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लोकपर्व ‘सामा-चकेवा के पीछे छिपा है पक्षी संरक्षण का संकल्प

सामा-चकेवा पर्व भाई-बहन के अटूट प्रेम और पक्षियों के संरक्षण का प्रतीक है। इस लोकपर्व की महत्ता को फणीश्वर नाथ रेणु की रचनाओं में दर्शाया गया है। यह पर्व प्रवासी पक्षियों के प्रति स्नेह और उनकी...

Newswrap हिन्दुस्तान, अररियाWed, 13 Nov 2024 11:30 PM
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अररिया, वरीय संवाददाता ‘सामा-चकेवा मिथिलाचंल का ऐसा प्रसिद्ध लोकपर्व है जो न सिर्फ भाई-बहन के अटूट प्रेम को दर्शाता है बल्कि पक्षियों के साथ संपूर्ण पर्यावरण को बचाने का संदेश भी देता है। अमरकथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु ने अपनी कृतियों के जरिये तो लोक गायिका शारदा सिंहा ने गायिकी से इस संदेश को आगे बढ़ाने का काम किया है। आज भले ही पद्मश्री शारदा सिंहा हमारे बीच नहीं हों लेकिन ‘सामा-चकेवा पर गायी गई कई गीत आज भी महिलाएं गुनगुनाती हैं।

प्रसिद्ध पर्यावरणविद सुदन सहाय कहते हैं कि ‘सामा-चकेवा प्रकृति, पर्यावरण और पक्षियों को बचाने की प्रेरणा देता है। रेणु साहित्य पर अपनी अच्छी पकड़ रखने वाले साहित्यकार बसंत कुमार राय कहते हैं कि अमरकथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु ने अपनी रचनाओं में ‘सामा-चकेवा लोकपर्व की विस्तार से चर्चा भी है। उपन्यास ‘परती परिकथा व कहानी ‘विघटन के क्षण में इस लोकपर्व के महत्व को काफी बारिकी से रेखांकित किया गया है। इन दोनो कृतियों के माध्यम से रेणु जी न केवल भाई-बहन के असीम प्रेम को दिखाया है बल्कि पर्यावरण व पक्षियों के प्रति अनुराग भी प्रदर्शित किया है।

लोकसंस्कृति से गहरे जुड़े रेणु जी अपनी कहानी ‘विघटन के क्षण में एक ही सांस में दर्जनों पक्षियों के नाम गिनवा डालते हैं— ‘श्यामा यानी सामा, चकवा, खंजन, चाहा, पनकौआ, हांस, बनहांस, अधंगा, लालसर, पनकौड़ी, जलपरेवा से लेकर कीट-पतंगों में भुनगा, भेम्हा, आँखफोड़वा, गंधी, गोबरैला आदि। शामा-चकेवा के मौके पर इन पक्षियों और कीट-पतंगों की मिट्टी की गढ़ी गयी नन्हीं-नन्हीं मूर्तियों की पूजी कर अगले साल आने लिए आमंत्रित की जाती है। इसका उद्देश्य है पक्षियों को बचाओ तभी हमारा अस्तित्व।

प्रवासी पक्षियों के आगमन का जश्न है सामा-चकेवा:

जाने माने पर्यावरणविद् सुदन सहाय कहते हैं कि सर्दी के मौसम में कई दुर्लभ पक्षी देश-विदेश सहित हिमालय से मैदानी इलाकों की ओर प्रवास करते हैं, जिनमें बिहार का मिथिला क्षेत्र भी शामिल है। यह त्योहार प्रवासी पक्षियों के प्रति प्यार और देखभाल दिखाने का एक तरीका है। मिथिला के लोग दूर-दराज से आए इन पक्षियों से न केवल स्नेह करते हैं बल्कि इन पक्षियों की अपनी मातृभूमि में सुरक्षित वापसी के लिए अपनी इच्छाएं व्यक्त करते हैं और अगले वर्ष उनकी यात्रा की उत्सुकता से प्रतीक्षा भी करते हैं। इस पर्व के भीतर एक पर्यावरणीय संदेश भी छिपा है- इन प्रवासी पक्षियों की रक्षा करना, प्यार करना और उनका सम्मान करना।

पक्षी मानव के सच्चे मित्र, बचाने का लें संकल्प:

नागार्जुन पुरस्कार से सम्मानित 83 वर्षीय भोला पंडित प्रणयी कहते हैं कि रेणु जी की रचनाओं में लोक विश्वास, धार्मिक क्रिया, परंपरागत, सांस्कृतिक क्रियाकलाप, स्थानीय गतिविधि सहित जीवन से जुड़ी तमाम चीजें समाहित होती है। कथाकार बसंत कुमार राय इस लोकपर्व कथा का सार बतो हुए कहते हैं कि श्री कृष्ण के शाप से उनकी बेटी सामा पक्षी बन गई थी। लेकिन मानव समुदाय से तिरस्कृत होने के बाद पक्षी समुदाय में जाने के बाद वहां उन्हें इज्जत मिली मान-सम्मान मिला, प्यार-दुलार मिला, थौर -ठिकाना भी। पक्षियों ने उस पर कभी ऐसा घृणित लांछन नहीं लगाया। मनुष्य श्रेणी में रहते हुए उनकी चरित्र पर लांछन लगा था। यह दिखाता है कि पक्षी कितने बड़े समुदाय के हैं मानव से भी ऊंचे। इसलिए महिलाएं पक्षियों की मूर्ति बनाकर पूजती हैं। श्री राय कहते हैं कि पक्षी मानव के सच्चे मित्र हैं। यह कथा हमें पक्षी से दोस्ती रखने व इसे संरक्षित करने की सीख देती है।

लोक पर्व सामा-चकेवा के पीछे की कहानी:

हर पर्व-त्योहार के पीछे एक कथा होती है, जो उसके स्रोत, फल, महत्व एवं विधि को दर्शाती है। इस पर्व के पीछे भी एक कहानी है। पंडित बालकृष्ण झा कहते हैं कि कृष्ण की बेटी श्यामा (सामा) और पुत्र साम्ब में काफी स्नेह था। श्यामा का विवाह ऋषि कुमार चारूदत्त से हुआ था। श्यामा प्राय: वन में जाती थी और ऋषियों एवं पक्षियों की सेवा करती थी।

कृष्ण के एक मंत्री चुरक को यह बात अच्छी नहीं लगती थी। उसने कुछ उल्टा-पुल्टा सुनाकर कृष्ण के कान भरने शुरू किये। क्रुद्ध होकर कृष्ण ने अपनी पुत्री को पक्षी हो जाने का शाप दे दिया। तब चारूदत्त ने भी तपस्या करके पक्षी का रूप धारण कर लिया। वही श्यामा व चारूदत्त ‘सामा-चकेवा कहलाए। पंडित झा कहते हैं कि इस बात से दुखी होकर साम्ब ने भी तपस्या कर भगवान से अपनी बहन एवं उसके पति के वापस मनुष्य-रूप में आने का वरदान मांगा। इस घटना की याद में यह लोकपर्व मनाया जाता है। महिलाएं पक्षियों में सामा चकेवा का रूप देखती हैं। उसे बचाने का संकल्प लेती हैं। 15 नवंबर की रात इस लोकपर्व का समापन होगा।

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