बोले काशीः कलाकार के संगतकार: फनकार से कमतर नहीं संगतकार, चाहें एक मजबूत संगठन
Varanasi News - वाराणसी के संगीत कार्यक्रमों में संगतकारों की स्थिति खराब है। मुख्य कलाकारों को भारी भुगतान मिलता है, जबकि संगतकारों को उचित मानदेय नहीं दिया जाता। संगतकारों का मानना है कि संगठन बनाना जरूरी है ताकि...
वाराणसी। गायन, नृत्य और वादन के बड़े फनकार की प्रस्तुति की रंगत बिना संगत के नहीं जमती। हारमोनियम, सितार-सारंगी, संतूर-वीणा, तबला-मृदंग के कुशल संगतकार न हों तो सुर बेसुरा हो जाता है, लय बिगड़ जाती है, ताल बेताल लगने लगता है। मगर हुनर में पक्के काशी के संगतकार खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं। ज्यादातर आयोजनों में मोमेंटो-माला ही उनके हिस्से आती है। इससे सम्मान बढ़ता है लेकिन भूख नहीं मिटती। उनका मानना है कि दिल्ली-मुंबई की तरह काशी में भी संगतकार संगठन बने तभी उनकी डूबती नइया को सहारा मिल पाएगा। संगीत का बनारस घराना रूपी वट-वृक्ष की जड़ें गहरी हैं तभी उसकी शाखाएं हरी-भरी एवं मजबूत दिखती हैं। इस घराने के दिग्गज कलाकारों ने समय की शिला पर अपने फन की अमिट छाप छोड़ी है, उनसे प्रेरित नई पीढ़ी के प्रतिनिधि भी उसी राह पर हैं।
उन कलाकारों ने अपनी स्वतंत्र छवि बनाई तो संगतकार के रूप में अनेक नामचीन फनकारों की प्रस्तुतियों के पूरक भी बने। पुराने रिकार्ड सुनकर कभी कभी तो यह लगता है कि वैसे संगतकार न होते तो शायद सितार-संतूर के तारों की झंकार चित्ताकर्षक न हो पाती। उन संगतकारों की वर्तमान पीढ़ी भी में कई चेहरे प्रसिद्धि के नित नूतन सोपान तय कर रहे हैं। वे ‘मात्राओं को अंगुलियों पर नचाते हैं तो यह भी बखूबी समझते हैं कि गायक राग के किस मोड़ पर कंठ-स्वर में ‘मुरकी लेगा। तब संगत की रंगत जम पाती है।
वे मौजूदा संगतकार कई चुनौतियों से दो-चार है। चुनौतियों से वे जूझते हैं। कभी पार पा लेते हैं तो कई बार रास्ते बदल देते हैं। कई संगतकारों ने चुनौतियों को नियति मान लिया है। ‘हिन्दुस्तान के साथ चर्चा के दौरान दर्द में लिपटे उनके शब्द गौर करने लायक हैं- ‘संगतकार का मतलब यह नहीं कि उनको एक दुपट्टा दे दिया गया, माला पहना दी गई और मान लिया, चलो बस हो गया। मुख्य कलाकार को क्या मिल रहा है, यह संगतकार नहीं जानते हैं। मेहनताना के रूप में मुख्य कलाकार हमें चाहे दो सौ दें, तीन सौ दें, चाहे पांच सौ दे दें। मुख्य कलाकार की तरह ही संगतकार का भी भुगतान तय होना चाहिए।
संगतकार को रिक्शा भाड़ा भी नहीं
वरिष्ठ तबला संगतकार पं. भोलानाथ मिश्र कहते हैं कि काशी में संगीत कार्यक्रमों के आयोजक मुख्य कलाकार को हवाई जहाज, ट्रेन, होटल और कार का खर्च दे रहे हैं जबकि संगतकार को रिक्शाभाड़ा देना भी मुनासिब नहीं समझा जाता है। ज्यादातर आयोजक चाहते हैं कि संगतकार अपने साधन से आए। बजाय और माला-मोमेंटो पर खुश हो जाए। मंदिरों में शृंगार, भंडार, बाहर के कलाकार पर बड़ी धनराशि खर्च होती है लेकिन संगतकार के लिए उनको भी कमी हो जाती है। देश-विदेश में प्रदर्शन कर चुके तबला वादक प्रभाष महाराज की टिप्पणी है- ‘संगतकारों के साथ वैसा ही हो रहा है, जैसा फिल्मों में सपोर्टिंग क्रू मेंबर के साथ होता है। बड़े कलाकारों को वेनिटी वैन सपोर्टिंग के लिए सब बैन!
