आर्थिक संकटों से परे जाकर बनाया बजट
बजट को सच्चा और साहसपूर्ण कहा गया है। ठीक है, थोड़े से लोगों के हितों की रक्षा और देश के बहुसंख्यकों की उपेक्षा करने में यह साहसपूर्ण ही है। सरकार की वही पुरानी नीति और सिद्धांत इसमें भी हैं।...
बजट को सच्चा और साहसपूर्ण कहा गया है। ठीक है, थोड़े से लोगों के हितों की रक्षा और देश के बहुसंख्यकों की उपेक्षा करने में यह साहसपूर्ण ही है। सरकार की वही पुरानी नीति और सिद्धांत इसमें भी हैं। ...सारे देश में अकाल फैल रहा है और कारखानों से लोग निकाले जा रहे हैं, तब यह कहना कि खाद्य सहायता का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता, साहसपूर्ण ही है। फिर कहा गया है कि पंचवर्षीय योजना सन 1939 के स्तर पर पहुंचा देगी। अभी भोजन और नौकरी मांगने पर हम नहीं दे सकेंगे। इस विषय में गोरवाला समिति ने प्रतिवेदन में लिखा है : ‘न केवल भारत सरकार अपितु कोई भी सरकार इस आधार पर नहीं चल सकेगी कि बहुत से काम शुरू करना थोड़े काम पूरे करने से अच्छा है। बुनियादी चीजें रोटी, कपड़ा व मकान है, आर्थिक बुराइयों को दूर कर तत्काल नया आर्थिक ढांचा बनाना होगा...। सरकार को बहुत से काम करने होते हैं, पर बुनियादी चीजें नहीं भूलनी चाहिए...।’
यह सरकार का मूल कर्त्तव्य है। महात्मा गांधी ने भी कहा था कि जो सरकार लोगों को रोटी नहीं दे सकती...(व्यवधान)। हमें एक-दूसरे की देशभक्ति पर संदेह नहीं करना चाहिए। हम कांग्रेस के किसी व्यक्ति की आलोचना नहीं करते। हम सरकार की नीति की आलोचना करते हैं। मैं कह रहा था कि जो सरकार लोगों को भोजन न दे सके, उसे वहां बैठने का अधिकार नहीं है। ... चाहे वह साम्यवादी सरकार हो या कांग्रेस सरकार या मिली-जुली सरकार, सभी पर यही बात लागू होती है।
यदि देश के अर्थ संकट को देखकर बजट बनाया गया होता, तो वह ऐसा नहीं होता। यदि कभी युद्ध हो, तो हमें निस्संदेह देश और उसके हितों की रक्षा करनी होगी। तब देश की रक्षा विषयक जरूरतों को ध्यान में रखकर बजट बनाना होगा, पर जब चारों ओर भुखमरी है और पशु मर रहे हैं, तो तत्काल सहायता दी जानी चाहिए। हम योजनाओं के विरोधी नहीं हैं और उनके देश के हित में होने के कारण हम निश्चय ही उनका समर्थन करेंगे। पर योजना या बजट के आंकड़े कुछ भी हों, जहां तक रक्षा व्यय का संबंध है, धन और पदार्थ या मशीनें नहीं, बल्कि जनता का सहयोग हमारा आधार है। ...देखना यह है कि क्या इस बजट को जनता का विश्वास प्राप्त है?...
नए कर नहीं लगाए गए हैं, पर खाद्य सहायता न देना क्या गरीबों पर कर लगाना नहीं है? ...मंत्री जी कहते हैं कि यह मंदी लोगों के लिए वरदान सदृश आई है, पर क्लर्क, मजदूर, किसान और साधारण आदमी का 90 प्रतिशत व्यय तो खाद्यान्नों पर होता है और दूसरी चीजें वह खरीद ही नहीं पाता है। उल्टे मैं देखता हूं कि कई प्रदेशों में चमड़ा, वस्त्र और विशेषत: करघा आदि उद्योगों में बेकारी बढ़ रही है। मालाबार में अकेले त्रावनकोर-कोचीन में 5,58,000 लोग बेकार हो गए हैं। ...इसी प्रकार सिगरेट, कागज, चमड़ा, सोडा, सीमेंट, कांच आदि का भी उत्पादन कम हो गया है। उधर, हथकरघा आदि उद्योगों में बेकारी फैल रही है। मालावार के कारखाने बंद होने जा रहे हैं।...
फिर निर्माण कार्यों और सामाजिक सेवाओं तथा विशेष रूप से शिक्षा के लिए बहुत थोड़ी राशि दी गई है। ...शिक्षा के लिए कुल एक प्रतिशत दिया गया है। बजट में गंभीर आर्थिक संकट पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। ...देश में 89 प्रतिशत व्यक्ति खेतिहर मजदूर किसान हैं। जब तक उनकी क्रय शक्ति नहीं बढ़ती और औद्योगिकीकरण नहीं होता, हमें बाहरी बाजारों का मुख देखना होगा। ...भले हम 50 प्रतिशत धन सेना पर व्यय करें, पर सारे देश को संतुष्ट रहना चाहिए, सबको नौकरी, जमीन या काम मिलना चाहिए, अन्यथा अकेली सेना कुछ नहीं कर सकेगी। मेरा सुझाव है कि बजट में से एक तिहाई सेना पर, एक तिहाई सामजिक सेवाओं पर और एक तिहाई देश के विकास पर व्यय होना चाहिए। ...अभी यह बजट देश के करोड़ों लोगों की जरूरतें पूरी नहीं करता है और निश्चय ही देश के लिए निराशाप्रद है।
(लोकसभा में दिए गए उद्बोधन से)
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