हर बार हाहाकारी नहीं होता गिरता रुपया
रुपया डॉलर के मुकाबले गिरावट के नए-नए रिकॉर्ड बना रहा है। एक डॉलर की कीमत बीते हफ्ते 85 रुपये के पार चली गई। समझदार लोग कहेंगे कि रुपया गिर नहीं रहा है, बल्कि डॉलर मजबूत हो रहा है…
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आलोक जोशी, वरिष्ठ पत्रकार
रुपया डॉलर के मुकाबले गिरावट के नए-नए रिकॉर्ड बना रहा है। एक डॉलर की कीमत बीते हफ्ते 85 रुपये के पार चली गई। समझदार लोग कहेंगे कि रुपया गिर नहीं रहा है, बल्कि डॉलर मजबूत हो रहा है। मगर छुरी खरबूजे पर गिरे या खरबूजा छुरी पर, कटना तो खरबूजे को ही है। डॉलर का मजबूत होना अरसे से हमारे देश में फिक्र का कारण रहा है। इसे लेकर तरह-तरह की किंवदंतियां भी चलती हैं। जैसे, आजादी के समय एक रुपया एक डॉलर के बराबर था। यह बात कतई सही नहीं है, क्योंकि आजादी के वक्त तो भारत का खजाना ब्रितानी व्यवस्था का हिस्सा था और भारतीय रुपये का अंतरराष्ट्रीय लेन-देन ब्रिटिश मुद्रा पाउंड के दाम से जुड़ा हुआ था। तब रुपये का भाव रोज-रोज बदलता भी नहीं था। फॉर्मूला तय था कि एक ब्रिटिश पाउंड की कीमत 13.333 रुपये होगी। उस वक्त बाजार में एक पाउंड करीब चार डॉलर का था, इस गणित से एक डॉलर की कीमत करीब 3.333 रुपये होती है।
यहां यह जानना भी जरूरी है कि तब का भारतीय रुपया भी अलग था। उस वक्त रुपया आना, पाई वाली व्यवस्था चलती थी और एक रुपये में 64 पैसे होते थे। चार पैसे का एक आना और रुपया होता था सोलह आने का। आजादी के बाद भी यह आना सीरीज चलती रही, जहां एक रुपये में सोलह आने, 64 पैसे और 192 पाई होती थीं। चवन्नी और अठन्नी के नाम भी वहीं से आए थे। मगर 1957 में भारत ने मीट्रिक प्रणाली अपनाई और रुपये में सौ पैसे होने लगे। इसके साथ ही एक, दो, तीन, पांच, दस, पच्चीस और पचास नए पैसे के सिक्के जारी किए गए। बीस पैसे का सिक्का बाद में आया था, फिर रुपये और उसके ऊपर के सिक्के भी। काफी समय तक बाजार में पैसे और नए पैसे साथ-साथ चलते रहे। फिर 1968 में नए पैसे को औपचारिक तौर पर पैसे कहा जाने लगा और पुराना पैसा चलन से बाहर हो गया।
इतना किस्सा इसलिए, क्योंकि यह समझना जरूरी है कि मुगलों के दौर के या उसके पहले के चांदी-सोने वाले रुपये या फिर आजादी के वक्त के रुपये की दुनिया के बाजार में जो भी कीमत थी, उसके साथ आज के रुपये के तुलना करना शायद ज्यादती होगी। और, यह भी समझना चाहिए कि किसी दूसरी मुद्रा के मुकाबले रुपये का कमजोर होना हमेशा नुकसानदेह नहीं होता।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार के हिसाब से कई बार अपनी मुद्रा का सस्ता होना बेहद फायदेमंद साबित होता है, क्योंकि इससे हमारा निर्यात खरीदारों की नजर में सस्ता हो जाता है। जैसे, भारत से सौ रुपये की चीज अगर अमेरिका जा रही है और डॉलर की कीमत पचास रुपये हो, तो खरीदार को दो डॉलर देने पड़ेंगे, लेकिन अगर आज डॉलर 85 रुपये के ऊपर है, तो खर्चा सवा डॉलर से भी कम हो गया। चीन ने अपना माल दुनिया भर के बाजार में भरने के लिए यही नुस्खा सफलतापूर्वक आजमाकर दिखाया है। कई दशकों से उस पर यह इल्जाम लगता रहा है कि वह अपनी मुद्रा को जान-बूझकर कमजोर रख रहा है, ताकि निर्यात के मोर्चे पर वह दूसरों को मात देता रहे।
