भारत पर न हो कोई परमाणु पाबंदी
- भारत की परमाणु संस्थाओं पर लगे प्रतिबंधों को हटाने की पहल करने की अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन की घोषणा काफी अहम है। अपने भारत दौरे पर उन्होंने कहा है कि अमेरिका उन नियमों को हटाने के लिए जरूरी कदमों को…
कंवल सिब्बल, पूर्व विदेश सचिव
भारत की परमाणु संस्थाओं पर लगे प्रतिबंधों को हटाने की पहल करने की अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलिवन की घोषणा काफी अहम है। अपने भारत दौरे पर उन्होंने कहा है कि अमेरिका उन नियमों को हटाने के लिए जरूरी कदमों को अंतिम रूप दे रहा है, जिनके कारण भारत और अमेरिका की परमाणु कंपनियों के बीच असैन्य परमाणु सहयोग में रुकावट आ रही थी। अगर उनका यह बयान मूर्त रूप ले सका, तो निस्संदेह न सिर्फ 20 वर्ष पुराने ऐतिहासिक परमाणु समझौते को मजबूती मिलेगी, बल्कि तकनीक और प्रौद्योगिकियों के हस्तांतरण और मिसाइल, ऊर्जा एवं अंतरिक्ष क्षेत्रों में आपसी सहयोग भी काफी बढ़ेगा।
मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री काल में ही अमेरिका के साथ हमारा असैन्य परमाणु समझौता हुआ था, जिसके बाद वह अपनी असैन्य परमाणु प्रौद्योगिकी हमें बेच सकता था, लेकिन भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र, इंदिरा गांधी परमाणु अनुसंधान केंद्र, इंडिया रेयर अर्थ्स आदि तमाम संस्थाओं पर प्रतिबंधों के कारण द्विपक्षीय सहयोग में रुकावटें आती रहीं। यह सही है कि मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था, यानी एमटीसीआर के 35 सदस्यों में एक सदस्य हम भी हैं, लेकिन इस सदस्यता का अर्थ भी प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण नहीं है। इसका सिर्फ एक मतलब है कि हम इस व्यवस्था के नियमों को मान रहे हैं, यानी अगर हमारे ऊपर कोई पाबंदी है, तो संबंधित देश ही उसको हटा सकता है। अमेरिकी सुरक्षा सलाहकार के मुताबिक, इस पाबंदी के दिन अब खत्म होने वाले हैं।
बहरहाल, ऐसा करना अमेरिका की मजबूरी भी है। ऐसी कई योजनाएं हैं, जो तब तक साकार नहीं हो सकतीं, जब तक कि अमेरिका परमाणु पाबंदी संबंधी अपनी सूची में सुधार न कर ले। मसलन, भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते के बाद भी इन पाबंदियों के कारण भारत प्लूटोनियम का प्रसंस्करण नहीं कर सकता था। हमें अगर इसका कोई प्लांट लगाना हो, तो हमें अमेरिका की रजामंदी की जरूरत पड़ती है। चूंकि भारत अपने परमाणु कार्यक्रमों में लगातार बेहतर कर रहा है और हरेक देश भारत के साथ मिलकर आगे बढ़ना चाहता है, इसलिए अमेरिका को लग रहा है कि बिना भारत को साथ लिए वह ऊर्जा सहयोग में आगे नहीं बढ़ सकता। इसी तरह, सेमीकंडक्टर निर्माण को लेकर भी अमेरिकी कंपनियां भारत के साथ मिलकर काम करना चाहती हैं। अंतरिक्ष अनुसंधान में ही इसरो ने जिस कदर तरक्की की है, अमेरिका समेत तमाम विकसित देशों की एजेंसियां भारत से रश्क करने लगी हैं। जाहिर है, इन सब पर भारत के साथ आगे बढ़ने के दबाव में अमेरिका यह पहल कर रहा होगा।