मुख्य कलाकार का भुगतान बढ़ा
संगीत के निजी आयोजनों में भुगतान बहुत कम है। सरकारी कार्यक्रमों में 20 साल पहले मुख्य कलाकार को जो भुगतान मिलता था, उसमें 40 से 50 गुना वृद्धि हो चुकी है मगर संगतकारों की स्थिति अब भी 20 साल पहले जैसी है। सरकारी आयोजक किसी एक कलाकार से संपर्क करते हैं। तय हो जाता है कि उनके साथ कितने संगतकार होंगे। उसी के आधार पर उसका भुगतान राशि निर्धारित होती है। अब मुख्य कलाकार अपने संगतकारों को कितना देगा, कैसे देगा-यह पूरी तरह उस पर निर्भर है। पं. भोलानाथ ने कहा कि मुख्य कलाकार अपने संगतकारों के साथ न्याय नहीं कर रहा है तो इसके लिए आयोजक ही दोषी नहीं हैं। संगतकारों को तय करना है कि वे किसके साथ संगत करेंगे और किसके साथ नहीं। यह निर्धारण कोई अकेला संगतकार नहीं कर सकता।
मुंबई-दिल्ली की तरह बने संगठन
लोक गायक मंगल मधुकर संगतकार अपना संगठन बनना जरूरी मानते हैं। जैसे विदेशों में है, अपने देश में मुंबई-दिल्ली में भी संगताकारों का संगठन है। उनके मुताबिक वहां के संगठन का नियम है कि उस शहर में आप तब तक संगत नहीं कर सकते जब तक उस संगठन के सदस्य नहीं बनेंगे। शुल्क देकर सदस्यता लेनी होती है। बनारस में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। बनारस में भुगतान का कोई मानक नहीं है। नया है तो कम से कम में बुक करने की मानसिकता। इसलिए एक संगठन जरूर बनना चाहिए। उन्होंने कहा कि संगठन की जरूरत कई वर्षों से महसूस की जा रही है लेकिन वह बन नहीं पा रहा है क्योंकि संगतकारों में ही एकता नहीं है।
आकाशवाणी की तरह हो ग्रेडिंग सिस्टम
संगतकारों ने व्यावहारिक दिक्कत की ओर ध्यान दिलाया। यह कि आयोजक किसी कार्यक्रम के लिए मुख्य कलाकार को ही बुक करते हैं। साथ के संगतकारों का भुगतान तय नहीं करते या उन्हें तय करने नहीं दिया जाता। मसलन, तबला, सारंगी या सितार-हारमोनियम के कलाकार की भी बराबर की बुकिंग होनी चाहिए। तबला वादक पं. प्रभाष महाराज ने उपयोगी सुझाव दिया कि आकाशवाणी की तरह ग्रेडिंग सिस्टम रेट तय होना चाहिए। आप ग्रेडिंग परीक्षा पास करते जाइए, रेट बढ़ता जाएगा। यह व्यवस्था सार्वजनिक कार्यक्रमों के लिए नहीं बन पा रही है। ग्रेडिंग सिस्टम बहुत अनिवार्य है। उन्होंने कहा कि कुछ संगतकार आर्थिक रूप से मजबूत हैं। वे मुफ्त में भी बजाने को तैयार रहते हैं। इससे माहौल खराब हुआ है। पहले लोग कलाकारों के पैर छूते थे, अब कलाकार आयोजकों का पैर छूने को मजबूर है। सरकारी तंत्र का दबाव, कलाकार या संगतकार को डर है कि अगर वह पैर नहीं छुएगा तो उसे कार्यक्रम नहीं मिलेगा। फिर, रोजी-रोटी नहीं चलेगी।
राग ‘जी-हुजूरी से मिले मुक्ति
