देते हैं मचान; अनूठी है यह परंपरा
ग्रामीणों ने तरकीब लगाई कि मचान बनाए जाएं तो नाते-रिश्तेदारों को छऊ नृत्य देखने में आसानी होगी। गांव के हर परिवार के लिए बैलगाड़ी से मचान बनाया जाने लगा। लोग उस मचान पर बैठकर छऊ का आनंद लेते हैं।
झारखंड का छऊ नृत्य पूरे देश में विख्यात है। यकीन मानिए, छऊ नृत्य को आप एक बार देख लेंगे तो दंग रह जाएंगे। जितना भारी मुखौटा लगाकर कलाकार यह नृत्य करते हैं, वह बिना नियमित अभ्यास के संभव नहीं हो सकता। पूर्वी सिंहभूम जिले में एक ऐसा गांव है, जहां छऊ नृत्य देखने के लिए लोग बैलगाड़ी से मचान बनाते हैं और उसपर बैठकर इस नृत्य का आनंद उठाते हैं। शुरू-शुरू में तो यह मचान नृत्य देखने में सहूलियत हो, इसलिए बनाते थे, लेकिन अब यह इस गांव की परंपरा बन गई है। हर साल यहां छऊ नृत्य का आयोजन किया जाता है और इसे बैलगाड़ियों से बने मचान से देखने को दर्शकों का हुजूम उमड़ता है। छऊ देखने की यह अनोखी परंपरा आज आसपास के गांव में आकर्षण का केंद्र बन गई है।
गांव का नाम है धिरोल, जो पोटका प्रखंड में है। इस गांव के जोगमाझी, यानी ग्राम प्रधान के पारंपरिक दूत बलराम सोरेन बताते हैं कि दशकों पहले धिरोल गांव में इस परंपरा की शुरुआत हुई। उस समय चूंकि गांव में छऊ नृत्य देखने के लिए गांव के सभी घरों में दूर के रिश्तेदारों तक को आमंत्रण दिया जाता था। इस कारण नृत्य देखने के लिए हजारों की भीड़ उमड़ती थी। भीड़ के कारण जमीन पर बैठकर लोगों को नृत्य देखने में असुविधा होने लगी थी। इस कारण ग्रामीणों ने तरकीब लगाई कि मचान बनाए जाएं तो नाते-रिश्तेदारों को छऊ नृत्य देखने में आसानी होगी। गांव के हर परिवार के लिए बैलगाड़ी से मचान बनाया जाने लगा। लोग रात भर उस मचान पर बैठकर छऊ का आनंद लेते हैं।
लकड़ी के खंभे पर 5-6 मीटर ऊपर चढ़ाते हैं बैलगाड़ी
धिरोल गांव में बैलगाड़ी से बने मचान छऊ नृत्य के दौरान किसी स्टेडियम की तरह दिखते हैं। सबसे ऊंचे मचान सबसे पीछे होते हैं, इसके आगे उससे कम ऊंचाई के मचान और सबसे कम ऊंचाई वाले मचान सबसे आगे। इन मचानों को मजबूत लकड़ी के चार पांच खंभे पर बनाया जाता है। इन खंभों पर 5-6 मीटर ऊपर बैलगाड़ियों को उनके पहिए उतारकर चढ़ाया जाता है। जोगमाझी बलराम सोरेन बताते हैं कि एक-एक बैलगाड़ी का वजन 200 से 300 किलो तक होता है, इसलिए इसे रस्सी से बांध कर खंभों के सहारे खींचकर ऊपर चढ़ाया जाता है। इसके बाद उसे ऊपर मचान के रूप में बांधा जाता है। लोग सीढ़ी से ऊपर चढ़कर आराम से बैठकर रात भर छऊ नृत्य देखते हैं। दशकों पुरानी यह परंपरा आज भी इस गांव में जारी है।
झारखंड की अति विशिष्ट नृत्य कला है छऊ
छऊ नृत्य झारखंड की अति विशिष्ट नृत्य कला है। आयोजन सिंहभूम के लगभग सभी गांवों में साल में एक बार किया जाता है। गांवों में नाते-रिश्तेदारों को साल में एक बार न्योता देने के लिए गांवों में छऊ मेले का आयोजन किया जाता है। इसमें कलाकार महाभारत रामायण के प्रसंग नृत्य के माध्यम से दिखाते हैं। यह नृत्य खुले स्थान में प्रदर्शित किया जाता है, जिसे अखाड़ा या असार कहा जाता है। इसी अखाड़े के चारों और धिरोल गांव में बैलगाड़ी के मचान बनाए जाते हैं। नृत्य रात भर चलता है। स्थानीय किंवदंतियां, लोकसाहित्य और रामायण और महाभारत महाकाव्यों के प्रकरण और अमूर्त विषय को इसमें नृत्य के माध्यम से दिखाया जाता है। ढोल, धुम्सा और खर्का जैसे देशी ढोलों की ताल और मोहुरि एवं शहनाई की धुन इसके जीवंत संगीत की विशेषता है।