बोले काशी : मिट्टी बिना धूल में मिल जाएगा ईंट-भट्ठा उद्योग
वाराणसी में ईंट भट्ठा उद्योग गंभीर संकट का सामना कर रहा है। मिट्टी खनन पर प्रतिबंध और अवैध भट्ठों की बढ़ती संख्या के कारण 25 प्रतिशत भट्ठे बंद हो चुके हैं। वैध भट्ठा संचालक समस्याओं का सामना कर रहे...
वाराणसी। ‘ईंट से ईंट बजा देंगे, ईंट का जवाब पत्थर से, फलां इमारत की नींव बहुत मजबूत है... जैसे मुहावरों का जन्म भट्ठों से हुआ। इतिहास में दर्ज इमारतों में लगीं मजबूत ईंटें भट्ठों की चिमनियों में पकी हैं। उनमें से कई भट्ठों की रौनक खत्म और चिमनियों की आग ठंडी हो चली है। वह भी तब जब इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट पर बहुत जोर है। हाल के समय में मिट्टी खनन को लेकर पर्यावरणीय प्रतिबंध के चलते भट्ठों को खुराक नहीं मिल रही है जिसका नतीजा यह है कि जिले में 25 प्रतिशत भट्ठे बंद हैं। खनन नीति और पावर हाउस से निकली राख (फ्लाई एश) से बनीं ईंटों का बढ़ता चलन बनारस के भट्ठा संचालकों के कानों में कारोबारी खतरे की घंटी बजा रहा है।
बनारस में भट्ठों की शुरुआत का ज्ञात एवं प्रामाणिक इतिहास नहीं है। हां, यहां का भी ‘लोक-समाज जब मिट्टी के घरौंदों की जगह मिट्टी की बनीं ईंटों का गृह निर्माण में प्रयोग करने लगा तब भट्ठों का चलन शुरू हुआ। शहर के गंगातटीय पक्का महाल में रईस वर्ग के भवन-मकान ईंटों और पत्थरों से बने हैं जिनकी आयु तीन सौ वर्ष तक है। ईंट-भट्ठा संचालकों की प्रतिनिधि संस्था ईंट निर्माता परिषद का अनुमान है कि लगभग 100 साल पहले बनारस का पहला चिमनी वाला ईंट-भट्ठा लगा। हालांकि बदलानी परिवार का 1937 में शिवपुर में बड़ा भट्ठा शुरू हुआ था। इन दिनों जिले के अलग-अलग क्षेत्रों में लगभग 405 भट्ठे संचालित हो रहे हैं, उनमें 170 वैध जबकि 235 अवैध हैं। वैध ईंट निर्माताओं में कुछ चार-चार पीढ़ी से इस कारोबार से जुड़े हैं। ईंट निर्माता परिषद के अध्यक्ष कमलाकांत पांडेय का कहना है कि नियमों की जटिलताओं ने अवैध भट्ठों के सामने समस्या पैदा कर दी है। नदेसर की इमलाक कॉलोनी स्थित परिषद कार्यालय में जुटे संचालकों ने ईंट-भट्ठों के संचालन में आ रही मुश्किलें बयां कीं। उनका कहना है कि या तो सभी भट्ठों को वैध घोषित कर दिया जाए अथवा सभी को नियमों में छूट मिले। अवैध भट्ठों के संचालक ‘बचाव का बाइपास ढूंढ़कर निश्चिंत और निर्द्वंद्व भाव से कारोबार कर रहे हैं जबकि पिस रहे हैं वैध संचालक। नियमों का बोझ उन पर और कार्रवाई की तलवार भी उन्हीं पर।
मिट्टी हुई दुर्लभ, ईंटों के दाम चढ़े