आजादी के बाद लंबे समय तक भारत में विदेशी मुद्रा का भाव या विनिमय दर (जिस दर पर कोई विदेशी मुद्रा खरीदी या बेची जाएगी) सरकार ही तय करती थी। पुराने आंकड़ों पर नजर डालें, तो पता चलता है कि 1950 से 1965 तक एक डॉलर की कीमत 4.76 रुपये पर स्थिर रही और उसके बाद 1967 से 1971 तक 7.57 रुपये पर। यह फर्क भी इसलिए आया कि 1962 व 1965 के युद्ध और 1966 के अकाल की वजह से भारत की अर्थव्यवस्था पर बहुत खराब असर पड़ा था और 1966 में केंद्र सरकार को रुपये का अवमूल्यन करना पड़ा था।
सत्तर के दशक में पाकिस्तान से युद्ध व कच्चे तेल का संकट एक बार फिर मुसीबत बना और इसका दबाव रुपये की कीमत पर पड़ा। फिर भी डॉलर की कीमत सरकार ही तय करती थी और 1990 तक यह धीरे-धीरे बढ़कर 17.50 रुपये तक पहुंच गया। फिर आया 1991 यानी आर्थिक सुधारों का साल। यहीं सरकार ने डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत में कटौती या अवमूल्यन का एलान किया। जुलाई में ही दो किस्तों में रुपये की कीमत घटाई गई। 1 जुलाई को नौ प्रतिशत और दो ही दिन बाद 3 जुलाई को 11 फीसदी की कटौती हुई। डॉलर झटके से महंगा हो गया। भारत से निर्यात तो सस्ता हुआ, लेकिन आयात महंगा। मगर साथ ही भारत में निवेश करना अब डॉलर लगानेवालों के लिए आकर्षक हो गया।
एक रोचक किस्सा है। उस वक्त वित्त मंत्री थे डॉक्टर मनमोहन सिंह, जो उससे पहले तीन साल जिनेवा में साउथ कमीशन नाम के पॉलिसी थिंक टैंक में काम कर चुके थे। मनमोहन सिंह के विदेशी बैंक खाते में कुछ रकम जमा थी। तब प्रधानमंत्री नरसिंहराव के एक निकट सहयोगी ने बताया कि यह फैसला होने के बाद मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री कार्यालय गए और अवमूल्यन के कारण उनके बैंक खाते में जमा डॉलरों की कीमत में जो इजाफा हुआ, उस रकम का चेक काटकर उन्होंने प्रधानमंत्री राहत कोष में जमा कर दिया। मनमोहन सिंह ने अपने हिस्से का मुनाफा तो राष्ट्र को दान कर दिया, लेकिन वहां से डॉलर की कीमत बढ़ने का सिलसिला भी तेज हुआ और देश की तरक्की की रफ्तार भी।
मुद्रा की मजबूती जरूरी है। आप ब्रिटेन या अमेरिका जैसे देशों में जाएं, तो वहां 100 डॉलर या 50 पाउंड से ज्यादा का नोट नहीं मिलता। दूसरी तरफ, ऐसे अनेक देश हैं, जहां का एक नोट लाखों का होता है। जब अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत हो जाए, देश के लोग इतने समृद्ध हो जाएं कि उन पर बाकी दुनिया से लेन-देन का कोई असर न पड़ता हो, तब तो ठीक है। वरना देश की मुद्रा का कमजोर रहना किसी कमजोरी की नहीं, दूरंदेशी की निशानी भी हो सकता है।
पुराने लोग याद भी करेंगे। एक वक्त था जब एक-एक डॉलर दांत से पकड़कर खर्च होता था। घूमना-फिरना तो छोड़ दें। पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति पाकर या फिर व्यापार के दौरे या विदेश में नौकरी करने के लिए जानेवालों को भी कुल मिलाकर 125 डॉलर की रकम मिलती थी, जिसमें उन्हें गुजारा करना होता था। आज आप जहां चाहें, अपना घरेलू क्रेडिट कार्ड स्वाइप करके खर्च कर सकते हैं। यह कम हासिल नहीं है। हां, सफर बहुत बाकी है और रफ्तार बढ़ाने की जरूरत भी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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