स्थापना से 51 साल पहले से PMCH में चल रहा इलाज, बिहार के बड़े सरकारी अस्पताल का इतिहास जानें
गंगा नदी तट पर स्थित बीएन कॉलेजिएट परिसर में इस अस्पताल की स्थापना 1874 में टेंपल मेडिकल स्कूल के रूप में हुई थी। इसमें 30 छात्रों का पहला बैच था और पूरे कोर्स के लिए कुल फीस 2 रुपये थी। उस समय परिवहन का साधन गंगा नदी ही थी। इस कारण इसे गंगा नदी के तट पर ही बसाया गया था।
बिहार का सबसे बड़ा सरकारी पटना मेडिकल कॉलेज और अस्पताल पीएमसीएच अगले साल 100वें वर्ष में प्रवेश करेगा। 25 फरवरी 2025 को 100वां स्थापना दिवस समारोह मनाया जाएगा। 25 बेड और 30 मेडिकल छात्रों से शुरू हुआ यह अस्पताल जल्द ही 5500 बेड के साथ विश्व के दूसरे सबसे बड़े अस्पताल का रूप लेगा। बीएन कॉलेजिएट परिसर में 1874 में इसे शुरू किया गया था। इन 100 वर्षों में संस्थान ने कई गौरवपूर्ण उपलब्धि हासिल की है। अस्पताल की औपचारिक स्थापना 1925 में हुई थी, लेकिन स्थापना के 51 साल पहले यहां मरीजों का इलाज शुरू हो चुका था।
गंगा नदी तट पर स्थित बीएन कॉलेजिएट परिसर में इस अस्पताल की स्थापना 1874 में टेंपल मेंडिकल स्कूल के रूप में हुई थी। इसमें 30 छात्रों का पहला बैच था और पूरे कोर्स के लिए कुल फीस 2 रुपये थी। उस समय परिवहन का साधन गंगा नदी ही थी। इस कारण इसे गंगा नदी के तट पर ही बसाया गया था। कोलकाता से अवध (यूपी), बॉम्बे (महाराष्ट्र), दिल्ली आदि जगहों पर यात्रा के दौरान बीमार और घायल अंग्रेज सैनिकों, के इलाज के उद्देश्य से इस टेंपल मेडिकल स्कूल की स्थापना हुई थी। 19वीं सदी के आखिरी वर्षों में प्लेग और हैजा के प्रकोप के कारण इस अस्पताल को स्थानांतरित कर दरभंगा कर दिया गया। कुछ वर्षों बाद ही इसे वापस पटना लाया गया।
दान की भूमि पर कॉलेज का विस्तार हुआ
कॉलेज परिसर जो शुरू में पटना शहर के नवाब मिर्जा मुरादशाह के स्वामित्व वाली भूमि का हिस्सा था। दान वाली भूमि में नवाब का मकबरा भी शामिल है। नवाब मिर्जा के इस दान के सम्मान में इस क्षेत्र का नाम मुरादाबाद से बदलकर मुरादपुर कर दिया गया।
ब्रिटिश भारत के सबसे पुराने मेडिकल कॉलेजों में से एक
यह ऐतिहासिक मेडिकल कॉलेज भारत के सबसे पुराने मेडिकल संस्थानों में से एक है। यह ब्रिटिश भारत का छठा सबसे पुराना मेडिकल कॉलेज है। इसमें वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अ़फगानिस्तान आदि शामिल हैं। देश के पहले कैंसर संस्थान के रूप में भी इस कॉलेज की मान्यता है। नोबेल पुरस्कार विजेता मैडम क्यूरी के सिद्धांतों से तैयार विश्व की पहली छह रेडिएशन मशीनों में से एक यहीं लगी थी।
बोन टीबी और कालाजार का इलाज खोजा
प्राचार्य डॉ. बीपी चौधरी ने बताया कि संस्थान की सबसे बड़ी खोज बोन टीबी, कालाजार की दवा और इलाज पद्धति है। पूरे विश्व में आज भी बोन टीबी और कूबड़ेपन का इलाज यहां के चिकित्सक हड्डी रोग विभाग के अध्यक्ष डॉ. बी मुखोपाध्याय द्वारा की गई खोज के आधार पर किया जाता है। डॉ. सीपी ठाकुर ने कालाजार बीमारी की दवा की खोजकर संस्थान को गौरवान्वित किया। इन दोनों शोध को अंतरराष्ट्रीय स्तर के सभी मेडिकल जनरल में एक मानक शोध के रूप में प्रकाशित किया गया है। मेडिकल में भी इनके शोध की पढ़ाई एक विषय के रूप में होती है।
1925 में टेंपल स्कूल बना प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज
प्रथम विश्व युद्ध से घायल सैनिकों की वापसी के बाद टेंपल स्कूल के विस्तार की जरूरत अंग्रेजों ने महसूस की। 1925 में एक शाही दौरे के हिस्से के रूप में, प्रिंस ऑफ वेल्स ने पटना का दौरा किया। उनके सम्मान में टेंपल स्कूल का नाम बदलकर प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज कर दिया गया। इस मेडिकल कॉलेज का औपचारिक उद्घाटन 25 फरवरी 1925 को किया गया था। दो साल बाद इस उद्घाटन के लिए समारोह बिहार और उड़ीसा के गवर्नर सर हेनरी व्हीलर द्वारा 25 फरवरी 1927 को किया गया था। 35 मेडिकल छात्रों के पहले बैच को कलकत्ता मेडिकल कॉलेज, कलकत्ता से प्रिंस ऑफ वेल्स मेडिकल कॉलेज, पटना में स्थानांतरित किया गया था।