Hindi Newsओपिनियन ब्लॉगHindustan opinion column 14 January 2025

उस महाकुम्भ ने हमें बहुत सिखाया

  • सन् 1954 के माघ महीने की ठिठुरती सर्दियों की एक दोपहरी। सूरज अपनी कमजोर किरणों के साथ बर्फीली हवाओं का मुकाबला करने की कोशिश कर ही रहा था कि ऊंची काठी और चमकती काली त्वचा वाले घोड़े पर तनकर बैठा छह फीट से लंबा और 40 के पेटे में पहुंचा…

Hindustan लाइव हिन्दुस्तानMon, 13 Jan 2025 11:01 PM
share Share
Follow Us on
उस महाकुम्भ ने हमें बहुत सिखाया

विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी

सन् 1954 के माघ महीने की ठिठुरती सर्दियों की एक दोपहरी। सूरज अपनी कमजोर किरणों के साथ बर्फीली हवाओं का मुकाबला करने की कोशिश कर ही रहा था कि ऊंची काठी और चमकती काली त्वचा वाले घोड़े पर तनकर बैठा छह फीट से लंबा और 40 के पेटे में पहुंचा, पर अपनी चुस्ती से नौजवानों को भी शर्मिंदा करने वाला एक अधेड़ नदी के किनारे बने बंधे पर नीचे मीलों फैले गंगा के कछार का मुआयना करने के लिए रुका। गंगा के विशाल तट पर पसरी असंख्य मानवता एक-दूसरे से सटी-सिमटी अपनी कमजोर काया को सर्दियों की मार से बचाने की कोशिश कर रही थी। घुड़सवार खुद तो असाधारण लंबाई का मालिक था ही, उसने अपने सिर पर जो खाकी पगड़ी पहन रखी थी, उसका कलफदार तुर्रा ही छह इंच ऊंचा था। राइडिंग बूट्स, ब्रीचेज और मेहनत से प्रेस की गई सूती खाकी कमीज पहने उसके शरीर को क्रॉस बेल्ट ने कस रखा था। एक खास तरह के अफसरी रौब-दाब से भरी उसकी आंखें अचानक सिकुड़ीं, लगा कि उसकी नजरें जो देख रही हैं, उस पर यकीन करने में उसे कुछ दिक्कत आ रही है। सामने एक दूसरे खूबसूरत घोड़े पर देश का प्रधानमंत्री चला आ रहा था। आजादी के बाद सन् 1954 में पहला कुम्भ था और पंडित जवाहरलाल नेहरू इलाहाबाद के ही रहने वाले थे, इसलिए स्वाभाविक ही था कि वह कुम्भ के सफल बंदोबस्त में दिलचस्पी रखते थे। उन दिनों प्रधानमंत्री की सुरक्षा कितनी कम ताम-झाम वाली थी, इसका अंदाज इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री की मेला-क्षेत्र में आमद की जानकारी वहां के सबसे बड़े पुलिस अधिकारी तक को नहीं थी।

पहले सवार जमुना प्रसाद त्रिपाठी ने, जो मेले की पुलिस व्यवस्था के एसएसपी या वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे, बायें हाथ से रास संभालते हुए अपना बदन सीधा किया और दाहिने हाथ से प्रधानमंत्री को एक कड़क सैल्यूट मारा। प्रधानमंत्री ने गर्दन की जुंबिश से जवाब तो दिया, पर उन्हें करीब आने का इशारा भी किया। फुर्ती से पहला सवार अपने घोड़े से उछलकर उतरा, लगाम साथ चल रहे साईस को थमाई और तेज चाल से प्रधानमंत्री के पास पहुंच एक कड़क थम बनाया और सैल्यूट किया। प्रधानमंत्री ने बायें हाथ से रास थामी और दाहिने हाथ से उसकी पीठ थपथपाते हुए जो शाबाशी दी, उसका मतलब था कि इससे अच्छा इंतजाम हो ही नहीं सकता। उस खुशी की कल्पना कीजिए, जो एक पुलिस अधिकारी को अपने देश के प्रधानमंत्री के हाथों शाबाशी हासिल कर हुई होगी।

चौबीस घंटों में ही ऐसा क्या हुआ कि दूसरे दिन आधी रात जब थके-मांदे जमुना प्रसाद त्रिपाठी अपने घर में घुसे, तो पत्नी का स्वर सुनाई दिया, ‘देखो, हत्यारा आ गया।’

