आस्था : बड़ी चमत्कारी है उत्तराखण्ड के इस मंदिर में जलने वाली धुनी की राख- VIDEO
उत्तराखंड देवताओं की भूमि है। करोड़ों की आस्था का केंद्र है। यहां माता के सिद्धपीठ भी हैं और शिव के शिवालय भी। चमोली जिले में एक ऐसा तीर्थस्थल हैं, जहां माता का मंदिर और शिव की धुनी एक साथ हैं। इस...
उत्तराखंड देवताओं की भूमि है। करोड़ों की आस्था का केंद्र है। यहां माता के सिद्धपीठ भी हैं और शिव के शिवालय भी। चमोली जिले में एक ऐसा तीर्थस्थल हैं, जहां माता का मंदिर और शिव की धुनी एक साथ हैं। इस मंदिर में जलने वाली धुनी (आग) की राख का बड़ा महत्व है। आस्था है कि इसे माथे पर लगाने से छल आदि का भय दूर हो जाता है। इस राख को लेने के लिए दूर-दूर से भक्त यहां पहुंचते हैं।
चमोली जिले के चोपता गांव में सिद्धपीठ राजराजेश्वरी गिरिजा भवानी का भव्य मंदिर है। इसी मंदिर के बगल में गुरु गोरखनाथ की धुनी है। इसे भगवान शिव का स्थान माना जाता है। माता का मंदिर और शिव की धुनी एक साथ होने के कारण इस तीर्थस्थल की अपनी महत्ता है। इस स्थान को लेकर दो मान्यताएं प्रचलित हैं। पहली यह कि चारधाम की स्थापना के बाद मां दुर्गा वृद्ध माता के रूप में धरती पर आईं। उन्होंने चारधाम की यात्रा शुरू की। जिस स्थान पर माता का मंदिर है, वहां माता अंतरध्यान हो गईं। जबकि उनके साथ आए सेवक का मुछयाला (जलती मशाल) टूट गई। जहां यह मशाल टूटी वहीं पर गुरु गोरखनाथ जी की धुनी है।
दूसरी मान्यता के अनुसार जब दक्ष प्रजापति के यज्ञ में अपमानित होकर माता सती हवन कुंड में भस्म हो गईं थी तो भगवान शिव उनकी जली हुई देह को लेकर आकाश मार्ग से कैलाश की ओर जाने लगे। मान्यता है कि इस स्थान पर माता की जलती हुई देह का एक हिस्सा गिरा होगा, जिस कारण यहां माता के मंदिर के साथ-साथ धुनी बनी। मान्यताएं जो भी हों, लेकिन आज भी यह मंदिर लाखों लोगों की आस्था का केंद्र है। यहां हर तीसरे साल मेला लगता है। नौ दिन तक देव-देवताओं के पश्वाओं का नृत्य होता है। दूर-दूर से भक्त गण माता के दर्शन और धुनी की राख (भभूती) लेने आते हैं।
मंदिर के पुजारी जयानंद सती बताते हैं कि धुनी में जलने वाली लकड़ियों साफ सुथरी होती हैं। जो लकड़ी सड़ी हो या उसपर कीड़ा लगा हो तो उसे धुनी में नहीं जलाया जाता। धुनी में लकड़ी जलाने से पहले उसका शुद्धिकरण होता है। केवल व्रत रखा व्यक्ति ही मंदिर के अंदर प्रवेश कर सकता है। श्रद्धालुओं को अंदर जाने की अनुमति नहीं होती। बाहर से दर्शन कर भभूती प्राप्त की जाती है। उन्होंने बताया कि विदेशों में रहने वाले प्रवासियों को डाक द्वारा भी राख भेजी जाती है।
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