Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगHindustan opinion column 17 January 2025

बुरे दौर की ओर इशारा कर गए बाइडन

  • अपने विदाई भाषण में निवर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अमेरिका में लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट, बढ़ती असहिष्णुता और खत्म हो चुकी राजनीतिक सहमति की तरफ जो इशारा किया, उसके गहरे निहितार्थ लगाए जा सकते हैं…

Hindustan लाइव हिन्दुस्तानThu, 16 Jan 2025 10:36 PM
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अश्विनी महापात्रा, प्रोफेसर, जेएनयू

अपने विदाई भाषण में निवर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अमेरिका में लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट, बढ़ती असहिष्णुता और खत्म हो चुकी राजनीतिक सहमति की तरफ जो इशारा किया, उसके गहरे निहितार्थ लगाए जा सकते हैं। दरअसल, वह बताना चाह रहे थे कि जिन लोकतांत्रिक मूल्यों की बुनियाद पर अमेरिका की नींव पड़ी है, उसे खोखला किया जा रहा है। हालांकि, ऐसा कहते हुए वह परोक्ष रूप से अपनी विफलता ही गिना रहे थे। सवाल तो यही है कि अपने चार साल के कार्यकाल में वह अमेरिकी मूल्यों को बनाए रखने में इस कदर विफल क्यों रहे?

वास्तव में, बाइडन के लिए चुनौती नवंबर, 2020 में तभी शुरू हो गई थी, जब उन्होंने राष्ट्रपति पद का चुनाव जीता था। जनादेश को न मानते हुए रिपब्लिकन नेता डोनाल्ड ट्रंप ने 6 जनवरी, 2021 को अपने समर्थकों के साथ कैपिटल हिल (संसद भवन) पर चढ़ाई कर दी थी। इस घटना से सबक लेकर यदि बाइडन ने रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक पार्टी में आमराय बनाने की कोशिश की होती, तो शायद आज की तस्वीर अलग होती। मगर वह ऐसा करने में विफल रहे, जिसकी वजह से अपने पूरे कार्यकाल में उन्हें तमाम तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा। यहां तक कि उन्हें अपनी पार्टी में भी विरोध का सामना करना पड़ा, जिसकी झलक पिछले राष्ट्रपति चुनाव में भी दिखी। बाइडन को बेमन से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी छोड़नी पड़ी और कमला हैरिस का नाम आगे करना पड़ा।

अमेरिका बेशक दूसरे देशों में लोकतांत्रिक मूल्यों के संरक्षण को लेकर उत्सुक रहा हो, लेकिन बाइडन के कार्यकाल में उसे अपने ही घर में इन मूल्यों को बनाए रखने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। अमेरिका की छवि अफगानिस्तान से सैनिकों की वापसी से भी प्रभावित हुई। अगस्त, 2021 में करीब दो दशक पुरानी जंग का अंत करते हुए बाइडन ने अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला लिया। हालांकि, इसके बारे में दोहा समझौता सन् 2020 में ट्रंप के पिछले कार्यकाल में ही हो गया था, लेकिन उनकी विदाई के जो वीडियो आए या जिस तरह से उन्होंने वहां अपने टैंक और हथियार छोड़े, उससे विश्व बिरादरी में यही संदेश गया कि अमेरिका को वहां से भागना पड़ा है।

यूक्रेन युद्ध को न रोक पाना भी बाइडन की विफलता मानी जाएगी। अमेरिका ने यूक्रेन को पैसे दिए, हथियार दिए और रसद भी दिए, बावजूद इसके तीन साल से यह जंग जारी है। इसने नाटो देशों तक में मतभेद पैदा कर दिया। हां, इस युद्ध के बहाने रूस को कुछ हद तक कमजोर कर पाने में बाइडन जरूर सफल हुए हैं, पर प्रतिबंधों के बावजूद जिस तरह से मॉस्को अपनी अर्थव्यवस्था चलाता रहा, उससे वाशिंगटन को बहुत फायदा नहीं हो सका। यहां तक कि परमाणु युद्ध की आशंका भी बनती-बिगड़ती रही है।