वास्तव में, सन् 1974 में जब पहली बार राजस्थान के पोकरण में बुद्ध मुस्कराए थे, यानी हमने पहला परमाणु परीक्षण किया था, तब अमेरिका को यह खासा नागवार गुजरा था। ऐसा तब था, जबकि हमारी नीति शुरू से ही पहले परमाणु वार न करने और इसके शांतिपूर्ण इस्तेमाल को बढ़ावा देने की रही है। फिर भी, अमेरिका जितने प्रतिबंध लगा सकता था, उसने हम पर थोप दिया। बावजूद इसके अपनी काबिलियत के बूते हमने मई 1998 में दूसरी बार परमाणु परीक्षण किया। इसके बाद अमेरिका ने इन पाबंदियों का हल ढूंढ़ने का प्रयास करना शुरू किया। इसके लिए काफी हद तक दक्षिण एशिया की भू-राजनीति भी जिम्मेदार रही, विशेषकर चीन का खतरा अमेरिका को भी दिखने लगा था और भारतीय अर्थव्यवस्था भी तेजी से बढ़ने लगी थी। आज चीन हर मोर्चे पर अमेरिका को टक्कर दे रहा है और भारत अपने बाजार के बूते शीर्ष की पांच अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हो चुका है। ऐसे में, अमेरिका हर कीमत पर भारत को अपने पाले में रखना चाहता है। चूंकि असैन्य परमाणु समझौते से आपसी सहयोग के दरवाजे पूरी तरह से नहीं खुल पा रहे थे, इसलिए अब पाबंदियों को हटाने का प्रयास हो रहा है। उम्मीद है, इसके बाद द्विपक्षीय सहयोग का दरवाजा काफी हद तक खुल जाएगा।
हालांकि, अभी इसकी राह इतनी आसान नहीं है। अब भी कई ऐसी रुकावटें हैं, जिनसे पार पाना काफी मुश्किल हो सकता है। मिसाल के लिए, अमेरिका की तरफ से यह एलान तब किया गया है, जब जो बाइडन की सरकार बमुश्किल दो हफ्ते की मेहमान है। पाबंदी सूची में किसी तरह के बदलाव का फैसला आनन-फानन में नहीं लिया जा सकता। इसके लिए वहां की कई एजेंसियों की रजामंदी चाहिए होती है। फिर, कांग्रेस (अमेरिकी संसद) से भी इस फैसले पर मुहर लगनी अनिवार्य होगी। इन सबमें कुछ वक्त लग सकता है। अगर कुछ समय पहले यह पहल हुई होती, तो ‘फॉलोअप’ फैसले लिए जा सकते थे और संभव था कि पाबंदियां हट भी जातीं। मगर ऐन आखिरी मौके पर ऐसा करना शायद ही संभव हो सकेगा। फिर, अमेरिका में कई ऐसी लॉबी हैं, जो इसका विरोध करेंगी। इसमें भी कुछ वक्त जाया होगा।
फिर भी, उम्मीद यही है कि नए एलान से एक एजेंडा तैयार हो गया है, जिसकी अपनी अहमियत है। अमेरिका के नए निजाम के लिए इससे पीछे हटना मुश्किल हो सकता है, क्योंकि ऐसा करने से द्विपक्षीय रिश्तों पर नकारात्मक असर पड़ सकता है। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर यह दबाव बन सकेगा कि बाइडन की डेमोक्रेट सरकार जब संवेदनशील मसलों पर भारत के साथ आगे बढ़ने को तैयार थी, तो वह क्यों नहीं हैं? फिर, भारत में परमाणु ऊर्जा का बड़ा बाजार है, जिसमें हम लगातार तरक्की कर रहे हैं। ट्रंप इसको खोने का जोखिम शायद ही उठाना चाहेंगे।
इस पूरे घटनाक्रम से विशेषकर पाकिस्तान और चीन के कान खड़े हो गए होंगे। उल्लेखनीय है कि बीते महीने ही अमेरिका ने पाकिस्तान की कई परमाणु कंपनियों पर यह कहते हुए प्रतिबंध लगाए हैं कि इस्लामाबाद ऐसी मिसाइलें बनाने में जुटा है, जो अमेरिका तक को निशाने पर ले सकती हैं। इसी तरह, बीजिंग की नजर इस बात पर होगी कि नई दिल्ली-वाशिंगटन में जो करीबी बढ़ रही है, उससे उस पर क्या असर पड़ सकता है? मुमकिन है, वह अपनी अधिक उदार छवि पेश करने के लिए पाकिस्तान पर और ज्यादा पाबंदी लगाने की वकालत करे। जो भी हो, पाकिस्तान और चीन के रवैये में क्या बदलाव आता है, इसका जवाब तो भविष्य के गर्भ में है, पर इतना तय है कि भारतीय संस्थाओं पर से पाबंदी हटने से दक्षिण एशिया की भू-राजनीति खासा प्रभावित होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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