हर खेत की मिट्टी से ईंटें नहीं बन सकतीं, इसलिए भट्ठा शुरू करने के पहले संचालक मुआयना करते हैं। ईंटों के अनुकूल मिट्टी मिलने पर ही वे पहले किसान, फिर प्रशासन के पास बजरिये खनन विभाग आवेदन करते हैं। परिषद के उपाध्यक्ष ओमप्रकाश बदलानी ने बताया कि नियमानुसार भट्ठा संचालन के लिए सालभर का लाइसेंस बनता है। लाइसेंस तब बनता है जब चिह्नित खेत से मिट्टी खोदने की अनुमति मिल जाए। यह अनुमति पहले खनन विभाग ही देता था, अब क्षेत्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और खनन विभाग की संयुक्त सलाहकार कमेटी से अनुमति लेनी पड़ती है। बदलानी के अनुसार, फसलों से खेत खाली रहने पर ही मिट्टी खोदी जा सकती है। और, इधर स्थिति यह है कि उसकी अनुमति मिलने में ही छह-छह माह लग जा रहे हैं। बचे छह माह में दो से तीन माह बरसात के होते हैं। तब भट्ठों पर काम न के बराबर होता है। लगभग तीन माह में किसी संचालक के लिए अपनी लागत निकालने लायक भी ईंटे बना पाना और बेचना मुश्किल होता है। फिर जिला पंचायत से लाइसेंस नवीनीकरण कराने की अवधि आ पहुंचती है। कम अवधि में तैयार ईंटों में अपेक्षित मजबूती नहीं आ पाती है। वे महंगी भी पड़ती हैं। इस गंभीर दिक्कत के चलते बीते एक दशक में दो दर्जन से अधिक भट्ठे बंद हो चुके हैं। उपाध्यक्ष ओमप्रकाश बदलानी एवं महामंत्री शिवप्रकाश सिंह ने बताया कि इन दिनों 75 प्रतिशत वैध भट्ठों पर सिर्फ एक-दो माह की मिट्टी बची है। उनसे ईंटें बनने के बाद भट्ठों की चिमनियां शांत हो जाएंगी। तब आपूर्ति कम होने से ईंटों के दाम और चढ़ेंगे। कमलाकांत पांडेय ने कहा-‘यह समस्या उनके लिए है जो नियम-कानून के पाबंद हैं। जुगाड़ से भट्ठा संचालन कर रहे लोग मजे में हैं। वे बेखौफ होकर मिट्टी खनन कर रहे हैं। इस स्थिति से वैध भट्ठा संचालकों को भारी नुकसान हो रहा है और वे अपने व्यापार को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
क्षतिपूर्ति का प्रावधान नहीं
ईंट निर्माताओं का कहना है कि बरसात में कच्ची ईंट गल भी जाती हैं। कई बार न बिकने के कारण लंबे समय तक पड़ी रहने से ईंटों की मजबूती कम हो जाती है। तब बाजार में उसकी लागत के अनुसार दाम नहीं मिलते। ऐसी स्थिति में आर्थिक हानि होती है। इस कारोबारी क्षति की प्रतिपूर्ति के लिए शासन-सरकार के स्तर से कोई सहायता नहीं मिलती। संचालकों को अपनी जेब से खर्च वहन करना पड़ता है। चार पीढ़ियों से इस कारोबार से जुड़े मोहन लखमानी ने बताया कि कुछ समय पहले प्रदेश सरकार ने हमारे लिए समाधान योजना शुरू की थी। उससे कई समस्याएं दूर हो जाती थीं। उक्त योजना के फिलहाल बंद होने से समाधान की राह नहीं दिख रही है। इसका सबसे बड़ा असर एक यह भी है कि नई पीढ़ी इस कारोबार को कच्चा सौदा मान बिदक रही है। लखमानी ने कहा कि यदि यही स्थिति रही तो वैध भट्ठे बंद हो जाएंगे। अवैध भट्ठे चलेंगे जो ईंटों की गुणवत्ता से समझौता कर मनमाने दाम वसूलेंगे।
बढ़ता जा रहा कोयला का संकट
