मनमोहन सिंह, आप याद रहेंगे
- पिछले दो दिन के अखबार देख लीजिए। उनकी प्रशंसा में पन्ने रंगे पडे़ हैं। सोशल मीडिया में सैकड़ों वीडियो और लेख उन पर साझा किए जा चुके हैं। एक व्यक्ति, जो पिछले 10 सालों से राजनीतिक वार्धक्य के अंधियारे में छिपा हो, उसके लिए सहज भूल जाने…
इतिहास की पोथियों में मेरा नाम कैसे दर्ज किया जाएगा? क्या यह सवाल मनमोहन सिंह को भी मथता रहता था? ऐसा न होता, तो वह अपने एक संवाददाता सम्मेलन में कतई यह नहीं कहते कि इतिहास मेरे प्रति अधिक उदार होगा। वैसे इस प्रश्न का उत्तर बहुत कठिन नहीं है।
पिछले दो दिन के अखबार देख लीजिए। उनकी प्रशंसा में पन्ने रंगे पडे़ हैं। सोशल मीडिया में सैकड़ों वीडियो और लेख उन पर साझा किए जा चुके हैं। एक व्यक्ति, जो पिछले 10 सालों से राजनीतिक वार्धक्य के अंधियारे में छिपा हो, उसके लिए सहज भूल जाने वाली इस दुनिया में ऐसा सम्मान सामान्य नहीं है। उनका काम यकीनन आने वाले वर्षों में उन्हें और अधिक मान्यता दिलाएगा।
ऐसा कहने के पीछे सबसे बड़ी वजह यह है कि मैंने खुद मनमोहन सिंह को नजदीक से देखा है। उनके साथ दर्जन भर से अधिक विदेशी दौरों पर मैंने पाया कि जो लोग उन्हें कमजोर अथवा मौकापरस्त मानते हैं, वे सिरे से गलत हैं। कुछ उदाहरण देता हूं।
हम बीजिंग की उड़ान पर थे। प्रधानमंत्री के तत्कालीन मीडिया सलाहकार संजय बारू ने सूचित किया कि कुछ ही देर में प्रधानमंत्री आप लोगों से रूबरू होंगे। उस समय मनमोहन सिंह की सरकार वामपंथी दलों के सहयोग की बैसाखियों पर टिकी हुई थी। वामपंथियों का मानना था कि भारत के लिए परमाणु बिजली संयंत्र आवश्यक नहीं हैं। वे अमेरिका से किसी भी समझौते के खिलाफ थे। उनका स्पष्ट मत था, अगर आपको अमेरिका से किसी भी तरह का समझौता करना है, तो कृपया नोट कर लेें कि हम आपके साथ नहीं रहेंगे। इसका मतलब था, सरकार का गिर जाना।
प्रधानमंत्री जैसे ही मीडिया से रूबरू हुए, सबसे पहला प्रश्न यही पूछा गया कि आपकी हुकूमत वाम दलों की मर्जी पर निर्भर है, ऐसे में आप कैसे अमेरिका से समझौता करेंगे? जवाब मिला- ‘जरूरी नहीं कि हमारी हर इच्छा पूरी हो जाए, कभी-कभी हमें व्यापक हित के लिए अपने कदम वापस खींचने पड़ते हैं।’ मतलब साफ था कि भारत समझौते से पीछे हट रहा है।
दर-हकीकत ऐसा नहीं था। मनमोहन सिंह ने जान-बूझकर अपने कदम पीछे खींचे थे। वह और उनकी पार्टी कांग्रेस अंदरखाने मुलायम सिंह यादव से बात कर रहे थे। समाजवादी पार्टी के पास उस समय इतने सांसद थे कि यदि वामपंथी पीछे हट जाते, तब भी सरकार नहीं गिरती। मनमोहन सिंह ने जान-बूझकर ऐसा जताया था कि वह अनिच्छापूर्वक पीछे हटे हैं, जबकि मशीनरी उसी दौरान अमेरिका से भी समझौते की अंतिम शर्तें तय करने में जुटी हुई थी।
इसका खुलासा अगली विदेश यात्रा में हुआ। हम उनके साथ जापान को उड़ चले थे। इस बार सवाल पूछा गया कि आपकी मुलाकात जापान की धरती पर अमेरिकी राष्ट्रपति से होने वाली है? क्या आप उनसे परमाणु समझौते पर भी बात करेंगे? मनमोहन सिंह ने दृढ़ता से जवाब दिया- ‘मैं अवश्य बात करूंगा।’ अगला सवाल था कि ऐसे में तो वामपंथी आपसे समर्थन वापस ले लेंगे? उनका जवाब था- ‘हमने कदम बढ़ा दिए हैं। कभी-कभी देशहित में जोखिम की जरूरत होती है। अब हमारे मित्रों को तय करना है कि वेे साथ देंगे या नहीं?’
