स्वदेशी एआई बनाने का सुनहरा समय
- बीते तीन वर्षों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता, यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के विकास में दो खास क्षण आए हैं। पहला, नवंबर, 2022 में चैटजीपीटी की घोषणा, जिससे एआई युग की शुरुआत हुई और दूसरा, पिछली जनवरी में डीपसीक का एलान…
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जसप्रीत बिंद्रा, तकनीक विशेषज्ञ
बीते तीन वर्षों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता, यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के विकास में दो खास क्षण आए हैं। पहला, नवंबर, 2022 में चैटजीपीटी की घोषणा, जिससे एआई युग की शुरुआत हुई और दूसरा, पिछली जनवरी में डीपसीक का एलान, जिसने महंगी व केंद्रीकृत एआई की धारणा को बदलकर इसके सस्ते और लोकतांत्रिक होने की मुनादी कर दी।
आज भले ही चीन में विकसित डीपसीक की लागत महज 56 लाख डॉलर होने पर संदेह जताया जा रहा हो, पर यह एआई प्लेटफॉर्म दो वजहों से काफी अहम है - पहली, ओपेन-सोर्स मॉडल (सबके लिए मुफ्त में सुलभ) लगभग मालिकाना मॉडल (जिसकी खरीद-बिक्री संभव हो) जैसा अच्छा है और दूसरी, चीन के एआई मॉडल भी अमेरिकी मॉडल की तरह ही अच्छे हैं। यह सही है कि चैटजीपीटी सुविधा देने वाली कंपनी एनवीडिया के शेयर गिरने के बावजूद अमेरिकी निवेशकों ने बड़ी अमेरिकी टेक्नोलॉजी कंपनियों पर अपना भरोसा बनाए रखा है, मगर सवाल यह है कि दुनिया में निरंतर विकसित होते जा रहे एआई के आधारभूत मॉडलों का क्या होगा और इस प्रतिस्पद्र्धा में आज भारत कहां खड़ा होगा?
ये मॉडल अपनी विकास यात्रा में अंग्रेजी वर्ण ‘के’ की राह पर चल सकते हैं। ‘के’ आकार की अर्थव्यवस्था की चर्चा अर्थशास्त्री कोविड महामारी और लॉकडाउन के बाद से करते रहे हैं, जिसमें अर्थव्यवस्था का असमान पुनरोद्धार हो रहा है, यानी कुछ क्षेत्र, उद्योग या लोग तो तेजी से आगे बढ़ते हैं, जबकि बाकी क्षेत्रों में यथोचित विकास नहीं देखा जा रहा है। लगता है, लार्ज लैंग्वेज मॉडलों के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। बड़े मॉडल अधिक महंगे होते जा रहे हैं, क्योंकि बड़ी कंपनियां एनवीडिया की नवीनतम ग्राफिक्स प्रोसेसिंग यूनिट (जीपीयू) पर, बड़े मॉडलों के विकास और प्रशिक्षण देने पर, विशाल डाटा सेंटर और उनके संचालन के लिए जरूरी बिजली पर अरबों डॉलर खर्च कर रही हैं। मगर इस बीच, डीपसीक और किमी के1.5, क्वेन 2.5, डौबाओ 21.5 प्रो जैसे चीनी मॉडलों की बाढ़ आ गई। ओपन-सोर्स होने के कारण ये लागत को ‘के’ के निचले हिस्से की ओर ले जा रहे हैं। पुराने व कम चिप का इस्तेमाल करके ये मॉडल महज लाखों डॉलर में विकसित किए जा रहे हैं और लोकप्रिय हो रहे हैं। जाहिर है, अर्थशास्त्र की तरह ही यहां भी विकास का ‘के-वक्र’ बनेगा।
बडे़ खिलाड़ी एआई मॉडल को अधिक कुशल और सुपर इंटेलिजेंट बनाने की कोशिश करेंगे, जिसके कारण एआई आधारित सुविधाएं महंगी होंगी। मगर ध्यान रहे, भारत में ऐसी सुविधाओं का किफायती होना जरूरी है। एक पक्ष, एआई को महंगा बनाने की कोशिश करेगा। वहीं, दूसरा पक्ष, एआई को अत्यधिक लोकतांत्रिक बनाने और हर नागरिक तक इसे पहुंचाने का प्रयास करेगा, ताकि एक बड़ी आबादी की समस्याओं का निदान हो सके। किसी भी तकनीक का तभी सही लाभ मिल सकता है, जब वह आम आदमी तक सहजता से पहुंच जाए। अनेक देश हैं, जो सस्ते एआई मॉडल को बनाने और बेचने पर जोर देंगे। भारत भी खुद को इसी श्रेणी के देशों में रखना चाहेगा।
केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव भी इसी राह पर चलते दिख रहे हैं, तो आश्चर्य नहीं। उन्होंने हाल ही में भारत द्वारा स्वदेशी एआई मॉडल तैयार किए जाने की घोषणा की है। चीन आधारित एआई डीपसीक की भारी सफलता को देखकर भारत आत्मविश्वास के साथ अपने लार्ज लैंग्वेज मॉडल की कल्पना कर सकता है। हमें स्थानीय तौर पर विकसित ऐसे मॉडल की जरूरत है, जो यहां की भाषायी व सांस्कृतिक विविधता को समझ सके। खास तौर से यहां एआई को गैर-अंग्रेजीभाषी आबादी के अनुकूल बनाना होगा। ऐसे मॉडल को भारत के खास डाटासेट की कसौटी पर कसना होगा। ऐसी तमाम सूचनाओं का संयोजन करना होगा, जिसमें हमारी सांस्कृतिक व सामाजिक बारीकियों का पूरा ख्याल रखा जा सके। कोई भी विदेशी एआई भारतीयों की जिज्ञासा का समाधान नहीं कर पाएगा। यहां एक बड़ी चिंता आम भारतीयों की गोपनीयता और सुरक्षा की भी है। हमारी स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा संबंधी समस्याओं पर भी विशेष ध्यान देने की जरूरत है।
किफायती इंजीनियरिंग में अपनी विशेषज्ञता को देखते हुए हम एक ऐसा एआई मॉडल विकसित कर सकते हैं, जिसमें लागत काफी कम आए। मगर हमें इसे नागरिक-केंद्रित बनाना होगा, जो 1.4 अरब भारतीयों के लिए तैयार किया गया हो, ठीक डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (डीपीआई) की तरह। जिस आसानी से भारतीय यूपीआई या डिजिटल पेमेंट सुविधा का लाभ ले रहे हैं, ठीक उसी तरह से भारत का अपना एआई भी होना चाहिए। निस्संदेह, इस राह में बहुत चुनौतियां हैं। यहां कई तरह के एआई मॉडल बनाने का अर्थ है कि हमें अधिक संसाधनों की जरूरत पड़ेगी। फिर, हमें प्रतिभा और अनुसंधान से जुड़ी चुनौतियां भी झेलनी होंगी। यही नहीं, ध्यान रखना होगा कि हम अब भी जीपीयू और चिप के लिए अमेरिका पर निर्भर हैं। मगर हमने पहले भी ऐसी सफलता हासिल की है, जैसे- सरकार, शिक्षाविदों और उद्योग जगत ने मिलकर डीपीआई तैयार किया, जिसने डिजिटल बदलाव को मुमकिन बनाया। साफ है, एआई अब राष्ट्रीय अभियान बन चुका है, ठीक डीपीआई या इसरो के अंतरिक्ष अभियानों या हरित क्रांति की तरह। भारत जब पहले इन तकनीकी क्षेत्रों में दुनिया को मात देने वाली मिसाल कायम कर चुका है, तो फिर एआई में क्यों नहीं? स्वदेशी एआई मॉडल एक अच्छी शुरुआती होगी।
हमारे एआई से ज्यादा संवेदनशीलता और सजगता की उम्मीद रहेगी। यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि डीपसीक सच्चाई के पैमाने पर बहुत अच्छा है और इसके सभी दावे वैध हैं। यहां हमें सचेत रहना होगा और इसलिए भारतीय एआई का विकास अनिवार्य है।
हमारे द्वारा विकसित एआई मानवता का भविष्य और इंटरनेट को व्यवस्थित करने का एक नया माध्यम हो सकता है। तकनीकी का महत्व बढ़ेगा, पर धीरे-धीरे नैतिकता तकनीक से ज्यादा महत्वपूर्ण होती जाएगी। केवल भारतीयों के लिए ही नहीं, इस ग्रह पर हम सभी आठ अरब लोगों के पास एआई-साक्षर होने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। आज जरूरी है कि तकनीक इंसानों को नियंत्रित न करे, बल्कि इंसान ही तकनीक का लाभ उठाते हुए विकास करे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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