वैध भट्ठा संचालकों का दर्द है कि वे सभी प्रकार के टैक्स समय पर अदा करते हैं। इसके बावजूद सरकार की ओर से उन्हें कोई मदद नहीं मिल रही है। उन्हें मिट्टी के साथ कोयले की भारी कमी का भी सामना करना पड़ रहा है। पहले प्रशासन की ओर से भट्ठों के लिए कोटा तय होता था। उसमें सरकारी दर पर कोयला मिल जाता था। अब वह व्यवस्था नहीं रही। सीताराम यादव ने बताया कि हमें ब्लैक मार्केट में दोगुने दाम पर कोयला खरीदना पड़ता है। यह अंतर पांच से सात हजार रुपये प्रति टन पड़ रहा है। ईंटों के दाम बढ़ने का यह भी एक प्रमुख कारण है।
सरकार की सोच बदली, संकट बढ़ा
ईंट निर्माताओं ने इस तर्क को बेदम बताया कि मिट्टी की जगह सीमेंट से बनी ईंटों में अधिक मजबूती होती है। उन्होंने लखौरी ईंटों से बनी इमारतों-भवनों के उदाहरण दिए। कहा, उनमें यदि खराबी आई या वे गिरीं, ध्वस्त हुईं तो देखरेख के अभाव के कारण। लक्ष्य आडवाणी ने कहा कि मिट्टी की ईंटों में वही मजबूती अब भी हो सकती है बशर्ते सरकार प्रोत्साहन दे। यदि सरकार ही सीमेंट और राख की बनी ईंटों के प्रयोग अपने प्रोजेक्ट में करना शुरू कर दे तो हम भट्ठा संचालक हतोत्साहित होंगे ही। बीते एक-दो दशकों से 90 प्रतिशत सरकारी निर्माण में सीमेंटेड ईंटों का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है। निर्माताओं का दावा है कि सीमेंट, राख की ईंटें पर्यावरण के अनुकूल नहीं हैं। आडवाणी ने कहा कि हम रॉयल्टी और जीएसटी भी अदा करते हैं जबकि उसका प्रतिफल उलटा मिल रहा है।
भट्ठों पर नहीं हैं सामुदायिक शौचालय
भट्ठा संचालकों ने ध्यान दिलाया कि सरकार स्वच्छता के नाम पर सामान्य या सामुदायिक शौचालयों का निर्माण करा रही है जबकि किसी भी भट्ठा पर सामुदायिक शौचालय नहीं बना है। वहां काम करने वाले मजदूरों को खुले में शौच करना पड़ता है। सरकार को भट्ठों पर सामुदायिक शौचालय बनवाना चाहिए।
ईसा पूर्व 7000 वर्ष प्राचीन है ईंटों का इतिहास
मानव निर्मित ईंटों की सबसे पहली खोज 7000 ईसा पूर्व की है। तुर्की में मिलीं ईंटें मिट्टी से बनी थीं जो प्राकृतिक रूप से धूप में सुखाई जाती थीं। प्राचीन मिस्र के लोग मिट्टी और भूसे से धूप में सुखाई गई ईंटें बनाने के लिए भी जाने जाते थे। सिंधु घाटी सभ्यता में ईंटों का शुरुआती इस्तेमाल 7000 ईसा पूर्व के आसपास देखा गया। मेहरगढ़, अमरी और कोटदीजी जैसी जगहों पर मिट्टी की ईंटों का इस्तेमाल मुख्य रूप से हुआ।
अजुर या लखौरी ईंटें
मुगल काल में ईंटों को अजुर या खिश्त कहा जाता था। शाहजहां के समय में मानक ईंटों की लंबाई 18-19 सेमी, चौड़ाई 11-12.5 सेमी और मोटाई 2-3 सेमी होती थी, जिसे पारंपरिक रूप से ‘लखौरी ईंट के रूप में जाना जाता था। इस काल में तीन प्रकार की ईंटों का प्रयोग होता था-पुख्ता (पकी हुई), नीम पुख्ता (आधी पकी हुई) और खम (बिना पकी हुई)।
