दिल्ली में सबकी प्रतिष्ठा दांव पर
- सभी पार्टियां चुनाव जीतने के लिए जी-जान एक कर रही हैं। यही वजह है कि हमें कटुता के नए चेहरे-मोहरे भी दिखाई पड़ रहे हैं। आने वाले हफ्तों में हमें भारतीय राजनीति की इस विकृति के कई नए उदाहरण देखने को मिल सकते हैं। इस जहरीले कोलाहल का सबसे दुखद पहलू यह है…
आप दिल्ली के चुनाव को कैसे देखते हैं? केंद्र शासित राज्य होने के नाते क्या यह अधूरे हक-हुकूक की लड़ाई है? अगर ऐसा है, तो फिर इतना ‘हाई वोल्टेज ड्रामा’ क्यों? जवाब साफ है। भारतीय राजनीति ऋजु रेखाओं से उपजी कोई ज्यामितिक अवधारणा नहीं, बल्कि वक्र रेखाओं का अनंत अबूझमाड़ है। दिल्ली का विधानसभा चुनाव इस मायने में अनोखा है कि यह तीन राष्ट्रीय दलों के लिए नाक की लड़ाई बन गया है। कैसे?
सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी से आरंभ करते हैं। भारतीय राजनीति में किसी धूमकेतु की तरह प्रकट हुए अरविंद केजरीवाल अपने पहले ही चुनाव में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर जा विराजे थे। वह सरकार उन्होंने उस कांग्रेस के सहयोग से गठित की थी, जिसके कथित भ्रष्टाचार के विरोध में उन्होंने लंबा आंदोलन किया था। सरकार बनाने वाले और सरकार बनवाने वाले, दोनों जानते थे कि बेर-केर के इस संग को लंबा नहीं खींचा जा सकता। नतीजतन, कुछ ही महीनों में मध्यावधि चुनाव हुए और इस बार आम आदमी पार्टी ने बहुमत की सरकार बनाई। अगला यानी तीसरा चुनाव भी उसने मजबूती से जीता। केजरीवाल लगातार चौथी बार हुकूमत कायम करने के इरादे से एक बार फिर मैदान में हैं।
आप के इन 12 सत्ता-वर्षों के दौरान यमुना में न जाने कितना जल बह चुका है। आम आदमी पार्टी वर्ष 2022 में गुजरात विधानसभा की चुनावी लड़ाई में 12.92 फीसदी वोट जुटाकर राष्ट्रीय पार्टी का गौरव हासिल कर चुकी है। पंजाब में उसकी स्पष्ट बहुमत की सरकार है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को छोड़ दें, तो यह अकेली विपक्षी पार्टी है, जिसकी दो सूबों में सरकार है। ये तथ्य उन लोगों के लिए खुशनुमा हैं, जो गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा सरकार चाहते हैं। हालांकि, इनके साए में कुछ तल्ख हकीकतें भी कुलबुलाती हैं। मसलन, आप के अधिकांश संस्थापक सदस्य तितर-बितर हो चुके हैं। जो पार्टी भ्रष्टाचार के विरोध में जन्मी थी, उसके शीर्ष नेताओं को भ्रष्टाचार के आरोप में महीनों जेल में गुजारने पडे़, अब भाजपा और आप इसे अपने-अपने तरीके से भुनाने में जुटी हैं। यही वजह है कि जेल से छूटते ही उन्होंने अपनी सारी ताकत जन-संपर्क में लगा दी, ताकि वह 12 वर्षों की ‘एंटी इनकंबेंसी’ और भ्रष्टाचार के आरोपों से जन-अदालत में छुटकारा पा सकें। उनके लिए सिर्फ बहुमत का आंकड़ा पार कर लेना काफी नहीं है। उन्हें बड़ा अंतर भी चाहिए, ताकि उनके विधायकों को तोड़कर सरकार गिराने का खतरा न खड़ा हो सके। वह जानते हैं कि अगर वह हारते हैं, तो उनकी पार्टी पर अस्तित्व का संकट खड़ा हो सकता है।
आप अगर चौथी बार दिल्ली में सरकार बना लेती है, तो केजरीवाल को अपनी महत्वाकांक्षाओं को और धार देने का अवसर मिलेगा। उस समय वह ‘इंडिया’ ब्लॉक और कुछ अन्य राज्यों में पैर पसारना चाहेंगे। इंडिया ब्लॉक में अभी से दिक्कतें आ रही हैं। ममता बनर्जी खुल्लमखुल्ला कांग्रेस की अगुवाई का विरोध कर चुकी हैं। शरद पवार, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल गोलमोल शब्दों में उनका समर्थन भी कर चुके हैं। अगर दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार बनाती है और कांग्रेस कुछ खास करने में नाकामयाब रहती है, तो यकीनन ममता बनर्जी के अभियान को बल मिलेगा। इसके साथ यह संदेश भी जाएगा कि राज्य-दर-राज्य चुनाव हारने वाली कांग्रेस अपनी सियासी जमीन तेजी से गंवा रही है। यह अनायास नहीं है कि दिल्ली के पिछले दो विधानसभा चुनावों में उसका एक भी प्रत्याशी जीत हासिल न कर सका। कांग्रेस के लिए यह चुनाव इस लिहाज से जीवन-मरण का मुद्दा बन जाता है।