संगतकारों की एक समस्या राग ‘जी-हुजूरी भी है। उनके मुताबिक, कुछ लोगों का ‘आलाप, झाला या परन बिना राग जी-हुजूरी के शुरू नहीं हो पाता। उनका यह अतिरिक्त हुनर उन्हें कार्यक्रम दिलाता रहता है। वहीं, उनसे कहीं अव्वल दर्जे के कलाकार साल में एक-दो कार्यक्रम ही पाते हैं। क्योंकि, वे किसी ‘दरबार में हाजिरी नहीं लगा पाते। डॉ. संदीप रॉव केवले का कहना है कि यूपी में यह प्रवृत्ति अधिक प्रभावी और उतनी ही कष्टकारी है। देश के बाकी प्रांतों में ऐसा नहीं है। इस स्थिति से निजात दिलाने के लिए भी संगतकारों का संगठन होना आवश्यक है। संगठन की नियमावली बने। वह संगठन मानकों के आधार पर संगतकारों की ग्रेडिंग तय करे। कोई आयोजक या कलाकार अपने कार्यक्रम में संगतकारों के लिए संगठन से संपर्क करे। कोई बाहरी संगतकार आकर बिना संगठन की मंजूरी के संगत न करे। हां, अगर संगतकार को अपनी योग्यता पर भरोसा है तो वह संगठन की ज्यूरी के सामने अपने आप को प्रमाणित करे। साथ ही वह संगठन का मेंबर बने, तब बनारस में संगत करे।
कलाकारों के लिए कोई फंड नहीं
सभी कलाकार, संगतकार आर्थिक रूप से संपन्न होंगे, यह सोच गलत है। फन में माहिर होने के बाद भी उनसे लक्ष्मी रूठी रहती हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं। ऐसे संगतकारों को बीमारी आदि जरूरत के समय जरूरी आर्थिक मदद नहीं मिल पाती। सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित कराते रहने वाले कन्हैया दुबे ‘केडी ने कहा कि बनारस धार्मिक संगीत की भी राजधानी है। यहां कुछ लोग कलाकार को ढाल बनाकर बड़े-बड़े कार्यक्रम तय करते हैं। फिर एक बड़ी राशि हड़प लेते हैं। कलाकारों एवं संगतकारों तक छोटा हिस्सा ही पहुंचता है। वहीं, बड़े कलाकार के साथ लंबे समय तक संगत करने वाले पर कोई मुसीबत आती है तब वह कलाकार ही सबसे पहले मुंह मोड़ लेता है। ऐसी परिस्थितियों से बचाव के लिए एक फंड बनना चाहिए। उसमें आय के अनुसार सभी की ओर से निश्चित राशि देने की अनिवार्य व्यवस्था हो। उन्होंने कहा कि इसके लिए संगतकारों को ही पहल करनी होगी। केडी ने कलाकारों-संगतकारों के राजनीतिक इस्तेमाल की ओर भी ध्यान दिलाया। राजनेता को भीड़ जुटाने के लिए कलाकार की जरूरत पड़ती है। कलाकार दो-चार घंटे मेहनत करके माहौल बनाता है। ऐसे कलाकारों को भी राजनीति में भागीदारी मिलनी चाहिए। चुनाव जीतने के बाद उसे उसकी विधा से जुड़ा मंत्रालय भी मिलना चाहिए।
ग्रैमी है एकजुटता का नजीर
तबला नवाज दीपक सिंह का कहना है कि एकजुटता न होने का सभी संगतकारों को खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। उन्होंने ग्रैमी अवार्ड का उदाहरण दिया। बोले, यह अवार्ड पूरी दुनिया में जाना जाता है। ग्रैमी, लॉस एंजिलिस शहर में कलाकारों का संगठन है। उस संगठन के दो सदस्य जब तक किसी को नॉमिनेट नहीं करते, तब तक वह अवार्ड के लिए आवेदन भी नहीं कर सकता। इस संगठन के पदाधिकारी चुनाव के माध्यम से चुने जाते हैं। पूरे उत्तर भारत में ऐसा कोई संगठन नहीं है। चाहने पर भी कोई संगतकार शासन-प्रशासन से नहीं लड़ सकता।