केवल कंक्रीट की इमारतें हीट चैंबर
केवल कंक्रीट की इमारतें हीट चैंबर का काम करती हैं। ओपी बदलानी ने कहा कि पर्यावरणीय प्रतिबंधों के चलते जिन ईंटों का उत्पादन प्रभावित हो रहा है। उनके अभाव में कई गुना ज्यादा पर्यावरणीय समस्याएं आमंत्रित की जा रही हैं। मिट्टी की ईंटें तापमान नियंत्रण का काम करती हैं।
राज्यकर विभाग का रवैया
राज्यकर विभाग के अधिकारी मनमानी पर उतारू हैं। बकाया टैक्स दिखाकर मनमाने तरीके से खाते अटैच कर रहे हैं। अधिकारियों द्वारा भट्ठा संचालकों का उत्पीड़न किया जा रहा है।
कोट
मिट्टी खनन पर रोक से समस्याएं हो रही हैं। अवैध भट्ठों को मिट्टी मिल जा रही है जबकि वैध भट्ठा संचालक परेशान हैं।
- कमलाकांत पाण्डेय
सरकारी निर्माण में मिट्टी की ईंटों का प्रयोग न होने से भट्ठों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।
- शिवप्रकाश सिंह
मिट्टी खनन के लिए छह-छह माह में अनुमति मिलती है और वो भी एक साल के लिए। इससे तो ज्यादातर भट्ठे बंद हो जाएंगे।
- ओमप्रकाश बदलानी
सरकारी कोयले की उपलब्धता नहीं है। हमें ज्यादा कीमत में कोयला खरीदना पड़ रहा है।
-सीताराम यादव
वर्तमान कठिनाइयों को देखते हुए नई पीढ़ी भट्ठा संचालन से खुद को पीछे कर रही है। यह चिंता की बात है।
- मोहन लखमानी
समाधान योजना सभी भट्ठा संचालकों के लिए लाभदायक था। उसे फिर लागू करना चाहिए।
- लक्ष्य आडवाणी
ज्यादातर भट्ठों में एक से दो माह का ही मिट्टी का स्टॉक बचा है। यह गंभीर संकट है।
- रमेश प्रद्वानी
बाजार में ईंटों की आपूर्ति कम होने से दाम तेजी से बढ़ेंगे। आमलोगों की जेब पर प्रभाव है।
- आनंद सिंह
वैट की तरह भट्ठा संचालकों के लिए समाधान योजना लागू होनी चाहिए।
- कैलाश नाथ पटेल
जिला पंचायत, प्रदूषण नियंत्रण विभाग, खनन विभाग, राज्यकर विभाग को टैक्स अथवा शुल्क भरने के बाद भी समस्या रहती है।
- मनोज यादव
शिकायत
- मिट्टी खनन की अनुमति लेने में कार्यालयों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं। इससे ज्यादातर भट्ठों में मिट्टी न होने से संचालन बंद है। मिट्टी खनन की अनुमति प्रक्रिया भी सरल नहीं है।
- राज्यकर विभाग के अधिकारी मनमाने ढंग से खाते अटैच कर रहे हैं। बकाया टैक्स की वसूली के नाम पर व्यापारियों का उत्पीड़न किया जा रहा है।
- सरकारी कोयला न मिलने से लागत बढ़ गई है। एक साल से अधिक समय से सरकारी दाम पर कोयला नहीं मिल रहा है।
- अवैध ईंट भट्ठे स्थानीय पुलिस, निकाय के कर्मचारियों को सुविधा शुल्क देकर आसानी से कारोबार कर रहे हैं। इसका खामियाजा वैध भट्ठों के संचालकों को हो रहा है।
सुझाव
- जिला प्रशासन वैध भट्ठों को मिट्टी खनन की अनुमति जल्द दिलाना सुनिश्चित करे। साथ ही अनुमति प्रक्रिया सरल की जाय।
