ब्रह्मपुत्र पर न बने मनमानी का बांध
- भारत और चीन के बीच भू-राजनीतिक तनाव का नया केंद्र तिब्बत के मेडोग काउंटी की विशाल घाटी में तैयार होता दिख रहा है। यहां यारलुंग त्सांगपो अर्थात ब्रह्मपुत्र नदी भारत के अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करने से पहले यू-टर्न लेती है…
निम्मी कुरियन, प्रोफेसर, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च
भारत और चीन के बीच भू-राजनीतिक तनाव का नया केंद्र तिब्बत के मेडोग काउंटी की विशाल घाटी में तैयार होता दिख रहा है। यहां यारलुंग त्सांगपो अर्थात ब्रह्मपुत्र नदी भारत के अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करने से पहले यू-टर्न लेती है। यहां विशाल जलराशि का तीव्र वेग देखा जाता है, यहीं चीन दुनिया की सबसे बड़ी पन-बिजली परियोजना का विकास करना चाहता है। यहां चीन प्रति घंटे 300 अरब किलोवाट बिजली पैदा करेगा और इस संयंत्र की कुल क्षमता 60,000 मेगावाट होगी। इसके लिए वह 137 अरब डॉलर खर्च करने को तैयार है। इस परियोजना का सीधा असर भारत और बांग्लादेश में उन लोगों पर पड़ेगा, जो इस नदी के प्रवाह क्षेत्र में रहते हैं। जाहिर है, चीन की मंशा पर भी सवाल उठ रहे हैं। क्या तरल सोने के लिए चीन की खोज दक्षिण एशिया के लिए जहर का प्याला साबित होगी?
तिब्बत एशिया की कई शक्तिशाली नदियों का स्रोत है। ये नदियां एशिया के सबसे अधिक आबादी वाले क्षेत्रों में बहती हैं। यह स्पष्ट है कि चीन तिब्बतीय क्षेत्र में बहुत तेजी से आर्थिक गतिविधियां चला रहा है। विकास की गतिविधियों के चलते तिब्बत साल 2000 के बाद से ही भारी दबाव का सामना कर रहा है। आर्थिक गतिविधियों के चलते वनों की कटाई, मिट्टी का क्षरण, भूस्खलन, बाढ़, अम्लीय वर्षा और प्रदूषण में बढ़ोतरी देखी जा रही है। इन जल स्रोतों की स्थिति दिनों-दिन दुर्बल भी होती जा रही है। इस पूरे क्षेत्र में अनेक तरह की समस्याएं सामने आई हैं। चीन अपने तेज विकास से पसरता चला जा रहा है और अपनी सीमा के पार भी उसका प्रभाव फैलता जा रहा है।
पिछले कुछ वर्षों में पानी पर भारत-चीन के बीच बातचीत सतही तौर पर ही चलती रही है। यह बातचीत विवाद के अंतिम समाधान तक पहुंचने में असमर्थ और अक्सर अनिच्छुक भी रही है। समय-समय पर होने वाले गतिरोधों और शत्रुता के इतिहास के चलते भी समाधान की इच्छा का अभाव रहा है। दोनों देशों के बीच विवादों का पुख्ता समाधान लक्ष्य भी नहीं है, इसलिए भी बातचीत के नतीजे बहुत मामूली निकलते हैं। हिमालयी क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की भूमिका भी वास्तविक कम, और प्रतीकात्मक ज्यादा रही है। यही वजह है कि भारत, चीन, नेपाल इत्यादि क्षेत्रों में विवाद बढ़ रहे हैं।
एक कड़वा सबक भारत ने 2017 में कीमत चुकाकर सीखा था, जब चीन ने भारत के साथ हाइड्रोलॉजिकल डाटा साझा करने से इनकार कर दिया, पर बांग्लादेश के साथ डाटा साझा करने के लिए वह आगे बढ़ा। भारत-चीन गतिरोध की पृष्ठभूमि में ही डोकलाम में झड़प हुई, जवान शहीद हुए। हर बार चीन हावी दिखा।
जल-सुरक्षा के संबंध में भारत की नीति लचीली रही है, जिससे भारत के हितों को नुकसान पहुंचा है। बहुत सुरक्षित ढंग से चलने की परंपरा के चलते दोटूक संवाद की संभावना नहीं बन पा रही है। नतीजतन, हमने चीन के सामने हमेशा अपनी न्यूनतम मांगें रखी हैं, जिसके चलते चीन को खुली छूट मिल गई है। वह अपने निचले इलाकों या पड़ोसियों की चिंता के प्रति किसी भी जवाबदेही के बिना आगे बढ़ रहा है। सुधार की उम्मीद कम होती जा रही है। इसका एक कारण यह भी है कि चीनी दृष्टिकोण मैकेनिकल है, वह हर बात में सौदेबाजी को तरजीह देता है। तिब्बत स्थित तीन स्टेशनों से बाढ़ के मौसम में हाइड्रोलॉजिकल डाटा पाने के लिए भारत सालाना 82 लाख रुपये का भुगतान करता है।
