Hindi Newsबिहार न्यूज़बांकाAkbar s Redemption The Legend of Birma s Chakradharin Temple

अकबर ने की थी बीरमा की चक्रधारिणी मन्दिर की स्थापना, बंगाली पद्धति से होती है पूजा

दुर्गा पूजा पंडालदुर्गा पूजा पंडाल अमरपुर (बांका), निज संवाददाता| अमरपुर प्रखंड के बैजूडीह पंचायत अंतर्गत चांदन एवं अंधरी नदी के मुहाने पर स्थित

Newswrap हिन्दुस्तान, बांकाSun, 29 Sep 2024 01:21 AM
share Share

अमरपुर (बांका), निज संवाददाता| अमरपुर प्रखंड के बैजूडीह पंचायत अंतर्गत चांदन एवं अंधरी नदी के मुहाने पर स्थित टापूनुमा गांव बीरमा के प्रसिद्ध चक्रधारिणी मन्दिर के संबंध में कहा जाता है कि इसकी स्थापना स्वयं बादशाह अकबर ने देवी के प्रति किये अपराध के प्रायश्चित स्वरूप करवाई थी। इस संबंध में मन्दिर के वर्तमान सेवायत इन्द्रजीत झा एवं उनके अनुज एवं पूर्व मुखिया विश्वजीत झा बताते है कि जब हिमाचल प्रदेश स्थित ज्वाला देवी के अखण्ड अलौकिक लौ को बुझाने के अनेक असफल प्रयास के फलस्वरूप बादशाह अकबर और उनके राज्य पर तरह - तरह की दैवीय आपदाएं आने लगी, तब उन्हें देवी के अस्तित्व और शक्ति का अहसास हुआ। उन्होंने दरबारी कुलपुरोहित से संकट निवारण का उपाय पूछा। कुलपुरोहित ने बादशाह को प्रायश्चित स्वरूप राज्य के वैसे जगहों पर कुल 108 देवी मंदिर निर्माण की सलाह दी, जो संगम स्थल के रूप में हो और श्मशान भी हो। बीरमा की चक्रधारिणी मंदिर उन्हीं 108 मंदिरों में से एक है। कालांतर में मंदिर बाढ़ में बह गई। कहते हैं कि भागलपुर में नाथनगर ड्योढ़ी के महाशय परिवार की गिनती अतिविशिष्ट परिवार में होती थी। महाशय की उपाधि से नवाजे गए जमींदार श्री राम घोष के कोई संतान नहीं थी। देवी ने उन्हें स्वप्न में आकर कहा कि बीरमा गांव की मंदिर बह गई है लेकिन मैं वहीं मन्दिर के सामने वाली विशाल पीपल पेड़ के खोहड़ में निवास कर रही हूं। मंदिर का पुनर्निर्माण करो एवं पूजा की व्यवस्था करो, तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी होगी। श्री राम घोष ने अविलंब अपने महाशय ड्योढ़ी से हू-ब-हू मिलती जुलती मंदिर का निर्माण करवा कर मंदिर का सेवायत उसी श्मशान में रहकर तंत्र साधना करने वाले तांत्रिक राजाराम झा को बनाया और पूजा व्यवस्था के लिए जमीन भी सौंपी। महाशय जी की मनोकामना पुत्र रत्न के रूप में पूरी हुई। वर्षो तक देवी को पहली बली महाशय ड्योढ़ी से ही दी जाती रही जो आज भी सरकारी बलि के नाम से सेवायत परिवार के द्वारा दी जाती है। कहते है बीरमा से आई बलि प्रसाद को ग्रहण करने के पश्चात ही महाशय जी अन्न ग्रहण करते थे। राजाराम झा के बाद उनके ही वंशज क्रमशः पुन्नू झा, तूफानी झा, पंडित सनाथ झा, पंडित परमानन्द झा, पंडित चक्रधर झा एवं पंडित रणजीत झा के बाद आठवीं पीढ़ी के अग्रज इन्द्रजीत झा के जिम्मे मन्दिर की सारी जिम्मेवारी है जिसका वे अपने अनुजों अजीत झा, सर्वजीत झा, विश्वजीत झा व सुरजीत झा के अलावा पूजा समिति के कैलाश झा, अनिल झा, सुरेश गोस्वामी, सुरेंद्र यादव, राजेन्द्र सिंह, शीतांशु झा, रोहित पासवान आदि के सहयोग से निर्वहन कर रहे है। आज भी यहां बंगला पद्धति से देवी की पूजा महालया से एक सप्ताह पहले बोधनवमी की पूजा, कलश भराई व बलि से प्रारम्भ हो जाती है। बोधनवमी से एकादशी की वापसी बली तक लगभग 500 छागर बलियां दी जाती है। नवमी व दशमी की रात्रि स्थानीय जय हिंद क्लब के युवकों द्वारा नाटक का मंचन किया जाता है। मन्दिर की देवी की ख्याति दूर - दूर तक मनोकामना पूरी करने वाली माता के रूप में है। आज भी निस्संतान को संतान और कैंसर जैसे असाध्य रोगों से मुक्ति के अनेक उदाहरण सुनने को मिलते है। परंपरानुसार एकादशी के सूर्योदय से पूर्व देवी का विसर्जन देखने लायक होता है जब हजारों की संख्या में दर्जनों गांवों से पुरुष एवं महिलाएं अपनी - अपनी मनोकामना लेकर शामिल होते हैं।

लेटेस्ट   Hindi News ,    बॉलीवुड न्यूज,   बिजनेस न्यूज,   टेक ,   ऑटो,   करियर , और   राशिफल, पढ़ने के लिए Live Hindustan App डाउनलोड करें।

अगला लेखऐप पर पढ़ें