अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक दर्जा रहेगा या जाएगा? फैसला 10 नवंबर से पहले
- सर सैय्यद ने AMU के लिए अलीगढ़ ही क्यों चुना? इसके जवाब दस्तावेजी साक्ष्य के साथ सुप्रीम कोर्ट की पीठ के सामने भी पेश किए गए हैं। बताया गया कि शिक्षण संस्थान की स्थापना के लिए कई जिलों का सर्वे कराया गया। जिलों के वातावरण, आब-ओ-हवा को भी सर्वे में शामिल किया गया।
Aligarh Muslim University: एएमयू का अल्पसंख्यक स्वरूप बहाल रहेगा या खत्म होगा इस पर सभी की नजरें जा टिकीं हैं। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में सात सदस्यीय संविधान पीठ इस मामले पर 10 नवंबर से पहले फैसला सुनाने जा रही है। इतिहास पर गौर करें तो आजाद भारत में संविधान लागू होने पर करीब 73 वर्ष पहले विवाद की नींव पड़ी। पूरी करते हुए यह मामला अब फैसले की फाइनल दहलीज तक आ पहुंचा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सभी को बेसब्री से इंतजार है। देखते हैं ऊंट किस करवट बैठेगा। पेश है इस विवाद के इतिहास पर हिन्दुस्तान की विस्तृत रिपोर्ट।
सर सैय्यद ने एएमयू के लिए अलीगढ़ ही क्यों चुना? इसके जवाब दस्तावेजी साक्ष्य के साथ सुप्रीम कोर्ट की पीठ के सामने भी पेश किए गए हैं। बताया गया कि शिक्षण संस्थान की स्थापना के लिए कई जिलों का सर्वे कराया गया। जिलों के वातावरण, आब-ओ-हवा को भी सर्वे में शामिल किया गया। अलीगढ़ में यह सर्वे तत्कालीन सिविल सर्जन डा.आर जैक्सन, पीडब्ल्यूडी इंजीनियर हंट व तत्कालीन डीएम हैनरी जार्ज लॉरेंस ने किया। रिपोर्ट में कहा गया कि अलीगढ़ जिला नार्थ इंडिया में सबसे बेहतरहै।
जब इंदिरा के मंत्री के सामने खाली हो गया कैनेडी हॉल
डा.राहत अबरार के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद विरोध तेज हो चला था। इंदिरा गांधी सरकार पर चौतरफा विरोध का दबाव था। सभी विपक्षी दल चुनावी घोषणा पत्र में इसे अपने वायदे में शामिल रखते थे। कहते थे कि सरकार में आए तो एएमयू का अल्पसंख्यक स्वरूप बहाल करेंगे। विरोध के बीच भावनाएं जानने के लिए इंदिरा गांधी ने अपनी सरकार के मंत्री बाबू जगजीवन राम को एएमयू भेजा। उस समय आरिफ मोहम्मद खां एएमयू छात्रसंघ के अध्यक्ष थे। खुद डा.अबरार जूनियर छात्र थे। कैनेडी हॉल में कार्यक्रम रखा गया। जगजीवन राम के समक्ष छात्रसंघ अध्यक्ष रहते आरिफ मोहम्मद खां ने अपने भाषण में कहा कि आपको अगले पांच मिनट में हमारी भावनाएं पता चल जाएंगी।
सर सैय्यद ने एएमयू के लिए अलीगढ़ ही क्यों चुना?
