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किसान, जवान और पहलवान के मुद्दों का था शोर, फिर कैसे चला भाजपा का जोर; 5 बातें

  • र्व सीएम भूपिंदर सिंह हुड्डा पूरे चुनाव अभियान का नेतृत्व कर रहे थे और राहुल गांधी ने भी एक दर्जन रैलियां कीं और विजय संकल्प यात्रा चलाई। इसके अलावा राज्य में कांग्रेस की ओर से किसान, जवान और पहलवानों की नाराजगी का नैरेटिव चलाया गया था।

Surya Prakash लाइव हिन्दुस्तानTue, 8 Oct 2024 01:50 PM
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हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले हैं। सभी एग्जिट पोल्स के अनुमानों में कांग्रेस की एकतरफा जीत की भविष्यवाणी की गई थी। लेकिन रुझान आए तो शुरुआत से ही गेम बदलता दिखा। अब तक आए रुझानों में भाजपा की 49 सीटों पर बढ़त है, जबकि कांग्रेस 35 पर ही ठिठकी हुई है। पूर्व सीएम भूपिंदर सिंह हुड्डा पूरे चुनाव अभियान का नेतृत्व कर रहे थे और राहुल गांधी ने भी एक दर्जन रैलियां कीं और विजय संकल्प यात्रा चलाई। इसके अलावा राज्य में कांग्रेस की ओर से किसान, जवान और पहलवानों की नाराजगी का नैरेटिव चलाया गया था।

सेना भर्ती में अग्निवीर स्कीम लागू करने का तीखा विरोध हुआ था और कांग्रेस का कहना था कि यह चुनाव में भी मुद्दा बनेगा। इसके अलावा दिल्ली के जंतर-मंतर में हुए पहलवानों के आंदोलन और उससे पहले लगभग डेढ़ साल चले किसानों के प्रदर्शन के भरोसे भी कांग्रेस जोर-आजमाइश कर रही थी। लेकिन अब जो रुझान हैं, यदि वही नतीजे रहे तो फिर कांग्रेस के लिए यह करारा झटका होगा। जानकार मानते हैं कि हरियाणा चुनाव के बदले हुए रुझानों के पीछे 5 कारण हैं, जिनके चलते भाजपा कमजोर दिखकर भी मजबूत बनी रही और तमाम जोर-आजमाइश के बाद भी कांग्रेस कमाल नहीं कर सकी।

1. हरियाणा विधानसभा की कुल 90 सीटों में से 17 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। इस बार इन सीटों पर कांग्रेस बनाम भाजपा का मुकाबला है। तीसरे किसी भी दल की दाल गलती नजर नहीं आ रही है। दोपहर 12.15 बजे तक ताजा चुनावी रुझानों के मुताबिक 17 में से 9 पर कांग्रेस और आठ पर भाजपा के उम्मीदवार बढ़त लिए हुए हैं। यह बड़ा आंकड़ा है क्योंकि पिछली बार उसे 5 सीटों पर ही जीत मिली थी। दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी के खाते में पिछली बार चार आरक्षित सीटें गई थीं, जबकि एक सीट निर्दलीय उम्मीदवार के खाते में गई थी। इस बार जजपा एक भी सीट पर कमाल करती नजर नहीं आ रही है।

2. हुड्डा बनाम कुमारी सैलजा कांग्रेस में खूब चला। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने दोनों नेताओं के बीच रिश्ते सहज कराने की कोशिश भी की थी और एक रैली में दोनों के हाथ ऊपर उठाकर खड़े थे। कांग्रेस का कहना था कि दोनों के बीच रिश्ते खराब नहीं हैं, लेकिन कुमारी सैलजा और हुड्डा दोनों ही अलग-अलग सीएम पद के दावे कर रहे थे। यही नहीं कुमारी सैलजा ने तो एक इंटरव्यू में यहां तक कहा था कि मेरी उनसे कब बात हुई थी, याद ही नहीं है। कहा जा रहा है कि दोनों के बीच लगातार इस तरह खुले टकराव ने पार्टी का नुकसान किया।

3. कांग्रेस को लेकर यह भी कहा जा रहा है कि उसने जाट नेतृत्व को आगे किया। भूपिंदर सिंह हुड्डा के हाथ में कमान थी और कहा जा रहा है कि उनके ही कहने पर 72 टिकट दिए गए थे। माना जा रहा है कि उनके इस तरह कमान संभालने से जाट लॉबी के हावी होने का संदेश गया। इससे अहीरवाल बेल्ट में यादव, ब्राह्मण समेत कई अन्य बिरादरियां एकजुट होकर भाजपा के साथ गईं। इसके अलावा करनाल, कुरुक्षेत्र, हिसार जैसे इलाकों में पंजाबी समेत अन्य समुदाय भाजपा की ओर गया।

4. भाजपा ने 6 महीने पहले ही हरियाणा का सीएम बदला था। मनोहर लाल खट्टर को हरियाणा के सीएम पद से हटाकर लोकसभा चुनाव लड़ाया गया। केंद्र में वह मंत्री बन गए और राज्य में कमाम नायब सिंह सैनी को मिली। लेकिन चुनाव प्रचार से खट्टर को एकदम दूर रखा गया। इस तरह भाजपा ने खट्टर के चेहरे से नाराजगी को दूर करने की कोशिश की। नए फेस के साथ नई उम्मीदें पैदा कीं और यह उसके पक्ष में गया।

5. एक अहम बात यह भी है कि कांग्रेस के नेता एक तरफ अतिउत्साह में थे तो वहीं भाजपा सामाजिक समीकरण साधती रही। गुरुग्राम में पहली बार ब्राह्मण कैंडिडेट उतारा तो वहीं महेंद्रगढ़ में यादव को मौका दिया। इसके अलावा सैनी, गुर्जर, यादव समाज के बीच खूब बैठकें कीं। इस तरह भाजपा ने गैर-जाट ओबीसी समुदायों के बीच गोलबंदी की और उसका फायदा भी दिख रहा है।

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