- राज्यकर विभाग के अधिकारियों को भट्ठा संचालकों से संवाद करना चाहिए। हमारी दिक्कतों को समझते हुए इसका समाधान निकालना चाहिए।
- जिले में कोयले का सरकारी डिपो बने जिसमें कम कीमत में कोयला उपलब्ध हो। लागत कम आने से राहत मिलेगी।
- जिला प्रशासन, पुलिस, प्रदूषण नियंत्रण विभाग की टीम समय-समय पर अवैध ईंट भट्ठों पर कार्यवाही करके बंद कराए।
नंबर गेम
- 405 कुल ईंट भट्ठे संचालित हैं जिले में
- 235 अवैध और 170 वैध भट्ठे हैं
- 25 प्रतिशत भट्ठों का संचालन बंद है मिट्टी की उपलब्धता नहीं होने से
- 70 प्रतिशत भट्ठों के पास महज एक से दो माह की मिट्टी उपलब्ध है
From: Rajanish Tripathi (Editorial- Varanasi)
Sent: Friday, November 22, 2024 6:08 PM
To: Vachaspati Upadhyaya
Subject: बोले काशीः मिट्टी बिना धूल में मिल जाएगा ईंट-भट्ठा उद्योग
बोले काशीः
मिट्टी बिना धूल में मिल जाएगा ईंट-भट्ठा उद्योग
‘ईंट से ईंट बजा देंगे, ईंट का जवाब पत्थर से, फलां इमारत की नींव बहुत मजबूत है... जैसे मुहावरों का जन्म भट्ठों से हुआ। इतिहास में दर्ज इमारतों में लगीं मजबूत ईंटें भट्ठों की चिमनियों में पकी हैं। उन भट्ठों की रौनक खत्म और चिमनियों की आग ठंडी हो चली है। वह भी तब जब इंफ्रा स्ट्रक्चर डेवलपमेंट पर बहुत जोर है। पर्यावरण प्रतिबंध, खनन नीति और सीमेंट से बनीं ईंटों का बढ़ता चलन बनारस के भट्ठा संचालकों के कानों में कारोबारी खतरे की घंटी बजा रहा है।
बनारस में भट्ठों की शुरुआत का ज्ञात एवं प्रामाणिक इतिहास नहीं है। हां, यहां का भी ‘लोक-समाज जब मिट्टी के घरौंदों की जगह मिट्टी की बनीं ईंटों का गृह निर्माण में प्रयोग करने लगा तब भट्ठों का चलन शुरू हुआ। शहर के गंगा तटीय पक्का महाल में रईस वर्ग के भवन-मकान ईंटों और पत्थरों से बने हैं जिनकी आयु तीन सौ वर्ष तक है। ईंट-भट्ठा संचालकों की प्रतिनिधि संस्था ईंट निर्माता परिषद का अनुमान है कि लगभग नौ दशक पहले बनारस का पहला ईंट-भट्ठा शिवपुर क्षेत्र में लगा। इन दिनों जिले के अलग-अलग क्षेत्रों में लगभग 405 भट्ठे संचालित हो रहे हैं, उनमें 170 वैध जबकि 235 अवैध हैं। वैध ईंट निर्माताओं में कुछ चार-चार पीढ़ी से इस कारोबार से जुड़े हैं। ईंट निर्माता परिषद के अध्यक्ष कमलाकांत पांडेय का कहना है कि नियमों की जटिलताओं ने अवैध भट्ठों को प्रोत्साहन दिया है।
नदेसर की इमलाक कॉलोनी स्थित परिषद कार्यालय में जुटे संचालकों ने ईंट-भट्ठों के संचालन में आ रही मुश्किलें बयां कीं। उनका कहना है कि या तो सभी भट्ठों को वैध घोषित कर दिया जाए अथवा सभी को नियमों में छूट मिले। अवैध भट्ठों के संचालक ‘बचाव का बाइपास ढूंढ़कर निश्चिंत और निर्द्वंद्व भाव से कारोबार कर रहे हैं जबकि पिस रहे हैं वैध संचालक। नियमों का बोझ उन पर और कार्रवाई की तलवार भी उन्हीं पर।