एएमयू अलीगढ़ में ही क्यों स्थापित हुआ? इसके जवाब दस्तावेजी साक्ष्य के साथ सुप्रीम कोर्ट की पीठ के सामने भी पेश किए गए हैं। बताया गया कि शिक्षण संस्थान की स्थापना के लिए कई जिलों का सर्वे कराया गया। जिलों के वातावरण, आब-ओ-हवा को भी सर्वे में शामिल किया गया। अलीगढ़ में यह सर्वे तत्कालीन सिविल सर्जन डा.आर जैक्सन, पीडब्ल्यूडी इंजीनियर हंट व तत्कालीन डीएम हैनरी जार्ज लॉरेंस ने किया। रिपोर्ट में कहा गया कि अलीगढ़ जिला नार्थ इंडिया में सबसे बेहतरहै।
हजारों साल तक न बाढ़ आएगी, न अकाल पड़ेगा
पांच-छह हजार वर्ष तक न तो यहां बाढ़ आ सकती है और न अकाल का खतरा है। पानी का स्तर तीस फिट पर है। यहां फौजी पड़ाव की 74 एकड़ भूमि खाली है। यातायात के लिए जीटी रोड और दिल्ली हावड़ा के मध्य ट्रेन माध्यम भी है। तब यहां 24 मई 1875 को मदरसा उसी छावनी में स्थापित किया, जो 1877 में एमएओ कॉलेज के रूप में परिवर्तित हुआ। 18 98 में सर सैयद के इंतकाल के बाद सरसैयद मैमोरियल कमेटी बनी, जिसके प्रयास से राष्ट्रव्यापी आंदोलन के क्रम में 1920 में ब्रिटिश संसद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का बिल पास कर इसकी स्थापना हुई।
तीस लाख रुपये लेकर मिली विवि की मान्यता
उस समय की सरकार ने तीस लाख रुपया लेकर मान्यता दी। तब 13 विभागों से इसे संचालित किया गया। एएमयू की जामा मस्जिद को केंद्र मानकर 25 किमी रेडियस में किसी भी संस्थान को एएमयू से जोड़कर चलाने की अनुमति दी। बस एएमयू एक्ट में इसका प्रबंधन मुस्लिमों को दिया, तय किया कि मुस्लिम ही इसके कोर्ट सदस्य यानि सर्वोच्च संस्था के सदस्य हो सकेंगे। भोपाल की बेगम सुल्तान जहां पहली चांसलर और राजा महमूदाबाद पहले कुलपति बनाए गए। यहां पढ़ने वाले मुस्लिम छात्रों को दीन की शिक्षा की अनिवार्यता तय की गई।
आजादी के बाद प्रवेश नीति में कर दिए बदलाव
इस विवाद की जड़ यानि शुरुआत का जिक्र करते हुए एएमयू के पूर्व पीआरओ व उर्दू अकादमी के पूर्व चेयरमैन डा.राहत अबरार बताते हैं कि 1951 तक सब यूं ही चला। संसद में 1951 में आजाद भारत का संविधान लागू होने पर बीएचयू व एएमयू एक्ट में सात बदलाव सामने आए। जिसमें एएमयू को लेकर कहा गया कि अब कोई भी यानि गैर मुस्लिम भी कोर्ट सदस्य बन सकेगा। दूसरा एएमयू को राष्ट्रीय महत्व की संस्था करार दिया गया। मगर एएमयू की प्रवेश नीति में बदलाव किए गए। साथ में राष्ट्रपति को एएमयू का विजिटर बनाया गया। इसे लेकर हंगामे और विरोध शुरू हुए। लगातार हुए विरोध के बीच संसद में 1965 में फिर कुछ बदलाव कर इसका अल्पसंख्यक स्वरूप समाप्त कर दिया।
गैर अलीग पहुंचे सुप्रीम कोर्ट, खारिज की अपील
डा.राहत अबरार के अनुसार इस बदलाव के खिलाफ मद्रास के रहने वाले एस.अजीज बाशा ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। जो न तो अलीग यानि पूर्व एएमयू छात्र थे और न उनका अलीगढ़ से कोई नाता था। जिस पर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने 1951 व 1965 के फैसले की समीक्षा करते हुए 1967 में याचिका खारिज कर दी। साथ में यहां तक कहा कि न तो इसकी स्थापना मुस्लिम अल्पसंख्यकों द्वारा की गई और न उनका संचालन किया गया। जिसका चौतरफा विरोध शुरू हुआ।
जब इंदिरा के मंत्री के सामने खाली हो गया कैनेडी हॉल