वामपंथियों की प्रतिक्रिया अपेक्षा के अनुरूप थी। भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था कि कोई प्रधानमंत्री विदेश के लिए उड़ा हो, तब उसकी सरकार बहुमत में थी, मगर परदेस से लौटने के पहले ही सरकार अल्पमत में आ चुकी थी। वाम दलों ने अपना समर्थन वापस ले लिया था। शेष कथा जगजाहिर है कि कैसे समाजवादी पार्टी ने मनमोहन सरकार का समर्थन किया। मनमोहन सिंह ने न केवल वह कार्यकाल पूरा किया, बल्कि अगला आम चुनाव भी जीतने में सफल रहे।
मनमोहन सिंह आदतन कम और हौले से बोलते थे। बड़बोली राजनीति के अभ्यस्त इसी बिना पर उन्हें कमजोर साबित करने में जुटे रहते थे। क्या वह कमजोर थे? यकीनन नहीं। एक और अनुभव आपसे साझा करता हूं।
वह दौरा भी जापान का था। प्रधानमंत्री के तत्कालीन मीडिया सलाहकार संजय बारू से मैंने अनुरोध कर रखा था कि समय मिलने पर प्रधानमंत्री से मुलाकात करवाएं। सफर शुरू हुए दो घंटे से अधिक समय बीत चुका था। दोपहर के भोजन के बाद सब सुस्ताने की मुद्रा में थे। अचानक दूर से बारू इशारा करते दिखाई पडे़। उन्होंने धीमे से कहा- प्रधानमंत्री आपका इंतजार कर रहे हैं। मैं जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास पहुंचा, तो देखा कि पंजाब केसरी के संपादक विजय चोपड़ा पहले से उनके पास बैठे हुए हैं। वह पंजाब के चुनावों के सिलसिले में प्रधानमंत्री को कुछ बता रहे थे।
बातचीत शुरू ही हुई थी कि न जाने क्यों मैं बीच में बोल उठा, आपको पंजाब के चुनावी दौरे पर जाना चाहिए। जनसभाओं को संबोधित करने के अलावा यदि संभव हो, तो एक रात अमृतसर में गुजारें और हरमंदिर साहिब के दर्शन के लिए जरूर जाएं। इससे चुनावी लाभ हो या न हो, परंतु ऑपरेशन ब्लूस्टार और 1984 के सिख विरोधी दंगों से खफा सिखों के दिलों पर मरहम जरूर लगेगा, क्योंकि आप देश के पहले सिख प्रधानमंत्री हैं। यही नहीं, उत्तराखंड में भी चुनाव हो रहे हैं और अगले दो माह में उत्तर प्रदेश में होने वाले हैं। जहां सिख आबादी बहुलता में है, आपका वहां जाना भी बेहतर रहेगा।
कुछ ही देर में नतीजा सामने था।
संजय बारू मुस्कराते हुए मेरे पास आए और कहा कि आपने मेरा काम बढ़ा दिया है। प्रधानमंत्री ने पंजाब, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के दौरे की तैयारी के आदेश दिए हैं। वह शायद अमृतसर में रुकेंगे भी। उन दिनों अखबारों में खबरें छप रही थीं कि चुनाव हैं, पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पार्टी की ओर से कहीं भी जनसभा करने का न्योता नहीं मिला है। मनमोहन सिंह के उन दौरों की वजह से कोई चुनावी लाभ मिला या नहीं, लेकिन यह तय है कि प्रधानमंत्री के हरमंदिर साहिब जाने से अलगाववादी सिखों का ‘स्टैंड’ कमजोर जरूर पड़ा।
उनकी दृढ़ता का एक और उदाहरण देना चाहूंगा।
हम रूस के खूबसूरत शहर एकातेरिनबर्ग में थे। यह वही शहर है, जहां पर बोल्शेविक क्रांति के बाद जार निकोलस के परिवार की एक चर्च में हत्या कर दी गई थी। उस यात्रा के दौरान तत्कालीन पाकिस्तानी सदर आसिफ अली जरदारी के साथ उनका एक ‘फोटो ऑप’ था।
अमूमन शीर्ष नेता ऐसे मौकों पर कुछ नहीं बोलते और यदि कुछ बोलते हैं, तो वह भी रस्मी होता है। समूचे संसार के मीडिया की नजर उन पर थी। मनमोहन सिंह जानते थे कि वह लाइव हैं। जरदारी उनकी ओर देखकर मुस्करा पाते, उससे पहले ही उन्होंने शाब्दिक बम फोड़ दिया। उन्होंने कहा- मिस्टर प्रेसिडेंट, मुझे मेरे देश की जनता ने दोबारा इसलिए नहीं चुना है कि कोई हमारे यहां आतंकवाद का निर्यात करे। जरदारी के चेहरे पर विस्मय तैर गया था। बिना तैयारी के आए थे और उनकी हकबकाहट के बीच में ही फोटो ऑप समाप्त हो गया।
मनमोहन सिंह बाजी मार ले गए थे। कोई कमजोर शख्स भला ऐसा कैसे कर सकता है?
तय है, आती दुनिया में उनका शुमार उन प्रधानमंत्रियों में होगा, जिन्होंने 20वीं सदी में 21वीं सदी के उन्नत भारत का न केवल सपना देखा, बल्कि उसकी राह भी हमवार की। आप हमेशा मनभावन अंदाज में याद किए जाएंगे, मनमोहन सिंह।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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