क्या कांग्रेस इसके लिए तैयार है? शुरुआती संकेत तो कतई उम्मीद नहीं जगाते। अभी तक राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा या मल्लिकार्जुन खरगे ने एक भी जनसभा दिल्ली में नहीं की है। जब जनता पर पकड़ रखने वाले अरविंद केजरीवाल और उनके साथी महीनों से मोहल्ला-दर-मोहल्ला घूम रहे हों, तब यह आश्चर्यजनक नहीं तो और क्या है? क्या कांग्रेस अपनी लेट-लतीफी की कीमत यहां भी चुकाएगी? क्या उसकी भूमिका दिल्ली में वही होगी, जो आम आदमी पार्टी की गुजरात में थी? आम आदमी पार्टी ने जितने वोट वहां हासिल किए थे, कांग्रेस को लगभग उतने ही फीसदी वोटरों से वंचित रहना पड़ा था। माना जा रहा है कि अगर कांग्रेस यहां 10 फीसदी से ज्यादा मत हासिल कर लेती है, तो फिर उसके बिना सरकार बनाना संभव नहीं होगा, लेकिन यह होगा कैसे? पिछले विधानसभा चुनावों में उसके 66 में से 63 उम्मीदवारों ने जमानत गंवाई थी और पार्टी महज 4.26 फीसदी मत हासिल कर सकी थी। प्रादेशिक नेता और कार्यकर्ता भले कितनी भी कोशिश कर लें, परंतु जब तक आलाकमान पूरे जी-जान से नहीं जुटेगा, तब तक देश की सबसे पुरानी पार्टी को किसी चमत्कार की उम्मीद पालने का कोई हक नहीं है।
यही वह मुकाम है, जहां भारतीय जनता पार्टी की चर्चा जरूरी हो जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद दिल्ली में ताबड़तोड़ रैलियां कर रहे हैं। चुनाव एलान से ठीक पहले उन्होंने न्यू अशोक नगर से मेरठ के लिए देश की पहली अंतर-नगरीय रैपिड टे्रन का उद्घाटन किया। उससे पूर्व वह अरबों रुपये की योजनाओं का लोकार्पण कर चुके हैं। गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा खुद इन चुनावों पर सीधी नजर रखे हुए हैं। हरियाणा और महाराष्ट्र में केंद्रीय नेतृत्व ने बारीक से बारीक मुद्दों पर गहरी दृष्टि रखी थी। दिल्ली में उसका दोहराव देखने को मिल रहा है। भारतीय जनता पार्टी जानती है कि यदि उसने अरविंद केजरीवाल को उनके गढ़ में पटकनी दे दी, तो आने वाले दिनों में इसका छप्परफाड़ लाभ हासिल हो सकता है। भगवा दल का शीर्ष नेतृत्व नई दिल्ली को लेकर इसलिए भी संवेदनशील है, क्योंकि केजरीवाल की राजनीतिक शैली से सर्वाधिक नुकसान भाजपा का ही होता है। अगर भाजपा यहां सरकार बना लेती है, तो रोजमर्रा की इस चुनौती से भी मुक्ति पाई जा सकेगी।
इन राष्ट्रीय दलों के अलावा बहुजन समाज पार्टी, असदुद्दीन ओवैसी और चंद्रशेखर की पार्टियां भी चुनावी रण में दाखिल हो चुकी हैं। क्या वे कोई करिश्मा कर पाएंगी या उनकी स्थिति ‘वोट कटवा’ तक सीमित रहेगी? यहां एक और तथ्य गौरतलब है। पिछले लोकसभा चुनाव में अधिकतर मुस्लिमों ने कांग्रेस की अगुवाई वाले इंडिया ब्लॉक को वोट दिया था। मई 2024 में नतीजे आने के बाद विधानसभा के जितने भी चुनाव हुए हैं, आम तौर पर मुस्लिम मतदाता बहुतायत में कांग्रेस के साथ गए हैं। क्या अल्पसंख्यक इस बार कांग्रेस को चुनेंगे या वे फिर अपनी पुरानी पसंद अरविंद केजरीवाल के साथ जाना पसंद करेंगे? दिल्ली इस मायने में विलक्षण रही है कि पिछले कई चुनावों में उसने लोकसभा में नरेंद्र मोदी के नाम पर और विधानसभा में अरविंद केजरीवाल के आह्वान पर मतदान किया। अगर भारतीय जनता पार्टी इस सिलसिले को तोड़ पाती है, तो उसकी जीत बहुत बड़ी मानी जाएगी।
कोई आश्चर्य नहीं कि सभी पार्टियां चुनाव जीतने के लिए जी-जान एक कर रही हैं। यही वजह है कि हमें कटुता के नए चेहरे-मोहरे भी दिखाई पड़ रहे हैं। आने वाले हफ्तों में हमें भारतीय राजनीति की इस विकृति के कई नए उदाहरण देखने को मिल सकते हैं। इस जहरीले कोलाहल का सबसे दुखद पहलू यह है कि जनता के लिए जरूरी मुद्दे इसके बोझ तले दम तोड़ देते हैं।
तय है, भारतीय लोकतंत्र को अभी बहुत कुछ सीखना है।
@shekharkahin
@shashishekhar.journalist
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