तर्कसंगत बात
सोचने की बात है कि संगतकारों का शोषण किनके कारण होता है। यह स्पष्ट होना चाहिए।
- पं. भोलानाथ मिश्र, तबला वादक
संगतकार संगठन बनने से मुख्य कलाकार भी हेराफेरी नहीं करेंगे। संगतकारों का भी कांट्रेक्ट बनना चाहिए।
-प्रभाष महाराज, तबला वादक
भुगतान का निश्चित हिस्सा एक फंड में जमा होना चाहिए। वह मुसीबत में संगतकारों के काम आएगा।
-कन्हैया दुबे ‘केडी, कार्यक्रम संयोजक
जब संगठन का दबाव रहेगा, तभी संगतकारों की समस्या का समाधान होगा। सभी संगतकारों को संगठित होना होगा।
-दीपक सिंह, तबला वादक
संगठन जरूरी है ताकि कलाकारों को उचित सम्मान और मानदेय दोनों प्राप्त हों।
-डॉ. संदीप रॉव केवले, तबला वादक
कलाकारों के प्रति भेदभाव मिटाने के लिए संगठन जरूरी है। सभी अपनी योग्यता के अनुसार ग्रेड पाएंगे।
- डॉ. शनीश ज्ञावाली, बांसुरी वादक
रिकार्डिंग फील्ड में भी शोषण है। कई बार मेहनत की तुलना में बहुत कम राशि मिलती है।
-अनिल रमन, की-बोर्ड वादक
संगतकार के बारे में सोचना कलाकार का धर्म है। वह कई बार इनाम की भी राशि लेकर चला जाता है।
-संजय भारती, बैंजो वादक
संगतकार ज्यादा मेहनत करते हैं। संगत से रंगत है लेकिन वह आर्थिक मोर्चे पर फीकी है।
-गौरी श्रीवास्तव, तबला वादक
सम्मानजनक राशि के लिए जूनियर संगतकारों को कई बार अपमानित होना पड़ता है।
-विशाल शर्मा, ढोलक वादक
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सुझाव
कलाकारों के बीच से भी जनप्रतिनिधि का चुनाव होना चाहिए। चुनाव में जीत के बाद उसे संबंधित मंत्रालय भी मिले।
संगतकार संगठन के पदाधिकारियों को बहुमत के आधार पर हटाने की व्यवस्था हो ताकि उनमें पारदर्शिता बनी रहे।
न्यूनतम भुगतान तय होना चाहिए। रिकार्डिंग स्टूडियो में प्रोड्यूसर को पता हो कि हर संगतकार को भुगतान देना ही है।
संगतकारों का भला करने के लिए बनारस में होने वाले सरकारी कार्यक्रमों में स्थानीय कलाकारों की सहभागिता तय हो।
कलाकार-संगतकार को नि:शुल्क चिकित्सा की सुविधा मिले। उनके आयुष्मान कार्ड भी बनें।
शिकायत
काशी में करोड़ों के कार्यक्रम हो रहे हैं लेकिन स्थानीय कलाकारों और संगतकारों को मौका नहीं मिल पाता।
सरकारी विभागों की ओर से विभाग की ओर से शहर में होने वाले कार्यक्रमों में ज्यादा मौके उन्हें मिलते हैं जो अधिकारियों के आगे-पीछे घूमते हैं।
कार्पोरेट सेक्टर के आयोजनों में बिचौलियों की पौ बारह है। वे कलाकारों के हिस्से की बड़ी राशि हड़प जा रहे हैं।
70 साल से अधिक उम्र के कलाकारों-संगतकारों के लिए अब तक आयुष्मान कार्ड की व्यवस्था नहीं है।
कलाकारों को राजनीति में सक्रिय भागीदारी नहीं मिलती है। राजनीतिक दल अपनी साख बचाने के लिए उनका इस्तेमाल करते हैं।
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