मिट्टी हुई दुर्लभ, ईंटों के दाम चढ़े
हर खेत की मिट्टी से ईंटें नहीं बन सकतीं। इसलिए भट्ठा शुरू करने के पहले संचालक मुआयना करते हैं। ईंटों के अनुकूल मिट्टी मिलने पर ही वे पहले किसान, फिर प्रशासन के पास बजरिये खनन विभाग आवेदन करते हैं। परिषद के उपाध्यक्ष ओमप्रकाश बदलानी ने बताया कि नियमानुसार भट्ठा संचालन के लिए सालभर का लाइसेंस बनता है। लाइसेंस तब बनता है जब चिह्नित खेत से मिट्टी खोदने की अनुमति मिल जाए। यह अनुमति पहले खनन विभाग ही देता था, अब क्षेत्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और खनन विभाग की संयुक्त सलाहकार कमेटी से अनुमति लेनी पड़ती है। बदलानी के अनुसार, फसलों से खेत खाली रहने पर ही मिट्टी खोदी जा सकती है। और, इधर स्थिति यह है कि उसकी अनुमति मिलने में ही छह-छह माह लग जा रहे हैं। बचे छह माह में दो से तीन माह बरसात के होते हैं। तब भट्ठों पर काम न के बराबर होता है। लगभग तीन माह में किसी संचालक के लिए अपनी लागत निकालने लायक भी ईंटें बना पाना और बेचना मुश्किल होता है। फिर जिला पंचायत से लाइसेंस नवीनीकरण कराने की अवधि आ पहुंचती है। कम अवधि में तैयार ईंटों में अपेक्षित मजबूती नहीं आ पाती है। वे महंगी भी पड़ती हैं। इस गंभीर दिक्कत के चलते बीते एक दशक में दो दर्जन से अधिक भट्ठे बंद हो चुके हैं। शिवप्रकाश सिंह ने बताया कि इन दिनों 75 प्रतिशत वैध भट्ठों पर सिर्फ एक-दो माह की मिट्टी बची है। उनसे ईंटें बनने के बाद भट्ठों की चिमनियां शांत हो जाएंगी। तब आपूर्ति कम होने से ईंटों के दाम और चढ़ेंगे। कमलाकांत पांडेय ने कहा- ‘यह समस्या उनके लिए है जो नियम-कानून के पाबंद हैं। जुगाड़ से भट्ठा संचालन कर रहे लोग मजे में हैं। वे बेखौफ होकर मिट्टी खनन कर रहे हैं। इस स्थिति से वैध भट्ठा संचालकों को भारी नुकसान हो रहा है और वे अपने व्यापार को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
क्षतिपूर्ति का प्रावधान नहीं
ईंट निर्माताओं का कहना है कि बरसात में कच्ची ईंट गल भी जाती हैं। कई बार न बिकने के कारण लंबे समय तक पड़ी रहने से ईंटों की मजबूती कम हो जाती है। तब बाजार में उसकी लागत के अनुसार दाम नहीं मिलते। ऐसी स्थिति में आर्थिक हानि होती है। इस कारोबारी क्षति की प्रतिपूर्ति के लिए शासन-सरकार के स्तर से कोई सहायता नहीं मिलती। संचालकों को अपनी जेब से खर्च वहन करना पड़ता है। चार पीढ़ियों से इस कारोबार से जुड़े मोहन लखमानी ने बताया कि कुछ समय पहले प्रदेश सरकार ने हमारे लिए समाधान योजना शुरू की थी। उससे कई समस्याएं दूर हो जाती थीं। उक्त योजना के फिलहाल बंद होने से समाधान की राह नहीं दिख रही है। इसका सबसे बड़ा असर एक यह भी है कि नई पीढ़ी इस कारोबार को कच्चा सौदा मान बिदक रही है। लखमानी ने कहा कि यदि यही स्थिति रही तो वैध भट्ठे बंद हो जाएंगे। अवैध भट्ठे चलेंगे जो ईंटों की गुणवत्ता से समझौता कर मनमाने दाम वसूलेंगे।
