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जनसुराज रैली बिहार की सियासत में तीसरा कोना बनाने की बुनियाद, प्रशांत किशोर ने जीती एक जंग

रैली की शैली और इसमें शिरकत करने वाली हजारों की भीड़ का अंदाज अपने आप में नजीर है। शायद बिहार की यह पहली रैली है, जिसमें कोई नारेबाजी नहीं हुई। भीड़ ने आने-जाने के मार्ग से सभास्थल तक अनुशासन का परिचय दिया।

Nishant Nandan हिन्दुस्तान, पटना, विनोद बंधूThu, 3 Oct 2024 05:53 AM
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पटना में बुधवार को आयोजित जन सुराज रैली सियासी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को एक नई पहचान और मुकाम देने में सफल रही। बिहार की दो ध्रुवीय सियासत (एनडीए-महागठबंधन) को वह तिकोना बनाने में कितने सफल होंगे, यह आने वाले दिनों में उनकी पार्टी के प्रदर्शन से तय होगा। लेकिन इतना तय है कि उन्होंने सियासी मोर्चे पर उपहास की जंग जीत ली है और अब अगले पड़ाव पर हैं। एक तरह से ठहरे पानी में एक पत्थर उन्होंने उछाला है। रैली की शैली और इसमें शिरकत करने वाली हजारों की भीड़ का अंदाज अपने आप में नजीर है। शायद बिहार की यह पहली रैली है, जिसमें कोई नारेबाजी नहीं हुई। भीड़ ने आने-जाने के मार्ग से सभास्थल तक अनुशासन का परिचय दिया।

रैली स्थल पर एक कुर्सी तक इधर से उधर नहीं हुई। जाहिर है कि रैली की तैयारियों के सिलसिले में जो संपर्क और संवाद हुए, उस दौरान इस तरह के आचार-व्यवहार के प्रदर्शन का प्रशिक्षण भी हुआ। इस रैली ने प्रशांत किशोर को कुशल रणनीतिकार से सफल संगठनकर्ता भी साबित किया है। रैली में युवाओं की भागीदारी 70 फीसदी से अधिक थी। चंपारण, मगध और शाहाबाद से ज्यादा लोग आए। काबिले गौर है कि दो वर्ष से जनसुराज अभियान उत्तर बिहार में केन्द्रित रहा। शाहाबाद और मगध में प्रशांत किशोर ने ज्यादा समय नहीं दिया। फिर भी उन इलाकों से लोग आए। 

प्रशांत किशोर ने जब जनसुराज अभियान शुरू किया था तो सियासी दलों के लिए उपहास का विषय था। इसे उनके मनमोदक की तरह लिया जा रहा था। लेकिन लगातार प्रयासों से वह चर्चा में आने लगे तो उनका विरोध शुरू हुआ। खास बात यह है कि उनके विरोध का स्वर एनडीए और इंडिया गठबंधन का एक जैसा है। रैली के बाद दोनों गठबंधनों के नेताओं ने तीखी प्रतिक्रया व्यक्त की।

प्रशांत किशोर सियासत की एक अलग शैली और अवधारणा पेश करने की कोशिश कर रहे हैं। जनसुराज रैली भी इसकी एक कड़ी है। पहली बार किसी रैली का मंच इतना बड़ा बनाया गया, जिस पर पांच हजार लोगों के बैठने की व्यवस्था थी। वह फैसलों में आम सहमति और जिम्मेदारी की सियासत की पैरोकारी कर रहे हैं। जो संविधान उन्होंने साझा किया है, उसमें पार्टी को नेता नहीं बल्कि कार्यकर्ता केन्द्रित बनाने का संकल्प है। जनप्रतिनिधि के लगातार दो साल काम के मोर्चा पर खरा नहीं उतरने पर उसे वापस बुलाने का प्रावधान भी खास है।

रैली में पीके ने नारा दिया- नई शिक्षा नीति आएगी और शराबबंदी जाएगी। यह एक तरह से तुरूप का पत्ता भी है। बिहार में बीते दो दशक में शिक्षा के क्षेत्र में बहुत कार्य हुए हैं। अनेक नए संस्थान भी खोले गए। बावजूद इसके ऐसे बड़े संस्थानों की कमी महसूस की जाती है, जिनकी बड़ी पहचान हो। पीके का इसी पर जोर है। पीके ने तर्क दिया कि शराबबंदी से सरकार को हर साल बीस हजार करोड़ का नुकसान है, जबकि शिक्षा को बेहतर करने के लिए बीस साल में पांच लाख करोड़ की आवश्यकता होगी। यह भरोसा दिया कि शराब पर टैक्स से आने वाला पैसा सिर्फ शिक्षा की बेहतरी पर खर्च होगा। उनका यह दावा युवा वर्ग को आकर्षित कर सकता है। पीके की सबसे बड़ी चुनौती बिहार की सियासत में जातीय ध्रुवीकरण को तोड़ना होगी। वह इसे समझ भी रहे हैं।

इसीलिए दलित समाज से आने वाले भारतीय विदेश सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी मनोज भारती को कार्यकारी अध्यक्ष घोषित किया। साथ ही उन्होंने ऐलान भी किया कि जातीय आबादी के हिसाब से काबिलियत के आधार पर हिस्सेदारी का फार्मूला वह पार्टी में लागू करेंगे। पीके दावा करते हैं कि बिहार की सियासत में जातीय बैरियर को तोड़ने में वह सफल रहे हैं। बहरहाल, कोई एक रैली किसी की कामयाबी का पैमाना नहीं हो सकती है। पीके को बिहार की सियासत में अपनी मजबूत जमीन तैयार करने के लिए अभी लंबी दूरी तय करनी होगी। इसीलिए उन्होंने कहा भी कि उनकी पदयात्रा अभी खत्म नहीं हुई है, इसे वह जारी रखेंगे, संगठन के लोग पार्टी चलाएंगे।

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