Jaya Ekadashi vrat Katha: आज पढ़ें माघ मास की जया एकादशी व्रत कथा, पिशाच यौनी से मिलती है मुक्ति
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि राजन इस कारण एकादशी का व्रत करना चाहिए। नृपश्रेष्ठ जया एकादसी ब्र्हमाहत्या का भी पाप दूर करने वाली है। जिसने जया एकादशी व्रत कर लिया। उनसे सभी प्रकार के दान दे दिए और सभी प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान कर लिया। इस माहात्मय के पढ़ने और सुनने से अग्निदोष यज्ञ का फल मिलता है।
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इस साल माघ मास के शुक्स पक्ष की एकादशी का व्रत 8 फरवरी को रखा जाएगा। इसे जया एकादशी कहते है। इस व्रत को रखने से पिशाच यौनी से मुक्ति मिलती है। इसकी कथा इस प्रकार है- युधिष्ठर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि भगवान आप कृपा करके बताइए कि माघ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कौन सी एकादशी आती है। उसकी विधि क्या है, उसमें किस दिवता का पूजन किया जाता है।
भगवान श्री कृष्ण बोले, राजेंद्र-माघ मास के शुक्ल पक्ष में जो एकादशी आती है, उसका नाम जया एकादशी है। यह सभी पापों को हरने वाली उत्तम तिथि है। इस दिन अच्छे से व्रत करने से पापों का नाश होता है और यह एकादशी मनुष्यों को मोक्ष प्रदान करती है। इस व्रत को करने से मनुष्य को कभी प्रेतयोनि में नहीं जाना होता है।
इसकी कथा मैं आपको सुनाता हूं
स्वर्गलोक में देवराज इंद्र राज्य करते थे। देवगण परिजात वृक्षों से युक्त नंदवन में अप्सराओं के साथ विहार कर रहे थे। पचास करोड़ गंधर्वों के नायक देवराज ने इच्छानुसार वन में विहार करते हुए बड़े खुशी से नृत्य का आयोजन किया । गंघर्व उसमें गान कर रहे थे, जिनमें पुष्पदंत, चित्रसेन और उसका पुत्र तीन लोग प्रधान थे। चित्रसेन की स्त्री का नाम मालिनी था। मालिनी से एक कन्या पैदा हुई थी, जो पुष्पवंती के नाम से प्रसिद्ध थी। पुष्पदंत गंधर्व का एक पुत्र था। जिसको लोग माल्यवान कहते थे। माल्यवान पुष्पवंती के रूप पर अत्यंत मोहित था। ये दोनों भी इंद्र के संतोषार्थ नृत्य करने के लिएआए थे। इन दोनों का गान हो रहा था। इनके साथ अप्सराए भी थीं। अनुराग के कारण ये दोनों मोह के वशीभूत हो गए। चित्त में भ्रान्ति आ गई, इसलिए वे शुद्ध गान न दा सके। कभी ताल भंग हो जाती थी, तो कभी गीत बंद हो जाता था। इंद्र ने इस प्रमाद पर विचार किया और इसे अपना अपमान समझकर ने कुपित हो गए।
इस प्रकार इन दोनों को शाप देते हुए वे बोले, -ओ मूर्खों- तुम दोनों पर धिक्कार है। तुम लोग पतित और मेरी आज्ञाभंग करने वालो हो, इसलिए पति-पत्नी के रूप में रहते हुए पिशाच हो जाओ।
इंद्र के इस प्राकर शाप देने पर इन दोनों के मन में बड़ा दुख हुआ । वे हिमालय पर्वत पर चले गए और पिशाचयोनी को पाकर भयंकर दुख भोगने लगे। शारिरीक पातक से उत्पन्न ताप से पीड़ित होकर दोनों ही पर्वत की कंदराओं में विचरण करते थे। एक दिन पिशाच ने अपनी पत्नी पिशाची से कहा, हमेन कौन सा पाप किया , जिससे वह पिशाचयोनी प्राप्त हुई है। नरक का कष्ट बहुत भयंकर है। और पिशाचयोनी भी बहुत दुख देने वाली है। अत: पूर्ण प्रयत्न करके पाप से बचना चाहिए। इस प्राकर चिंता के कारण वे दोनों दुख के कारण सूखते जा रहे थे। देवगणों से उन्हें माघ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी तिथि प्राप्त हो गई थी। जया नाम से विख्यात वह तिथियों से उत्तम है। उस दिन उन दोनों ने सब आहार त्याग दिए, उन्होंने जलपान भी नहीं कियाकिसी जीव की हिंसा नहीं, यहां तक की खाने के लिएफल भी नहीं काटा। दुखी होकर वे पीपल के पेड़ के पास बैठ गए। सूर्यास्त हो गयाष उनके प्राण हर लेने वाली भयंकर रात्रि उपस्थित हुई। उन्हें नींद नहीं आई। वे रति या और कोई सुख भी पा सके। सूर्योदय हुआ, द्वादशी का दिन आया, इस प्रकार उस पिशाच दंपत्ति के द्वारा जया के उत्तम व्रत का पालन हो गया। उन्होंने रात में जागरण भी गया। उस व्रत के प्रभाव से तथा भगवान विष्णु की शक्ति से उन दोनों का पिशाचत्य दूर हो गया। पुष्पवंती और माल्यावान अपने पूर्वरूप में आ घए। उनके दिल में वही पुराना स्नेह उमड़ रहा था। उनके शरीर पर पहले जैसे ही अलंकार शोभा पा रहेथे।
इन दोनों मनोहर रूप धारण करके विमान में बैठे और स्वर्गलोक में चेल गए। वहां देवराज इंद्र के सामने जाकर दोनों ने बड़ी प्रसन्नता के साथ उन्हें प्रणाम किया।
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उन्हें उश रूप में देखकर इंद्र को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूथा बताओं- किस पुण्यके प्रबाव से तुम दोनों को पिशाचचत्य दूर हुआ है। तुम मेरे श्राप को प्राप्त हो चुके थे, फिर किस देवता ने तुम्हें इससे छुटकारा दिलायाष
माल्यवान बोला- स्वामिन भगवान वासुदेव की कृपा और जया एकादशी के व्रत के प्रभाव से हम पिशाच यौनी से मुक्त हुए।
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि राजन इस कारण एकादशी का व्रत करना चाहिए। नृपश्रेष्ठ जया एकादसी ब्र्हमाहत्या का भी पाप दूर करने वाली है। जिसने जया एकादशी व्रत कर लिया। उनसे सभी प्रकार के दान दे दिए और सभी प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान कर लिया। इस माहात्मय के पढ़ने और सुनने से अग्निदोष यज्ञ का फल मिलता है।
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