बढ़ता जा रहा कोयला का संकट
वैध भट्ठा संचालकों का दर्द है कि वे सभी प्रकार के टैक्स समय पर अदा करते हैं। इसके बावजूद सरकार की ओर से उन्हें कोई मदद नहीं मिल रही है। उन्हें मिट्टी के साथ कोयले की भारी कमी का भी सामना करना पड़ रहा है। पहले प्रशासन की ओर से भट्ठों के लिए कोटा तय होता था। उसमें सरकारी दर पर कोयला मिल जाता था। अब वह व्यवस्था नहीं रही। सीताराम यादव ने बताया कि हमें ब्लैक मार्केट में दोगुने दाम पर कोयला खरीदना पड़ता है। यह अंतर पांच से सात हजार रुपये प्रति टन पड़ रहा है। ईंटों के दाम बढ़ने का यह भी एक प्रमुख कारण है।
सरकार की सोच बदली, संकट बढ़ा
ईंट निर्माताओं ने इस तर्क को बेदम बताया कि मिट्टी की जगह सीमेंट से बनी ईंटों में अधिक मजबूती होती है। उन्होंने लखौरी ईंटों से बनी इमारतों-भवनों के उदाहरण दिए। कहा, उनमें यदि खराबी आई या वे गिरीं, ध्वस्त हुईं तो देखरेख के अभाव के कारण। लक्ष्य आडवाणी ने कहा कि मिट्टी की ईंटों में वही मजबूती अब भी हो सकती है बशर्ते सरकार प्रोत्साहन दे। यदि सरकार ही सीमेंट और राख की बनी ईंटों के प्रयोग अपने प्रोजेक्ट में करना शुरू कर दे तो हम भट्ठा संचालक हतोत्साहित होंगे ही। बीते एक-दो दशकों से 90 प्रतिशत सरकारी निर्माण में सीमेंटेड ईंटों का इस्तेमाल तेजी से बढ़ा है। निर्माताओं का दावा है कि सीमेंट, राख की ईंटें पर्यावरण के अनुकूल नहीं हैं। आडवाणी ने कहा कि हम रॉयल्टी और जीएसटी भी अदा करते हैं जबकि उसका प्रतिफल उलटा मिल रहा है।
भट्ठों पर नहीं हैं सामुदायिक शौचालय
भट्ठा संचालकों ने ध्यान दिलाया कि सरकार स्वच्छता के नाम पर सामान्य या सामुदायिक शौचालयों का निर्माण करा रही है जबकि किसी भी भट्ठा पर सामुदायिक शौचालय नहीं बना है। वहां काम करने वाले मजदूरों को खुले में शौच करना पड़ता है। सरकार को भट्ठों पर सामुदायिक शौचालय बनवाना चाहिए।
ईसा पूर्व 7000 वर्ष प्राचीन है ईंटों का इतिहास
मानव निर्मित ईंटों की सबसे पहली खोज 7000 ईसा पूर्व की है। तुर्की में मिलीं ईंटें मिट्टी से बनी थीं जो प्राकृतिक रूप से धूप में सुखाई जाती थीं। प्राचीन मिस्र के लोग मिट्टी और भूसे से धूप में सुखाई गई ईंटें बनाने के लिए भी जाने जाते थे। सिंधु घाटी सभ्यता में ईंटों का शुरुआती इस्तेमाल 7000 ईसा पूर्व के आसपास देखा गया। मेहरगढ़, अमरी और कोटदीजी जैसी जगहों पर मिट्टी की ईंटों का इस्तेमाल मुख्य रूप से हुआ।
अजुर या लखौरी ईंटें