ब्रह्मपुत्र के बारे में भी चीन केवल एकआयामी अध्ययन कर रहा है और इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। पानी की गुणवत्ता के गंभीर मुद्दे से भी ध्यान हट गया है। ऐसी ही निष्क्रियता की कीमत 2017 में सामने आई थी, जब ब्रह्मपुत्र का पानी काला हो गया था। जल प्रदूषण का स्तर कथित तौर पर 1,249 एनटीयू हो गया था, जो सुरक्षित सीमा से 250 गुना अधिक था।
विशेष चिंता का विषय तीन नदियों का क्षेत्र है, जिसमें मध्य तिब्बत में यारलुंग त्सांगपो, ल्हासा नदी और न्यांगचू बेसिन शामिल हैं, यह क्षेत्र पर्यावरणीय गिरावट का भी सामना कर रहा है। इस क्षेत्र में सबसे अधिक दोहन वाले क्षेत्रों में से एक ग्यामा घाटी भी स्थित है, जहां तांबा, मोलिब्डेनम, सोना, चांदी, सीसा और जस्ता के भंडार हैं। चीनी वैज्ञानिकों के अध्ययन ने भी यहां नदियों की धारा के तलछट और अवशेषों में भारी धातुओं की उच्च सामग्री की आशंका की ओर इशारा किया है। जाहिर है, जब पानी बढ़ेगा और चीन पानी छोड़ेगा, तो तलछट व अवशेषों को बहकर नीचे आने का रास्ता मिल जाएगा। पूरे हिमालय क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बांध-निर्माण परियोजनाओं की वजह से तलछट में जमा कचरा या संचयी प्रभाव के बारे में भी बड़े सवाल उठते हैं।
ध्यान देने की बात है कि हिमालय क्षेत्र में भूगर्भीय गतिशीलता भी ज्यादा है, भूकंप एक हमेशा मौजूद रहने वाला खतरा है। खुद चीनी वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया है और पाया है कि पश्चिमी चीन के सिचुआन प्रांत में साल 2008 में जो भूकंप आया था, जिसमें 80,000 लोग मरेे थे, जिपिंगपु बांध को भी नुकसान पहुंचा था ।
पिछले हफ्ते तिब्बत में शिगात्से के पास 7.1 तीव्रता का भूकंप चीन को याद दिलाता है कि अब बांध निर्माण न तो लागत-मुक्त है और न किसी समस्या का रामबाण है। ऐसे बांधों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। बीजिंग को विचार करना चाहिए कि ऐसे बांध के क्या जोखिम हैं, इसकी पर्यावरणीय लागत कितनी है, इसे लेकर क्षेत्रीय या वैश्विक भावनाओं का क्या स्वरूप है?
सवाल यह भी है कि ब्रह्मपुत्र के तटवर्ती देश क्या वैश्विक स्तर पर किसी मिसाल से सीख सकते हैं? चाहे वह उत्तरी अमेरिका में 1909 का ऐतिहासिक ग्रेट लेक्स समझौता हो या दक्षिण-पूर्वी यूरोप में 2005 में स्थापित अंतरराष्ट्रीय सावा नदी बेसिन आयोग हो। नदी जल समाधान के ये समृद्ध साक्ष्य हमें बताते हैं कि तटवर्ती देशों के बीच विश्वास और सहयोग को आदत में ढालने में समय लगता है। कैटामायो-चिरा, जारुमिला, पुयांगो-टुम्बेस जल क्षेत्र की संयुक्त रूप से रक्षा करने के लिए 2023 में हुए इक्वाडोर-पेरू समझौते से पता चलता है, परस्पर सहयोग के लंबे प्रयासों के बाद ही ऐसा समझौता संभव होता है। ऊपर किसी जगह पर बांध बनाने से पहले नीचे के देशों के जन-जीवन, खेती और खेतिहर लोगों का भविष्य भी देखना चाहिए। क्या अभी प्रभावित होने वाले लोगों का व्यापक हित देखा जा रहा है?
व्यापक सुरक्षा से जुड़े ब्रह्मपुत्र विमर्श पर तमाम उदाहरणों से सबक लेते हुए बहुत सोच-विचार के साथ चलना होगा। लापता जल एजेंडे को आवाज देने और पूरे दिल से अपना हित देखने की जरूरत है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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