सन् 1989 के कुम्भ के लिए मेरी नियुक्ति उसी पद पर हुई, जिस पर कभी जमुना प्रसाद त्रिपाठी रह चुके थे। 1954 के अनुभवों के बाद सरकारें सतर्क हो गई थीं और एसएसपी की नियुक्ति एक साल पहले होने लगी थी, सो मैं भी काफी पहले पहुंच गया था और काफी समय इलाहाबाद शहर में पिछले कुम्भों के प्रबंध से जुड़े व्यक्तियों और दस्तावेजों को खंगालकर खुद को दुनिया के इस सबसे बड़े मेले के इंतजाम के लिए मानसिक व शारीरिक रूप से तैयार करता रहा। इन्हीं तैयारियों के सिलसिले में 1954 और 1965 के कुम्भों के एसएसपी रहे जमुना प्रसाद त्रिपाठी और केपी श्रीवास्तव से साक्षात्कार हुए। 1954 के कुम्भ के उस अनुभव को सुनाते हुए जमुना प्रसाद त्रिपाठी की बूढ़ी आंखें चमकने लगी थीं, जिसमें देश के प्रधानमंत्री ने उनकी पीठ थपथपाई थी, पर अगला अनुभव इतना भयानक था कि उसे सुनाते हुए उनका गला अवरुद्ध हो गया।

प्रधानमंत्री की शाबाशी हासिल करने के दूसरे दिन का वर्णन सुनाया हिंदी के वरिष्ठ कथाकार मार्कण्डेय ने। वह छात्र थे और दारागंज के एक ऊंचे टीले से नीचे गंगा तट पर असंख्य नरमुंडों के प्रवाह को देख रहे थे। उन्हीं के शब्दों में अगर बंधे से चावल छीटा जाता, तो एक भी दाना जमीन पर नहीं गिरता। अचानक उन्होंने देखा कि भीड़ में कुछ अजीब सी हलचल हुई और दूर से ऐसा लगा कि लोग एक-दूसरे पर लेटते जा रहे हैं और जब तक ऊपर के लोग कुछ समझते सड़क और तट की गहराई एक समान हो गई। आधिकारिक संख्या कुछ भी हो, आमजन में प्रचलित विश्वास के अनुसार स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के इस पहले कुम्भ की असफल व्यवस्था के चलते हजारों लोग मरे थे।

सन् 1954 के अनुभवों से सबक लेकर 1965 के कुम्भ के बंदोबस्त किए गए। इस बार पुलिस व्यवस्था के प्रभारी थे केपी श्रीवास्तव। जमीनी अनुभवों और व्यावहारिक सूझ-बूझ के धनी श्रीवास्तव ने हर ‘स्टेकहोल्डर’को विश्वास में लेते हुए मेला क्षेत्र का चप्पा-चप्पा छान डाला था। किसी तरह की दुर्घटना न होने पाए, इसके लिए जो ट्रैफिक प्लान और आपात योजनाएं बनाई गई थीं, उनमें वह किस तरह रचे-बसे थे, इसका एहसास मुझे सिर्फ इस तथ्य से होता रहा कि अपना कुम्भ सफलतापूर्वक संपन्न कराने के दो दशक बाद भी कई किस्तों में घंटों ट्रैफिक प्लान और आपातकालीन योजनाओं के बारे में विस्तार से बताते हुए उन्हें एक बार भी स्थानों या व्यक्तियों के नामों की पुष्टि करने के लिए किसी कागज को देखने की जरूरत नहीं पड़ी। उनके बनाए प्लान ही बाद के कुम्भों में थोड़े-बहुत वक्ती संशोधनों के साथ सफलता से चलते रहे।

मैंने उपरोक्त दो घटनाओं का उल्लेख अंग्रेजी की उस कहावत को याद करने के लिए किया है, जिसके अनुसार सफलता और विफलता के बीच बड़ी महीन रेखा होती है। वर्ष 1988-89 में देश में खालिस्तानी चरमपंथ अपने उरुज पर था, कश्मीर भी जल रहा था और तरह-तरह की अफवाहेंकुम्भ को लेकर गर्दिश कर रही थीं। मेरी दिल्ली में पेशी हुई और एक लंबी बैठक को बर्खास्त करते हुए नेशनल सिक्योरिटी गार्ड के तत्कालीन महानिदेशक वेद मारवाह ने मुझसे कहा कि वापस जाने के पहले मैंयह आश्वासन दूं कि कुम्भ शांति से निपट जाएगा। मैंने उनसे इजाजत लेकर उन्हें जमुना प्रसाद त्रिपाठी का किस्सा सुनाया। कुम्भ में यह गारंटी कोई नहीं दे सकता, केवल केपी श्रीवास्तव जैसे सूझ-बूझ वाले अधिकारी ही अपने कौशल से उसे सकुशल निपटा सकने की उम्मीद कर सकते हैं। इस बार अच्छी बात है कि राज्य सरकार ने अपने बेहतरीन अधिकारियों को वहां बंदोबस्त में लगाया है। उम्मीद है, वे 1965 वाली सफलता एक बार फिर दोहरा सकेंगे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

लेटेस्ट   Hindi News ,    बॉलीवुड न्यूज,   बिजनेस न्यूज,   टेक ,   ऑटो,   करियर , और   राशिफल, पढ़ने के लिए Live Hindustan App डाउनलोड करें।

अगला लेखऐप पर पढ़ें