कुछ यही स्थिति पश्चिम एशिया की रही। उनके पूरे कार्यकाल में यहां उथल-पुथल बनी रही। वास्तव में, इस क्षेत्र को लेकर बाइडन सरकार की कोई खास नीति रही ही नहीं, जिस कारण स्थानीय खिलाड़ियों को अपना घेरा मजबूत बनाने में कामयाबी मिली। हमास और हिजबुल्लाह जैसे संगठनों ने इसका अपने हित में फायदा उठाया। यहां ईरान जैसी ताकतों के खिलाफ विशेष नीति की दरकार थी, पर बाइडन खामोश बने रहे। नतीजतन, ईरान और चीन में करीबी बढ़ने लगी। ट्रंप बतौर राष्ट्रपति कभी-कभी सख्त नीति अपना लिया करते थे, लेकिन बाइडन ने बिल्कुल शांत रहना ही उचित समझा।

चीन को लेकर बाइडन ने ट्रंप की नीति को ही आगे बढ़ाया। ट्रंप ने क्वाड (भारत, ऑस्टे्रलिया, जापान और अमेरिका का संगठन) को एक सांगठनिक रूप देने का प्रयास किया था और बाइडन ने इसकी ऑनलाइन बैठक आयोजित करके इस संगठन को शासनाध्यक्षों के स्तर तक सक्रिय कर दिया। यह उनकी एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। हिंद प्रशांत क्षेत्र पर भी सामरिक सहमति बनाने में बाइडन कुछ हद तक सफल रहे। बेशक, उन्होंने चीन से सीधे-सीधे मोर्चा नहीं लिया, पर एक तरह से यह संदेश देने से भी नहीं चूके कि हिंद महासागर पर किसी एक का दबदबा नहीं हो सकता। इसका असर भी पड़ा। चीन अगर दबाव में आया है और नई दिल्ली के साथ उसने सीमा समझौता किया है, तो उसकी एक बड़ी वजह भारत-अमेरिका दोस्ती है, जिसे वह अपने लिए बड़ी चुनौती मानता है।

यही वह मुकाम है, जहां हम कह सकते हैं कि बाइडन के दौर में भारत और अमेरिका के रिश्तों में काफी सुधार आया। अव्वल तो हमने चीन पर काफी हद तक दबाव बनाए रखा है, फिर तमाम प्रतिबंधों के बावजूद हमने रूस के साथ अपने व्यापारिक रिश्ते भी बनाए रखे, जिसका वाशिंगटन ने कभी विरोध नहीं किया। यहां तक कि बाइडन के जाते-जाते भी एक अच्छी खबर हमारे लिए आई कि अमेरिका अब हमारे परमाणु संस्थानों पर से प्रतिबंध हटाने की कवायद शुरू करने जा रहा है।

वैसे, बाइडन का कार्यकाल इसलिए भी याद रखा जाएगा, क्योंकि उन्होंने सेना का ज्यादा इस्तेमाल नहीं किया। ऐसा शायद इसीलिए, क्योंकि वह अमेरिका की छवि और उसके लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर ज्यादा संजीदा रहे हैं। अपने विदाई भाषण में ही उन्होंने यह चेतावनी दी कि अमेरिका में सत्ता पर प्रभाव डालने वाला एक ओलिगार्की (कुलीन तंत्र) आकार ले रहा है, जिसकी कमान दौलतमंदों के हाथों में है। उन्होंने फर्जी खबरों के प्रसार और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) को भी अमेरिकी लोकतंत्र के सामने संभावित खतरा बताया है। बाइडन के मुताबिक, ‘टेक-इंडस्ट्रीयल कॉम्प्लैक्स’ है, यानी आज के अमेरिका में तकनीक व उद्योग से जुडे़ लोग सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं पर हावी हो गए हैं। यह सीधे-सीधे डोनाल्ड ट्रंप और उनकी टीम, विशेषकर टेस्ला के मालिक एलन मस्क पर की गई टिप्पणी है।

वाकई, यह विडंबना ही है कि आज अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट नेताओं में इस कदर दूरी बन गई है कि मुल्क में आम राजनीतिक सहमति नहीं बन पा रही। वे दिन लद गए, जब दोनों प्रमुख पार्टियां राष्ट्रहित में एक साथ आ जाती थीं, लेकिन आज मसला जलवायु संरक्षण का हो, ग्लोबल वार्मिंग, एआई या फिर चीन से मुकाबला, दोनों दल एक-दूसरे के आमने-सामने जंग की मुद्रा में हैं। बाइडन आंतरिक रूप से विभाजित इस अमेरिका को एक करने में विफल रहे। देखना यह है कि बतौर नए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप एक बहुध्रुवीय और परस्पर निर्भर दुनिया में अमेरिका को प्रभावी नेतृत्व दिलाने में कितना सफल हो पाते हैं? उनके सामने भी वही चुनौतियां हैं, जो बाइडन के सामने थीं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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