मुगल काल में ईंटों को अजुर या खिश्त कहा जाता था। शाहजहां के समय में मानक ईंटों की लंबाई 18-19 सेमी, चौड़ाई 11-12.5 सेमी और मोटाई 2-3 सेमी होती थी, जिसे पारंपरिक रूप से ‘लखौरी ईंट के रूप में जाना जाता था। इस काल में तीन प्रकार की ईंटों का प्रयोग होता था-पुख्ता (पकी हुई), नीम पुख्ता (आधी पकी हुई) और खम (बिना पकी हुई)।
कोट
मिट्टी खनन पर रोक से समस्याएं हो रही हैं। अवैध भट्ठों को मिट्टी मिल जा रही है जबकि वैध भट्ठा संचालक परेशान हैं।
- कमलाकांत पांडेय
सरकारी निर्माण में मिट्टी की ईंटों का प्रयोग न होने से भट्ठों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।
- शिव प्रकाश सिंह
भट्ठा संचालक भी जीएसटी जमा करते हैं जबकि मिट्टी न मिलने से ज्यादातर भट्ठे बंद होने को हैं।
- ओम प्रकाश बदलानी
रायल्टी जमा करने के बाद भी कोयला नहीं मिल रहा है। हमें ब्लैक में दोगुना दाम पर कोयला खरीदना पड़ रहा है।
-सीताराम यादव
वर्तमान कठिनाइयों को देख नई पीढ़ी भट्ठा चलाने से झिझक रही है। यह चिंता की बात है।
- मोहन लखमानी
समाधान योजना सभी भट्ठा संचालकों के लिए लाभदायक था। उसे फिर लागू करना चाहिए।
- लक्ष्य आडवानी
अब गांवों में भी सीमेंट से बनी डमरु ईटें बिछाई जा रही हैं। इससे ईंटों की खपत कम हो गई है।
- रमेश प्रद्वानी
70 प्रतिशत भट्ठों पर सिर्फ दो महीने की मिट्टी मौजूद है। फिर वे भी बंद हो जाएंगे।
- आनंद सिंह
भट्ठा चलाने की अनुमति एक साल की होती है जबकि अनुमति मिलने में ही छह माह लग जाते हैं।
- कैलाश नाथ पटेल
मिट्टी के ईंटों से बने घरों की संख्या कम होती होती जा रही है। इस कारण भी भट्ठे बंद हो रहे हैं।
- मनोज यादव
शिकायत
प्रशासन ने मिट्टी खनन पर रोक लगा दी है। इससे ज्यादातर भट्ठा बंद हैं। मिट्टी खनन की अनुमति प्रक्रिया भी सरल नहीं है।
सीमेंट की ईंटों से घर बनाने का चलन बढ़ रहा है। सरकार भी इस संबंध में कोई कदम नहीं उठा रही है।
भट्ठा चलाने का एक साल की अनुमति मिलती है। जबकि छह महीने का समय स्वीकृति लेने में चली जती है
समाधान योजना बंद होने से सभी संचालकों को नुकसान झेलना पड़ता है। इससे भट्ठा संचालन में दिक्कतें हो रही हैं
सरकार की ओर से कोयला न मिलने से भट्ठा संचालकों को दोगुना दाम में ब्लैक मार्केट से कोयला खरीदना पड़ता है।
सुझाव
-प्रशासन वैध भट्ठों को मिट्टी खनन की अनुमति दे। साथ ही अनुमति प्रक्रिया सरल की जाय।
-सरकारी निर्माण कार्यों में मिट्टी की ईंटों का प्रयोग होना चाहिए, ताकि भट्ठा संचालकों की रोजी प्रभावित न हो।
-भट्ठा संचालन की अनुमति मिलने की निश्चित समय सीमा हो ताकि एक साल तक बिना बाधा भट्ठे चलते रहें।
-
ईंट व्यापारियों को समाधान योजना का लाभ देना चाहिए। इससे सरकार को भी राजस्व का लाभ मिलेगा।
- वैध भट्ठा संचालकों के लिए सरकारी स्तर पर कोयला उपलब्ध होना चाहिए ताकि ईंट निर्माण की लागत कम रहे।
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