ग्रहण में गुरुजन : बच्चों ने संभाला वरना फांकों की नौबत थी...
वाराणसी में प्रो. एसएन ओझा, जिन्होंने 36 साल बीएचयू में सेवा दी, रिटायरमेंट के बाद पेंशन न मिलने की समस्या का सामना कर रहे हैं। 130 रिटायर शिक्षकों में से एक, प्रो. ओझा ने कई महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स पर...
वाराणसी, वरिष्ठ संवाददाता। मैंने 30 साल बीएचयू की सेवा की। रिटायरमेंट के बाद भी छह साल का समय लगाकर आईआईटी बीएचयू में प्रोजेक्ट पूरा कराया। विभिन्न पदों पर रहते हुए आईआईटी बीएचयू में करोड़ों के प्रोजेक्ट लाया मगर रिटायर होकर लौटा तो पेंशन घर न ला सका। आईटी बीएचयू के मेटलर्जिकल इंजीनियरिंग विभाग में कुल 36 साल तक सेवा देने वाले प्रो. एसएन ओझा अपनी पीड़ा कुछ इस तरह साझा करते हैं। बीएचयू में पेंशन अन्याय का शिकार हुए 130 रिटायर शिक्षकों में प्रो. ओझा भी शामिल हैं। सुंदरपुर स्थित घर में साथ रहने वाली पत्नी माधुरी ओझा कहती हैं कि वह तो काफी हद तक बच्चों ने संभाला और हिम्मत दी। वरना अब तक फांकों की नौबत आ गई होती। प्रो. एसएन ओझा ने 1985 में आईटी बीएचयू के सबसे पुराने मेटलर्जिकल इंजीनियरिंग विभाग में ज्वाइन किया। वह कहते हैं कि उस वक्त उम्र कम थी और जोश था कि कुछ अलग कर दिखाना है। नौकरी की शुरुआत में ही कौन सोचता है कि अभी से अपनी पेंशन का हिसाब-किताब तय कर लूं। 1987 के आदेश को समयसीमा बीतने के बाद 88 में बीएचयू ने सर्कुलेट किया तब भी भान नहीं था। रिटायरमेंट के समय 2015 में जब पेंशन न मिलने की जानकारी मिली तो जैसे पैरों तले जमीन खिसक गई। 74 वर्ष के हो चुके प्रोफेसर कहते हैं कि देर तो हुई है मगर अब भी महामना की बगिया से नाउम्मीदी नहीं है।
10 साल तक भारत सरकार के सूचना एवं प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) की प्रोग्राम एडवाइजरी कमेटी के सदस्य रहे प्रो. ओझा ने सैकड़ों युवा शोधकर्ताओं को प्रोत्साहित किया। वह कहते हैं कि आईटी और फिर आईआईटी बीएचयू में दर्जनों बड़े प्रोजेक्ट लाए। आखिरी प्रोजेक्ट स्टील अथॉरिटी की तरफ से 40 करोड़ की लागत का था। गनीमत थी कि सातवें वेतन आयोग में कुछ महीने अच्छी तनख्वाह मिली और रिटायरमेंट के बाद छह साल प्रोजेक्ट में काम किया। बच्चे अच्छी जगह पर हैं, नहीं तो पुराना घर बेचकर दो वक्त की रोटी जुगाड़ने के अलावा कोई चारा न होता।
अपनी गलती छिपा रहा बीएचयू
प्रो. एसएन ओझा कहते हैं कि बीएचयू 130 शिक्षकों के मामले में अपनी गलती छिपाने के लिए सारी मशक्कत कर रहा है। 30 सितंबर-87 की समययीमा के बाद 1988 में सर्कुलर अपनी गलती छिपाने के लिए जारी किया गया। गलती समझ में आ जाने के बाद भी भूल सुधार की जगह मामले को बेवजह अटकाया और फंसाया जा रहा है। उन्होंने बताया कि इस मामले में प्रधानमंत्री के संसदीय कार्यालय से लेकर शिक्षा विभाग तक भी गुहार लगाई गई है। कई बार शिक्षकों ने कुलपति से भी मिलने का प्रयास किया मगर उन्हें समय ही नहीं दिया गया।
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