डा.राहत अबरार के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद विरोध तेज हो चला था। इंदिरा गांधी सरकार पर चौतरफा विरोध का दबाव था। सभी विपक्षी दल चुनावी घोषणा पत्र में इसे अपने वायदे में शामिल रखते थे। कहते थे कि सरकार में आए तो एएमयू का अल्पसंख्यक स्वरूप बहाल करेंगे। विरोध के बीच भावनाएं जानने के लिए इंदिरा गांधी ने अपनी सरकार के मंत्री बाबू जगजीवन राम को एएमयू भेजा। उस समय आरिफ मोहम्मद खां एएमयू छात्रसंघ के अध्यक्ष थे। खुद डा.अबरार जूनियर छात्र थे। कैनेडी हॉल में कार्यक्रम रखा गया। जगजीवन राम के समक्ष छात्रसंघ अध्यक्ष रहते आरिफ मोहम्मद खां ने अपने भाषण में कहा कि आपको अगले पांच मिनट में हमारी भावनाएं पता चल जाएंगी। इसके बाद उन्होंने छात्रों से पांच मिनट में कैनेडी हॉल खाली करने का संदेश दिया और हॉल पांच मिनट में खाली हो गया। लगातार आंदोलन हुए।
1981 में इंदिरा ने फिर दिया अल्पसंख्यक का दर्जा
साल 1981 में संसद में एएमयू एक्ट में संशोधन कर इसके अल्पसंख्यक स्वरूप की पुष्टि करते हुए कहा गया कि यह मुस्लिमों द्वारा स्थापित भारतीय मुस्लिमों की पसंद का उनकी शैक्षिक, सांस्कृतिक उन्नति में अग्रणी भूमिका निभाने वाला संस्थान है।
अब 2005 से शुरू हुए विवाद की फैसले की घड़ी नजदीक
डॉ. राहत अबरार की मानें तो 1981 में एएमयू के अल्पसंख्यक स्वरूप की बहाली के फैसले के बाद 2004 में मनमोहन सिंह की सरकार की ओर से एक पत्र में कहा गया कि यह अल्पसंख्यक संस्थान है, इसलिए वह अपनी दाखिला नीति में परिवर्तन कर सकता है। इस पर एएमयू ने एमडी-एमएस में प्रवेश नीति बदलकर आरक्षण प्रदान किया। इस फैसले के खिलाफ पीड़ित डॉ. नरेश अग्रवाल सहित दो आवेदक उच्च न्यायालय इलाहाबाद चले गए। जिस पर एकल पीठ ने एएमयू के खिलाफ फैसला दिया और फिर केंद्र सरकार ने युगल पीठ में अपील की तो वहां भी 2006 में एएमयू के खिलाफ फैसला आया। जिसमें कहा गया था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। उसके बाद कई पक्षकार सुप्रीम कोर्ट गए। जहां से आदेश दिया गया कि जब तक कोई सुबूत नहीं मिलता, तब तक यथा स्थिति बनी रहेगी। जिसकी सुनवाई तीन जजों की बेंच ने शुरू की।
सुप्रीम कोर्ट में नौ माह पहले हो चुकी सुनवाई पूरी
एएमयू की ओर से कहा गया कि पूर्व में यह मसला सुप्रीम कोर्ट में चूंकि पांच जजों की बेंच ने सुना था, इसलिए इसे यहां नहीं सुना जाना चाहिए। इस पर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने 2019 में इस मामले को 7 जजों की संविधान पीठ के पास भेज दिया था। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद सुनवाई पूरी कर 1 फरवरी 2024 को फैसला सुरक्षित रख लिया था। अब चूंकि 10 नवंबर को मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ सेवानिवृत्त हो रहे हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि सेवानिवृत्ति से पहले सुरक्षित फैसला आ सकता है।
क्या बोले प्रॉक्टर
एएमयू प्रॉक्टर प्रो. वसीम अली ने कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक स्वरूप के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में सभी पक्षों की बहस कई माह पहले ही हो चुकी हैं। अब उम्मीद है कि फैसला आ सकता है। जिसका सभी को इंतजार है। फैसला आने के बाद उसके कानूनी पहलुओं को जानकर आगे कुछ तय किया जाएगा।